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अपभ्रंश भारती 17-18
26.
वह आत्मा शुद्ध है, सचेतन है, बुद्ध है, जिण है, केवलज्ञान स्वाभावी है। यदि मोक्ष प्राप्त करना चाहते हो (तो) प्रतिदिन (उस आत्मा का) मनन कर।
27.
हे जीव! जब तक निर्मल आत्म-स्वभाव की भावना नहीं करते हैं तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। जहाँ अच्छा लगता है वहाँ तू जा।
जो तीन लोकों का ध्याता जिनेन्द्र है वह आत्मा है, निश्चय से कहा गया है। निश्चय नय से ऐसा ही कहा गया है। इस (बात) को सन्देहरहित जान।
जब तक एक श्रेष्ठ शुद्ध पवित्र भाव का अनुभव नहीं होता (तब तक) अज्ञानी का (किया गया) व्रत, तप, संयम, गुण मोक्ष नहीं कहा गया है।
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यदि व्रत संयम संयुक्त निर्मल आत्मा का अनुभव करता है तो सिद्धि सुख को शीघ्र प्राप्त करता है। ऐसा जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है।
31.
हे जीव! जब तक एक उत्कृष्ट, शुद्ध, स्वप्रयोजन भाव का अनुभव नहीं करता है (तब तक) व्रत, तप, संयम, शील ये सब ही अप्रयोजनीय हैं।
32.
जीव पुण्य में स्वर्ग पाता है, पाप में नरक-निवास (करता है)। (पुण्य और पाप) दोनों को छोड़कर (जो) आत्मा का मनन करता है तो शिववास (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
33.
हे जीव! व्रत, तप, संयम, शील यह सब ही व्यवहार (चारित्र) हैं। मोक्ष का कारण एक (निश्चय चारित्र) जान जो तीनों लोकों का सार है।
34.
जो परभाव को छोड़ता है, जो आत्मा से आत्मा का अनुभव करता है वह मोक्ष नगर राह को प्राप्त करता है। जिणवर यह कहते हैं।
35.
जिनेन्द्र ने जो छह द्रव्य, नौ पदार्थ (और) जो सात तत्त्व कहे हैं वे व्यवहार नय से जिनवर ने कहे हैं। प्रयत्न करके निश्चयपूर्वक उनको जान।