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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २७३ मोड़ा। वस्तुतः जैनधर्म क्षत्रियों एवं वीरों ने ही स्वीकार किया था तथा उन्होंने यवनों और शकों को युद्ध में लोहे के चने चवाये थे । परन्तु धीरे-धीरे यह व्यापारियों का धर्म बनकर रह गया और क्षत्रियोचित धर्म उनमें से जाते रहे। जिस अपभ्रंश की पृष्ठभूमि की चर्चा हम कर रहे हैं उसमें यह स्मरणीय है कि अपभ्रंश साहित्य के प्रणयन एवं उसके संरक्षण का श्रेय सर्वाधिक जैनों को ही मिला है। इस काल में जैनाचार्यों ने दर्शन, ज्योतिष, नाटक, काव्य, आयुर्वेद, व्याकरण आदि सभी विषयों पर संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में ग्रन्थ लिखे। जैनाचार्यों ने सदैव उस समय की प्रचलित भाषाओं को अपने ग्रन्थों का आधार बनाया। यही कारण था कि इस काल को अधिकांश रचनाएं देशभाषा में-अपभ्रंश मेंलिखी गईं। विशेषकर इसमें चरितादि कथाकाव्य अधिक लिखे गए।
अन्य धर्मों की भांति ही जैनधर्म को भी दिगम्बर, श्वेताम्बर दो शाखाएं हो गईं। इसका प्रचार-प्रभाव समस्त भारत में फैल गया। १११२वीं शताब्दी में पश्चिम भारत में जैनधर्म, दक्षिण में शवधर्म, पूर्व तथा उत्तर में वैष्णवधर्म विशेषरूप से फैला था।' अब इन सभी धर्मों के विचार-भेदों से समाज में अनेक परिवर्तन आये। विचार-भेदों से भारतीय समाज में वैमनस्य का विष फैलने लगा। ये धार्मिक विवाद चलते रहे। ११वीं शती के प्रारम्भ में इस्लाम ने भारत में जगह बना ली और भारत पर उसकी संस्कृति का प्रभाव पड़ने लगा । इस्लाम और हिन्दुओं में धार्मिक कलह जारी रहा। इसी समय हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही धर्मों के कुछ ऐसे संत हुए जिन्होंने मतभेदों को मिटाने का प्रयत्न किया। • सामाजिक स्थिति . इस काल की परिस्थितियों के कारण हिन्दुओं के बहप्रचलित चार वर्ण अनेक जातियों-उपजातियों में विभक्त हो गए। फलतः सामाजिक व्यवस्था एवं एकता की रीढ़ टूट गई। ऐसे अवसर का लाभ विदेशी आक्रमणकारी मुसलमानों ने उठाया । विघटित और असंगठित जातियां मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करने में असमर्थ रहीं। चारों
१. अपभ्रंश-साहित्य, पृ० २९.
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