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अपभ्रंश भारती 17-18
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16.
आत्मदर्शन में एकमात्र (आत्मा) श्रेष्ठ है। अन्य कुछ भी नहीं है। (ऐसा) जान! हे जोगी! (अन्य कुछ भी) नहीं है। निश्चयपूर्वक इसको मोक्ष का हेतु समझ!
17.
व्यवहार न्याय की दृष्टि में भगिणा (व) गुणस्थानक कहा गया है। निश्चय न्याय में आत्मा को जान जिससे परमेष्ठि के पद को प्राप्त कर।
18.
(जो) गृहस्थ के व्यापार में लगे हुए हैं। हेय (और) उपादेय को समझते हैं। प्रतिदिन जिणदिव्यात्मा को ध्याते हैं, (वे) शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
___19.
जिण देव का स्मरण करो। जिण भगवान का चिन्तन करो। मन सहित से जिनेन्द्र का ध्यान करो। (जिनेन्द्र का ध्यान) जो करता है (वह) परमपद को एक क्षण में प्राप्त करता है।
- 20.
हे जोगी! शुद्ध आत्मा और जिनवर का कभी भी भेद मत जान। इसको निश्चय न्याय से मोक्ष को हेतु जान।
21.
जो जिनेन्द्र है वह आत्मा है (यह) जान। यह सिद्धान्त (आगम) का सार है। इसे जानकर हे योगी! मायाचार को छोड़।
हे जोगी! जो परमात्मा है वह मैं ही हूँ। जो मैं हूँ वह परमात्मा है। इसको जानकर अन्य विकल्प मत कर।
23.
(जो) लोकाकाश प्रमाण शुद्ध प्रदेशों से पूरित है, वह आत्मा है। प्रतिदिन (उसको) जान (और) शीघ्र निर्वाण को प्राप्त कर।
निश्चय नय से शुद्धात्मा लोकप्रमाण है। व्यवहार नय (की दृष्टि) से सशरीर (प्रमाण) है। इसको आत्मा का स्वभाव जानकर शीघ्र संसार तट को प्राप्त कर।
25.
अनादि काल (से) अनन्त (काल तक) (जीव) चौरासी लाख योनियों (में) भटक रहा है। परन्तु सम्यक्त्व न प्राप्त किया गया। हे जीव! निस्संकोच इस (बात) को जान।