Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 54
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 अक्टूबर 2005-2006 43 पादलिप्तसूरि-रचित 'तरंगवईकहा ' (तरंगवतीकथा) श्री वेदप्रकाश गर्ग कथा-साहित्य चिरन्तनकाल से लोकरंजन एवं मनोरंजन का माध्यम रहा है। अतः इसका प्रवाह चिरकाल से सतत प्रवहमान है। विशाल भारतीय कथा - साहित्य में जैन- - कथा - ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन - कथा - साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। जैनसाहित्य में कथा की परम्परा अति प्राचीन है और वह प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तक आई है। जैनागमों में जहाँ छोटी-छोटी अनेक प्रकार की कहानियाँ दृष्टिगत होती हैं, वहाँ जैनागमों के निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका ग्रन्थों में तो अपेक्षाकृत विकसित कथा - साहित्य के दर्शन होते हैं। जैन कथाकारों ने पृथक् कथा-ग्रन्थों का भी बड़ी संख्या में प्रणयन किया है। जैन लेखकों ने जन-साधारण प्रचारात्मक दृष्टि से नाना प्रकार की मनोरंजक कथाओं का निर्माण किया। ये कथा-ग्रन्थ संस्कृत के वासवदत्ता, दशकुमारचरित आदि लौकिक-कथाओं के समान ही हैं। उनमें ऐतिहासिक, अर्धऐतिहासिक, धार्मिक एवं लौकिक आदि कई प्रकार की कथाएँ समाविष्ट हैं। इनमें किसी लोक प्रसिद्ध पात्र को कथा का केन्द्र बनाकर वीर व श्रृंगारादि रसों का आस्वादन कराता हुआ लेखक सबका उपसंहार, वैराग्य एवं शम ( शान्त रस) में कर देता है। इनमें पूर्व भवों की अनेक अद्भुत कथाएँ और अवान्तर कथाओं का ताना-बाना बुना रहता है अर्थात् जैनों द्वारा

Loading...

Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106