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अपभ्रंश भारती 17-18
महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार प्रायः आज भी नहीं है। सम्भवतः इसी वजह से वह अन्यान्यों के द्वारा किये गए निर्णयों को सिर झुकाकर मानती रही है, लेकिन उसके अन्तर में विरोध-विद्रोह तो पनपता ही रहा है और वह समाज में स्वाभिमानपूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ रही है।
__ स्त्री का यह स्वाभिमान हमारे साहित्यकारों की दृष्टि में भी आया है। सीता के ही चरित्र-वर्णन के उदाहरण से हमारी इस बात की पुष्टि होती है। महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में सीता को कुछ-कुछ आज की नारी के अनुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है किन्तु इससे भी काफी पहले यह कार्य महाकवि स्वयंभू ने किया है।
ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी में अपभ्रंश (ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक व्यवहृत की जानेवाली) भाषा में 'पउमचरिउ' (पद्मचरित) नामक एक राम-कथाश्रित पुराण काव्य की रचना महाकवि स्वयंभू ने की। तुलसीदास से कई शताब्दी पूर्व के कवि स्वयंभू जैन परम्परा के कवि हैं। जैन परम्परा की रामकथा में कई प्रसंगों, पात्रों के चरित्रवर्णन तथा धार्मिक आस्था की दृष्टि से कुछ अन्तर दिखाई पड़ता है। पउमचरिउ की सीता का जन्म धरती से नहीं होता। विदेह के पुत्र भामण्डल और पुत्री सीता के जन्म के साथ कोई अलौकिक कथा नहीं जुड़ी है। राम के वनगमन के समय भी स्वयंभू ने सीता का पक्ष विस्तार से नहीं रखा है। केवल यही बताया है कि उसने अपने पति का अनुगमन किया- नीचा मुख किये हुए, अपने चरणों पर दृष्टि गड़ाए हुए, अपराजिता (कौशल्या) और सुमित्रा की आज्ञा लेकर रावण के लिए वज्र स्वरूप और राम के लिए दुःख की उत्पत्ति की तरह सीता वन को चली। फिर भी इस रचना में सीता का जो चरित्रांकन हुआ है वह अन्यत्र वर्णित सीता-चरित्र से भिन्न है। यहाँ सीता एक कमजोर, अबला नारी के रूप में चित्रित नहीं की गई है अपितु एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में वह हमारे सामने आती है। वह स्वाभिमानी है और उसका यह रूप आज की नारी के ही रूप का प्रतिनिधि-त्व करता हुआ दिखाई देता है। यहाँ सीता 'युगों-युगों' से मानव द्वारा प्रताड़ित होनेवाली समस्त महिला समाज की प्रतिनिधि होकर सारे पुरुष-समाज को उसके द्वारा किए गए अन्याय और अत्याचारों के लिए फटकारती है और यह घोषणा करती है कि नारी पुरुष की दासी नहीं है--
सीय ण भीय सइत्तण-गव्वें, वलेंवि पवोल्लिय मच्छर-गव्वें। 'पुरिसणिहीण होन्ति गुणवन्त वि, तियहें ण पत्तिज्जन्ति मरन्त वि॥15
पउमचरिउ में सीता के व्यक्तित्व का विकास उस स्थल से दिखाई देता है जब वह रावण के द्वारा बलपूर्वक अपहृत करली जाती है। वनवास के समय धैर्यपूर्वक अपनी पीड़ा को सहती हुई सीता अपहृत होने पर भी धैर्य नहीं छोड़ती, दैन्य-प्रदर्शन नहीं करती