Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 ___73 6. आत्मा के तीन प्रकार समझो- परु (पूर्ण परमात्मा), अतंरु (अन्तरात्मा) और वहिरप्पु (वहिरात्मा) निस्संकोच (होकर) वहिरात्मा में रुचि छोड़ (और) अन्तरात्मा सहित परमात्मा का चिन्तन कर। 7. मिथ्यादर्शन में मोहित (जो प्राणी) परम आत्मा को नहीं समझता है, जिनेन्द्र ने वहि-रात्मा कहा है वह बार-बार संसार में भरभता है। जो आत्मा (और) पर को सर्वतोभाव से जानता है। जो परभाव को त्यागता है, आत्मा को समझता है। जो संसार को छोड़ता है। वह पण्डित है। 9. निर्मल है, अखण्ड है, शुद्ध है, जिण है, विष्णु है, बुद्ध है, शिव है, सन्तुष्ट है। जिण द्वारा वह परमात्मा कहा गया है। निस्सन्देह ऐसा (तुम) जानो। _10. जिन्होंने देहादि को निश्चय रूप से पर (श्रेष्ठ) कहा है, जो आत्मा को नहीं समझते हैं। जिण द्वारा वहिरात्मा कहा गया है, वह बार-बार संसार में भरमता है। 11. जिन्होंने देहादि को निश्चय ही पर (श्रेष्ठ) कहा है वे आत्मा के नहीं होते हैं। इसे जानकर हे जीव तू अपने को आत्मा समझता है। जो आत्मा को आत्मा मानते हैं तो निर्वाण को पाते हैं। यदि पर को परमात्मा मानो तो तुम संसार में भरमो। 13. - इच्छारहित तप कर। आत्मा को आत्मा समझ। नश्वर संसार को त्याग तो शीघ्र परम गति को प्राप्त कर। 14. (भाव के) परिणमन से ही (कर्म का) बन्ध कहा गया है। उसी तरह से मोक्ष को भी जान। हे जीव! ऐसा समझकर तू उन भावों से पहचान कर। 15. अथवा बार-बार आत्मा को न जानो, बार-बार सर्व (पुण्य कार्य) भी करो तो भी सिद्धि-सुख नहीं प्राप्त हो, संसार में बार-बार भटकते रहो।

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106