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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ८५
कहीं। विवाह सम्पन्न हुआ। सात खण्ड के धौरहरे में उन दोनों को 'सुलाया गया।
प्रीतम कुँवर को अपने स्वर्गारोहण की चिन्ता लगी थी। अतः वह दूलहिन की ओर पीठ करके चपचाप चिन्ता में निमग्न रहा। कूमारी सो गई। जब पिछला पहर हुआ तब राजकुमार ने उस राजकुमारी के अंचल-पट पर लिखा- मैं कन्नौज के राजा का बेटा हूँ। जो विधाता ने लिख दिया है वह मिटाया नहीं जा सकता। मेरी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। वह पूर्ण हो गई । कल दापहर के पूर्व मैं काशी में मोक्ष प्राप्त करूँगा। तुम्हारे लिए यह झंखना हुआ और मुझे यह दोष लगा।' इतना लिखकर प्रीतम कुँवर घोड़े पर सवार हो काशो की ओर चल पड़ा।
प्रातःकाल जब सखियाँ चित्ररेखा के समोप गईं तो देखा कि वह सोई हुई है। उसके सभी साज-सिंगार अछूते हैं। सखियों ने कुमारी को जगाया और उसके कांत के विषय में पूछा कि वह किधर है ? तुम्हारे अंग अनालिगित ही लगते हैं, इसका क्या कारण है ? सखियों के बार-बार पूछे जाने पर चित्ररेखा ने कहा-'मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं। मुझे तो उनके दर्शन भी न हुए। केवल 'पीठ' मिली। मैंने तो उनके रूप को भी नहीं देखा।' अचानक उसको दष्टि अपने अंचल पर पड़ी। उसने वह लिखा हुआ पढ़कर सब बातें जान ली और स्वयं भी चिता में जलने का निश्चय
किया। इसके बाद उसने अपना सिंधोरा निकाला। सिंदूर लगाकर अंचल · को गाँठ को हृदय से लगाकर उसने कहा कि यह गाँठ प्रीतम ने लगाई है अतः इसी के साथ मैं स्वर्ग जाऊँगी । वहीं उनसे मिलूंगी।
प्रीतम कुंवर ने काशो पहुँच कर मरने की तैयारी की। उसने दान देना प्रारम्भ किया। दान लेने वालों में महर्षि व्यास जी भी खड़े हो गये। कुंवर ने व्यास जी को भी मुट्ठी भर कर कहा-'गुसाईं ! आप भी लीजिये।' और दान दिया। व्यास जी के मुख से निकल पड़ा-'चिरंजीव होओ' । राजकुमार ने आश्चर्य प्रकट किया। तब व्यास जी ने समझा। फिर भी व्यास जी ने अपना आशीर्वाद ब्रह्मा की ओर से ही बताया। कुमार की आयु की अवधि बढ़ गई। राजकुंवर ने व्यास जी के चरणों में प्रणाम किया । उसे चित्ररेखा की याद हो आई और वह वहाँ से तुरन्त घोड़े पर चढ़कर चल पड़ा।