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अपभ्रंश भारती 17-18
47.
(शास्त्र) अध्ययन में धर्म नहीं होता है। (धर्म) न पोथा (व) पीछी में है। मठ-प्रदेश में धर्म नहीं है (और) न केशलोचन में है।
48.
राग-द्वेष दोनों को छोड़कर जो आत्मा में बसता है, जिण द्वारा कहा गया है वह धर्म ही है जो पंचम गति मोक्ष ग्रहण करता है।
49.
आयु गलती है, मन नहीं गलता है, (किन्तु) न ही आसा गलती है। मोह (फैलता) प्रकट होता है (किन्तु) आत्म-हित नहीं (होता है) इस प्रकार (जीव) संसर में भरमता है।
50.
योगी कहता है रे योगीजनों! जिस प्रकार मन विषयों के (संग) रमता है, उसी प्रकार यदि (मन) आत्मा को समझता है (तो) निश्चय ही शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है।
51.
जैसे नरक का घर (दुःखों) से जर्जर है तैसे शरीर को समझ। निर्मल आत्मा का ध्यान कर (जिससे) शीघ्र संसार-तट को प्राप्त कर।
52.
सकल संसार धन्धे में (लोक व्यवहार में) पड़ा हुआ है। आत्मा को नहीं समझते हैं। इसी कारण से जीव निर्वाण को नहीं पाते हैं। यह स्पष्ट है।
मन इन्द्रियों से ही विरक्त हुआ है (तो) कोई बुद्धिमान पूछा ही नहीं जाता। राग का फैलाव ही रोका जावे (तो) वह (आत्मज्ञान) सहज ही में पैदा होता है।
पुद्गल अन्य है, जीव भी अलग है, सब व्यवहार भी न्यारे हैं। पुद्गल को ही छोड़, जीव को ग्रहण कर। शीघ्र संसार तट (मोक्ष) को प्राप्त कर।
55.
जो स्पष्ट रूप से जीव को नहीं समझते हैं, जो जीव का अनुभव भी नहीं करते हैं तो (वे) संसार को भी नहीं छोड़ते हैं। जिननाथ का कथन है।
56.
रत्न, दीप, सूर्य, दही-दूध, घी, पाषाण, सुवर्ण, चाँदी, स्फटिक मणि- नौ दृष्टान्तों से (जीव) को जान।