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४८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
सकते हैं। अपनी रचना की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए कवि ने कृति को भागीरथी से भी बढ़कर कहा है। वह कहता है : रे भागीरथो ! तू गर्व मत कर । मेरी वेलि की तुझसे क्या समता ? चूँकि तू हर और हरि दोनों के आश्रित है, जो तैरना नहीं जानते उन्हें डुबा देती है । तू एक देश में हो प्रवाहित होती है। परन्तु मेरी वेलि ठीक इससे विपरीत काम अर्थात् सभी को पार कर देती है :
वे हरि हर भजे अतारू बोड़े ते ग्रव भागीरथी म तूं।'
एक देस बाहणों न आणां सुरसरि सम सरि बेलि सूं ॥ २९०॥ रचना की कथा इस प्रकार है : विदर्भ देश के कुन्दनपुर नामक नगर में राजा भीष्मक राज्य करता था। उसके ५ पूत्र और लक्ष्मी के समान रुक्मिणो नामक कन्या थी। कन्या अति शीघ्र यौवन को प्राप्त हुई। अतः माता-पिता ने श्रीकृष्ण से शादी करने का निश्चय किया । रुक्मिणी अपने पूर्व जन्म की बात याद करके कृष्ण से ही विवाह करना चाहती थी। अतः वह सफलता के लिए महादेव और पार्वती का पूजन करने लगी। जब उसके भाई रुक्म को इस शादी के निश्चय का पता चला तो उसने गाय चरानेवाले कृष्ण से शादी करने का विरोध किया। अपने मातापिता की परवाह न करते हुए उसने शिशुपाल के पास तिलक लेकर पुरोहित को भेज दिया। शिशुपाल अन्य राजाओं के परिकर के साथ कुन्दनपुर की ओर रवाना हुआ। वहाँ उसके स्वागत की तैयारी होने लगी। रुक्मिणी इन सभी बातों से बहुत घबड़ाई। उसने नख को लेखनी और काजल की स्याही से पत्र लिखकर रास्ते में जाते हुए ब्राह्मण पथिक को देकर श्रीकृष्ण के पास भेजा। ब्राह्मण स्वयं चितित था क्योंकि समय इतना कम था कि मथुरा नहीं पहुँचा जा सकता था। वह कुन्दनपुर के बाहर एक वृक्ष के नीचे सो गया। प्रातःकाल जब उसकी आँख खुली तब उसने इस चमत्कार के रहस्य को जाना । कृष्ण के यहाँ जाकर पत्र दिया। श्रीकृष्ण अविलम्ब रथ लेकर चल पड़े। कुन्दनपुर पहुँचकर रुक्मिणी को सूचना भेजी । रुक्मिणी अपनी सखियों के साथ मन्दिर गई। उसके साथ जो सैनिक योद्धा गये थे वे उसके रूप को देखकर मच्छित हो गये । इतने में श्रीकृष्ण ने आकाश मार्ग से अपना रथ पृथ्वी पर उतारा और रुक्मिणी का हाथ पकड़कर रथ में बिठाया तथा लेकर चल पड़े। इसके पूर्व
१. वही, पृ० ११६.