Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 94
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 83 57. जैसे आकाश शुद्ध है (अप्रभावित है) (वैसे ही) जो देहादि को निश्चय रूप से (आत्मा से) पर मानता है, वह शीघ्र परब्रह्म स्वरूप को पाता है (तथा) केवलज्ञान का प्रकाश करता है। 58. हे जीव! जैसे आकाश शुद्ध है वैसे आत्मा को कहा गया है। हे जीव! आकाश को भी (जड़) अचेतन जान (और) आत्मा चेतनावत है। 59. जो नासाग्र पर अन्तर का अदेह अर्थात् आत्मा को देखते हैं, फिर (उनका) जन्मना सम्भव नहीं है, (और) (वे) माता का दूध नहीं पीते हैं। 60. अदेह (आत्मा) को ही सदेह समझ। इस शरीर को अचेतन जान। मिथ्या मोह को पूर्णतः छोड़। मुक्ति रूपी नितम्बनी को समझ। 61. आत्मा (से) आत्मा को समझने वालों के लिए कौनसा फल होता है (जो नहीं मिलता है) (वह) केवलज्ञान से ही परिणवत होता है (और) शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। 62. जो मुणि परभावों को छोड़कर, आत्मा (से) आत्मा को समझते हैं। केवलज्ञान स्वरूप को पाकर वे संसार को छोड़ते हैं। जो परभावों का त्याग करते हैं, लोकालोक को प्रकाशित करने वाले स्वयं को आत्मा समझते हैं, वे भगवान ज्ञानी महात्मा धन्य हैं। 64. गृहस्थी भी मुनि - जो कोई भी आत्मा में वास करता है वह शीघ्र सिद्धि सुख को पाता है। जिनवर ऐसा कहते हैं। 65. विरला बुद्धिमान तत्त्व को जानते हैं। विरला (श्रोता) तत्त्व को सुनते हैं। विरला जीव तत्त्व को ध्याते हैं। विरला तत्त्व को धारण करते हैं। 66. यहाँ परिजन अपने नहीं होते हैं। यहाँ सुख-दुःख से बन्धे हुए हैं। यह चिन्ता करनेवाले कैसे संसार का शीघ्र अन्त करते हैं।

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