Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 102
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 91 97. सकल विकल्पों का त्याग (के बाद) परम समाधि को पाते हैं। जब कुछ आनन्द सहित अनुभव करते हैं वह कल्याण सुख है। (ऐसा जिनवर) कहते हैं। 98. हे पण्डित! जिनवर द्वारा कहे गये जो पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत को समझ जिससे शीघ्र परम पवित्र होता है। 99. सब जीव ज्ञानमय हैं जो समभाव को समझते हैं वह स्पष्टतः सामायिक है। (उसको) जान! केवली ऐसा कहते हैं। 100. जो राग-द्वेष दोनों को छोड़कर (और) जो समभाव को समझता है, वह स्पष्टतः सामायिक है। (उसको) जान। केवलज्ञानी ऐसा कहते हैं। 101. हिंसा आदि को निश्चय रूप से त्यागकर, जो आत्मा को निश्चय रूप से स्थिर करते हैं, वह दूसरा चारित्र है जो पंचम गति को प्राप्त करता है। (ऐसा तू) समझ! 102. जो मिथ्यादि (तत्त्वों) को निश्चय रूप से छोड़ते है, सम्यग्दर्शन-शुद्धि (प्राप्त करते हैं)। वह परिहार विशुद्धि (संयम) जानो (तथा) शीघ्र शिवसिद्धि को प्राप्त करो। 103. सूक्ष्म लोभ का जो विनाश है जो सूक्ष्म का ही परिणाम है। वह सूक्ष्म ही चारित्र है, वह शाश्वत सुख को धाम है। (ऐसा) जानों। 104. (आत्मा) अरहंत भी है, वह स्पष्टतः सिद्ध है, वह आचार्य है। (उसको) समझो! वह उपाध्याय हैं, वह मुणि भी है। आत्मा को जानकर (उसको) निश्चित करता है। 105. वह शिव है, शंकर है। वह विष्णु है, वह रुद्र भी है। वह बुद्ध है। वह जिण है, ईश्वर है। वह ब्रह्मा है। वह अनन्त है, वह सिद्धि है। 106. इन्हीं लक्षणों में जो देखा गया है (वह) पवित्र निष्फल देव है (तथा) देह के मध्य में जो बसता है उसका भेद नहीं किया जाता है।

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