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८४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दो प्रेमाख्यानक
नाम प्रीतम कुँवर रखा गया। पण्डितों ने कुँवर को अल्पायु बतलाया । कुमार अपनी अवस्थानुसार बढ़ने लगा। दस वर्ष की अवस्था में ही कुमार ने अपनी सेना एकत्रित करके शत्रु पर चढ़ाई कर दी। पिता कल्याणसिंह ने पुत्र की योग्यता पर प्रसन्न होकर सब राजपाट का भार पुत्र को ही सौंप दिया । राजकुमार की योग्यता से उसके माता-पिता को इतना हर्षातिरेक हुआ कि वे कुँवर का व्याह रचाना भी भूल गये । पण्डितों की बताई गई आयु में सिर्फ ढाई दिन जब शेष रह गये तब सभी करुण क्रन्दन करने लगे। उन्हें पश्चात्ताप हआ कि पुत्र का विवाह भी नहीं किया और वंश का सूर्य अस्त होने लगा।
प्रीतम कुँवर ने माता-पिता को समझाया तथा घोड़े पर सवार होकर काशी की ओर मुक्ति पाने के लिए प्रस्थान किया। उसके प्रस्थान करते ही कन्नौज नगर उजाड़ हो गया । माता-पिता की दशा शोचनीय हो गई।
चन्द्रपुर नगर में चित्ररेखा के विवाह की तैयारी हो रही थी। उस नगर के समीप पहुंचते-पहुँचते धूप के कारण कुँवर ने एक वृक्ष को छाया में विश्राम किया। काल के भय से उसे नींद आ गई। सिंघनदेव उसी राह से अपने कुबड़े बेटे का विवाह करने आ रहा था । संयोगवश वह भी उसी छाया में विश्राम करने के लिए रुका जहाँ कि पहले से ही प्रीतमसिंह विश्राम कर रहा था। सिंघनदेव देखते ही समझ गया कि प्रीतमसिंह किसी राजा का पुत्र है। उसके रूप को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और वहीं समीप में बैठकर उसको पंखे से हवा करने लगा। इतने में प्रीतमसिंह चौंककर उठ गया। जब वह चलने लगा तो सिंघनदेव ने उसके पैर पकड लिये और उसकी जाति-कुल तथा उदासी का कारण पूछा। उसकी बातें सुनकर सिंघनदेव ने अपनी समस्या बताई और आग्रह किया कि मेरे कुबड़े बेटे के स्थान पर तुम आज रात विवाह कर लो, कल काशी चले जाना।
सिंघनदेव ने उसे बीड़ा दिया। प्रीतमसिंह को वर के वेश में लाया गया। वह अपने मन में काशी जाने की बात सोच रहा था। राजा चन्द्रभानु के अगवानी करने वाले लोगों ने जब दूल्हे को देखा तो वे सब प्रसन्न हुए। बारात धूम-धाम से चन्द्रभानु के द्वार पर पहुंची। सखियों ने बारात और दूल्हे को देखकर चित्ररेखा से बड़ी-बड़ी बातें