Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 100
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 87. सम्यग्दृष्टि से जीवों के लिए दुर्गति गमन नहीं होता है। यदि (दुर्गति में) जाता भी है तो दोष नहीं है। (यह) पूर्वकृत (कर्मों का) नाश करता है। 88. यदि सर्व व्यवहार को छोड़कर आत्म-स्वरूप को लिए रमन करता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है (और) शीघ्र संसार-पार (मोक्ष) को प्राप्त करता है। 89. जो सम्यग्दर्शन का प्रधान है (वह) बुद्धिमान है। वह तीन लोक का मुखिया है। (वह) शाश्वत-सुख का निधान है। (वह) केवलज्ञान को शीघ्र ही प्राप्त होता है। 90. जहाँ अजर-अमर गुणसमूह का निलय आत्मा की गति स्थिर (हो जाती है) वह कर्मों से परिणत नहीं होती (वरन्) पूर्व संचित कर्मों का नाश करती है। - 91. जैसे कमलनी का पत्ता कभी भी पानी से लिप्त नहीं होता है तैसे ही जहाँ (जीव) आत्म स्वभाव में रत होता है, कर्मों से लिप्त नहीं होता है। 92. जो पण्डित समतासुख में लीन (होकर) बार-बार आत्मा को मानता है वह ही स्पष्टतः कर्मों का नाश करके शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है। 93. हे जीव! (जीव के द्वारा) इस पुरुषाकार प्रमाण पवित्र, गुणसमूह निलय, निर्मल प्रकाशमान आत्मा का ध्यान किया जाता है। 94. जो अपवित्र शरीर को भी भिन्न (तथा) शाश्वत सुख (प्राप्ति) के लिए लीन, आत्मा को ही शुद्ध मानता है, वह सकल शास्त्रों को जानता है। जो आत्मा को (व) पर को नहीं जानता है। परभाव को नहीं छोड़ता है। वह सर्व शास्त्रों का ज्ञाता है और शाश्वत सुख की (प्राप्ति में) लीन रहता है। 96. जो आत्मा को (तथा) पर को नहीं समझता हैं (और) परभाव को नहीं छोड़त हैं, वह सकल शास्त्रों को जानता है (तो भी) कल्याण सुख को निश्चय ही नहीं प्राप्त करता हैं।

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