Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 91
________________ 80 47. 48. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 55. 56. धम्मु न पढियई होइ न पोथा धम्मु न मढिय पएसि न पिछिइ । मत्था लुचियई ॥ 47 | अपभ्रंश भारती 17-1 राय रोस वे परिहरि वि जो अप्पाणि वसेइ । सो धम्मु वि जिण उत्तियउ जो पंचम गइ लेइ ॥ 48 ॥ आउ गलइ वि णु गलइ णवि आसाहु गलइ । मोहु फुरइ णवि अप्पहिउ इम संसारु भमेइ ॥ 49 ॥ जेहउ मणु विसयहं रमइ तिम जइ अप्पु मुणेइ । जोइ भइ रे जोइयहु लहु णिण्वाणु हे लेइ ॥50॥ जेहउ जज्जरु नरय घरु तेहउ बुज्झि सरीरु । अप्पा भावहिं णिम्मलउ लहु पावहिं भवतीरु ॥51॥ धंधइ पडियउ सयलु जगु णिंवि अप्पाणु मुणंति । तहिं कारणिए जीव फुडु णवि णिण्वाणु लहंति ॥ 52 ॥ मणु इंदियहिं विच्छोहियइ बहु पुच्छियइ न कोइ । यहं पसरु निवारियइ स (ह) जहि उपज्जइ सो (इ) ||53|| पुग्गलु अण्णु वि अण्णु जिउ अण्णु वि सव ववहारु । चयहिं जि पुग्गलु गहहिं जिउ लहु पावहिं गवपारु ॥54॥ जे वि मणहिं जीव फुडु जे गवि जीवउ सुणंति । तो जिणणाहहं उत्तिया णवि संसारु घाउ रयण दीउ दिणयर दहिउ, दुद्धु सुण्णउ रुप्पउ फलिहउ णवि दिट्ठता मुयंति ॥55 ॥ पहाणु । जाणि ॥56 ॥

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