Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 90
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 36. सब (पुद्गलादि पाँच द्रव्यों) को अचेतन जान। एक जीव सचेतन का सार है। जिसको जानकर परम मुनि संसार-पार को शीघ्र प्राप्त करते हैं। जिनेन्द्र स्वामी ऐसा कहते हैं, यदि व्यवहार संग छोड़कर निर्मल आत्मा का अनुभव करता है (तो) शीघ्र संसार-पार प्राप्त होता है। 38. हे जोगी! योगियों ने कहा है- जो जीव-अजीव के भेद को जानता है उसने मोक्ष का साधन जाना है। ऐसा कहा गया है। 39. हे योगी! योगियों द्वारा कहा गया है (कि) केवलज्ञान स्वभावी वह आत्मा है। तू (उसको) जीव जान। यदि मोक्ष-लाभ चाहो, (ऐसा) कहता है। किसकी समाधि ली गई? कौन पूजा गया? सज्जन-दुर्जन कहकर कौन ठगा गया? किसके द्वारा मैत्री-कलह सम्मानित हुई है? जहाँ-जहाँ देखा वहाँ आत्मा है। गुरु के प्रसाद से ही जब तक देह के देव को नहीं पहचानता तब तक कूतीर्थों का परि-भ्रमण करता है, (और) धूर्त आचरण करता है। 42. श्रुत केवली ने ऐसा कहा है (कि) तीर्थों के देव मन्दिर में देव नहीं है। निस्संकोच ऐसा जान (कि) देह-मन्दिर में जिनदेव हैं। जिणदेव देह रूपी देवालय में है। मनुष्य (उसे) मन्दिरों में खोजता है। मुझे हास्यास्पद 'प्रतीत होता है (कि) इस (लोक में) सिद्धि होने पर भीख के लिए फिरता है। 44. हे मूर्ख! देव मन्दिर में नहीं है। न ही (देव) पाषाण लेप (अथवा) चित्र में है। जिनेन्द्र देव देह रूपी मन्दिर में हैं। उसका समचित्त में साक्षात्कार कर। 45. सब कोई ही कहते हैं (कि) तीर्थों रूपी मन्दिर में जिनदेव हैं। जो देह रूपी मन्दिर में मानता है वह कोई ज्ञानी ही होता है। 46. यदि जरा-मरण से भयभीत हैं तो जिण धर्म को (धारण) कर। हे जीव! धर्म रसायण को पी जिससे अजर-अमर होता है।

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