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अध्याय २ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास प्रेमाख्यानक : परिभाषा का प्रश्न
प्रेमाख्यानक, प्रेमगाथा, प्रेमकहानी और प्रेम-कथा लगभग एकार्थवाचक शब्द हैं। प्रेमाख्यानकों को ही कतिपय विद्वानों ने प्रेमगाथा कहा है।' समान अर्थ वाले शब्दों को पर्यायवाची शब्द माना जाता है । मूलतः यह व्यवस्था कामचलाऊ ही है। आख्यानक शब्द में कथा, कहानी, माथा और कथानक आदि सभी अर्थ अन्तनिहित हैं, जिसका उल्लेख हम आगे करेंगे। प्रेमाख्यान शब्द प्रेम और आख्यान के संयोग से बना है, यह प्रत्यक्ष ही है। इन दोनों शब्दों की अलग-अलग और सम्मिलित व्याख्या से प्रेमाख्यानक की परिभाषा करने में सरलता होगी। प्रेम संसार की एक ऐसी नौका है, जिसमें बैठकर संसार की सैर भी की जा सकती हैं और संसार से ऊब होने पर उससे पार भी उतरा जा सकता है। प्रेम एक ऐसा भाव है जिस पर किन्हीं बाह्य पदार्थों का प्रभाव नहीं पड़ता : .
नूरमुहम्मद प्रेम पर लहे न मन्त्र न जन्त्र ।
प्रेम-पीर जहाँ ऊपजे, तहाँ न औषद मन्त्र ॥ प्रेम का प्रभाव इतना दिव्य होता है कि 'प्रेम के दिव्य प्रभाव से उसे (प्रेमी को) अपने आस-पास चारों ओर सौन्दर्य की छाया फैली हुई दिखाई पड़ती है, जिसके बीच वह बड़े उत्साह और प्रफुल्लता के साथ अपना कर्मसौन्दर्य प्रदर्शित करता है । यह प्रवृत्ति इस बात का पूरा संकेत करती है कि मनुष्य की अंतःप्रकृति में जाकर प्रेम का जो विकास हुआ है वह सृष्टि के बीच सौन्दर्य-विधान की प्रेरणा करने वाली एक दिव्य शक्ति के रूप में है। सत्य तो यह है कि प्रेम अनुभूतिपरक है । अतएव जिसने जैसा अनुभव किया उसने अपने ढंग से 'प्रेम' को परिभाषित किया। प्रिय से प्रेमी १. डा० सत्येन्द्र, मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का लोकतात्विक अध्ययन, पृ० १३९. २. डा० सरला शुक्ल, हिन्दी-सूफी कवि और काव्य, पृ० ४७१ से उद्धृत । ३. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि, प्रथम भाग, पृ० ८९.