Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 98
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 87 78. चार कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) (चार) संज्ञा (आहार-भय-मैथुन-परिग्रह) रहित, चार गुण (दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य) सहित (वस्तु को) कहा गया है (कि) वह आत्मा है। हे जीव! तू (आत्मा को) जान, जिससे (तू) परम पवित्र हो जा। 79. दो (प्रकार के) पाँचों से रहित (पाँच इन्द्रिय सुख और पाँच अव्रत) (और) दो (प्रकार के) पाँचों से संयुक्त (पाँच इन्द्रिय संयम और पाँच महाव्रत) (आत्मा का) मनन कर। दो पाँच अर्थात् दस व्रत-गुण सहित (पदार्थ के विषय में) निश्चय रूप से कहा गया है (कि) वह आत्मा है। 80. आत्मा को सम्यग्दर्शन (और) सम्यग्ज्ञान मानो। आत्मा को सम्यक्चारित्र समझो। आत्मा संयम, शील, तप है। आत्मा प्रत्याख्यान (त्याग) है। 81. जो आत्मा (और) पर को पूर्णतः जानता है, जो निर्धान्त पर को त्याग देता है। वह सम्यग्ज्ञान है। तू समझ। केवलज्ञानी द्वारा कहा गया है। 82. हे योगी! रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) संयुक्त जीव उत्तम (और) पवित्र तीर्थ है। मोक्ष का कारण है। अन्य न (कोइ) तंत्र है, न मंत्र है। 83. हे पण्डित! निर्धान्त यह आत्मा है। जिसके द्वारा श्रद्धान किया जाता है (वह) दर्शन है। बार-बार आत्मा का ध्यान करना वह चारित्र है। विशेष रूप से कहा गया है। 84. जहाँ आत्मा है वहाँ (उसके) सकल गुण हैं। केवली ऐसा कहते हैं। उन्हीं कारण से जोगीगण निश्चयपूर्वक शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं। 85. तू अकेला (निर्ग्रन्थ) (होकर), इन्द्रिय रहित अर्थात् विरक्त (होकर) मन, वचन, काय तीनों से शुद्ध होकर आत्मा (से) आत्मा को समझ (और) शीघ्र ही मोक्ष-सिद्धि को प्राप्त कर। 86. यदि धर्मवद्ध-धर्ममुक्त को मानो तो निस्सन्देह (कर्म से) बन्धो। यदि (उसके) सहज स्वरूप में रमों तो कल्याण एवं सन्तुष्टि को प्राप्त करो।

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