Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 82
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 अक्टूबर 2005-2006 71 योगसार दोधक संपा.-अनु.- डॉ. रामसिंह रावत 1. निर्मल ध्यान में स्थिर हुए, कर्म रूपी कलंक को जलाकर जिनके द्वारा उत्कृष्ट आत्मा को पा लिया गया है उन सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके...... (जिन्होंने) चार घातीय कर्मों को ही क्षय किया है (तथा) अनन्त चतुष्टय को प्रमाण से जाना है (उन) जिनेन्द्रों के पदों को नमन करके (मैं) सत्कृत काव्य कहता हूँ। 3. संसार से (भटकने से) भयभीत होने वालों के लिए, मोक्ष की लालसा वालों के लिए, आत्मा के सम्यक सम्बोधन के लिए, एकाग्र चित्तों के लिए दोहों की (रचना करता हूँ)। काल अनादि है, जीव अनादि है। भवसागर भी अनन्त है। मिथ्यादर्शन में मोहित हुए (व्यक्तियों को) सुख नहीं (वरन्) दुःख ही प्राप्त हुआ है। 5. यदि चतुर्गति गमण से भयभीत हो तो पर भाव को छोड़। निर्मल आत्मा का चिन्तन कर जिससे (तुझे) मंगलमय सुख प्राप्त हो।

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