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२१४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
व्यवस्थाओं द्वारा उन सब प्रवृत्तियों को यथोचित स्थान दिया गया है जिनके द्वारा मनुष्य सभ्य और शिष्ट बनकर अपनी, अपने कुटुम्ब की, तथा समाज व देश की सेवा करता हुआ उन्हें उन्नत बना सके ।'
अपभ्रंश काव्यों में लौकिक आनन्द की दृष्टि से एक ओर शृंगारिक पक्ष का चमत्कार मिलेगा तो दूसरी ओर संयम की यथार्थता का बयान भी। पाटलिपुत्र में मुनि स्थूलभद्र चातुर्मास कर रहे थे। नगर की एक रमणी वेश्या उन पर अनुरक्त हो गई। वेश्या को अपने रूप का गर्व था अतः वह मुनि को रिझाने चल पड़ी। उस वेश्या का रूप अपभ्रंश कवि को लेखनी में देखिये :
कन्नजुयल जसु सहलहंत किर मयण हिंडोला चंचल चपल तरंग चंग जसु नयण कचोला सोहइ जासु कपोल पालि जणु मालि मसूरा कोमल विमल सुकंठ जासु वाजइ सखंतूरा तुंग पयोहर उल्लसइ सिंगार थपक्का
कुसुम वाण निय अमिय कुंभ फिर थापण मुक्का॥ - अर्थात् प्रकम्पित कर्णयुगल मानो कामदेव के हिंडोले थे, चंचल ऊर्मियों से आपूरित नयन कनोले, सुन्दर विषैले फूल की तरह प्रफुल्लित कपोल-पालि, शंख की तरह सुडोल सुचिक्कण निर्मल कंठ-उसके उरोज श्रृंगार के स्तवक थे, मानो पुष्पधन्वा कामदेव ने विश्वविजय के लिए अमृत कुम्भ की स्थापना की थी।
इस सुरम्य सुन्दरी का रूप भी मुनिवर के संयम को डिगाने के लिए नाकाफी रहा। क्योंकि उन्होंने सिद्धिरूपी रमणी से परिणय कर लिया था तथा वे संयम श्री के भोग में लीन हो चुके थे :
मुनिवइ जंपइ वेस सिद्धि रमणी परिणेवा। मनु लीनउ संयम सिरि सों भोग रमेवा॥'
१. डा० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० २८३.
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२. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य,. पृ० २८३ • से उद्धृत. ३. वही.. . .
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