________________
..सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १९३
कि इन प्रतीकों को जैन दर्शन में निक्षेप कहा है। जब हम बोलकर कुछ कहना चाहते हैं तब वस्तुओं के जो ध्वन्यात्मक नाम लेते हैं वह नाम निक्षेप है। जब चित्र खींचकर या मूर्ति बनाकर उसे प्रकट करते हैं तब हम स्थापना निक्षेप की सहायता ले रहे हैं। जब हम उसके बाह्य मूर्तस्वरूप को सन्मुख रखते हैं तब वह द्रव्य निक्षेप कहलाता है और जब उसके आभ्यन्तर स्वरूप को व्यक्त करने लगते हैं तब वह भाव निक्षेप कहलाता है। इस प्रकार निक्षेपों द्वारा हम प्रकृति के तथ्यों को उनकी अनुपस्थिति में दूसरों को उनका अनुभव कराने का प्रयत्न करते हैं।' यहाँ किसी विशेष साहित्य के प्रतीकों की व्याख्या करना इष्ट नहीं है । मेरा ध्येय सिर्फ इतना है कि सूफ़ी साहित्य की प्रतीक परम्परा से पूर्व भारतोयों के पास प्रतीक परम्परा थी अथवा नहीं-इसका पता लग सके । प्रतीकात्मक नाटकों को भारतीय परम्परा प्राचीन रही है । अश्वघोष के नाटकों के पात्र प्रतीकात्मक हैं। वे पात्र कोई सामान्य व्यक्ति नहीं किन्तु बुद्धि, कीर्ति, धृति आदि भाव हैं। वे रंगमंच पर आते हैं और वार्तालाप करते हैं। डा० हीरालाल जी ने कृष्ण मिश्र द्वारा लिखित प्रबोधचन्द्रोदय (११वीं शताब्दी) नाटक का उल्लेख किया है, उसके निवृत्ति, विवेक, प्रबोधोदय, उपनिषत्, मति आदि पात्र भी प्रतीकात्मक हैं। श्रद्धा, शम, दम आदि अनेक पात्र हैं जो प्रतीकों की कोटि में ही आते हैं। प्रतीकात्मक शैली का ही एक जैन नाटक मोहराजपराजय है। इसकी रचना यशःपाल ने सन् १२२९-३२ के बीच की थी। इस नाटक के कथापात्र ज्ञानदर्पण, विवेकचन्द्र, कृपासुन्दरी, शान्ति आदि प्रतीकात्मक ही रखे गए हैं। मनोनगर राज्य मन का प्रतीक है । इस प्रकार प्रतीकात्मक कथाओं की जैन परम्परा ही थी । जैनों के उत्तराध्ययनसूत्र, णायाधम्मकहाओ, वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरिकृत समरादित्यकथा और उपमितिभवप्रपंचाकथा आदि ऐसे कई ग्रन्थ हैं जिनमें प्रतीकात्मक शैली अपनाई गई है।
अपभ्रंश भाषा की मयणपराजयचरिउ ( १२वीं और १५वीं शती के मध्य ) रचना प्रतीकात्मक शैली की एक प्रमुख रचना है । इस रचना १. डा० हीरालाल जैन द्वारा संपादित मयणपराजयचरिउ की प्रस्तावना, पृ० ३८. २. वही, पृ० ३९. ३. वही.