Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 64
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 की सुन्दर ठुड्डी-से । दाँत कर्नाटक देश की स्त्रियों के सुन्दर दाँतों से, जीभ कारोहव देश की सुन्दर स्त्रियों की जीभ - से। नाक और नेत्र तुङ्ग देशीय स्त्री की नासिका और नेत्रों से। भौहें उज्जैन की स्त्री की भौहों से । भाल चित्तौड़ की महिलाओं के भाल-से । कपोल काशी देश की आदरणीय स्त्रियों के कपोलों की तरह । कान कन्नौज की स्त्रियों के सुन्दर कानोंसे। केश, काओली महिलाओं के केश से । विनय दक्षिण देश की महिलाओं के विनय से निर्मित हुई थी। कहने का मतलब यह है कि सीता का रूप-सौन्दर्य, उनका अंग-प्रत्यंग अपने निर्दिष्ट उपमाओं की तरह से था । अधिक कहने से क्या फायदा, सीता का रूपसौन्दर्य ऐसा था कि मानो कुशल विधाता ने एक-एक वस्तु लेकर उसे गढ़ा था । 53 लोक में सौन्दर्यवर्णन का जो रूप मिलता है वह अल्प के मानक से नहीं, अतः कवि जिसे लोक को साधन और साध्य दोनों रूपों में देखना है उसे भी सौन्दर्य की सीमा को तोड़ देने में ही सुख मिलता है। 'काव्य में प्रकृति बहुआयामी ढंग से किस तरह से आती है कवि उसे (किस तरह से जीवन और स्वभाव से अभिन्न हो सकती है इसे ) विभिन्न स्तरों पर अपनी प्रतिभा के जरिए किस तरह से अभिव्यक्ति दे सकता है यह पउमचरिउ के माध्यम से देखा जा सकता है। धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की लोकव्यापी मान्यताओं से (चाहे उसे प्रगति-विरोधी ही क्यों नहीं कहा जाए) किसी भी तरह साहित्य को जुड़ना होता है, क्योंकि यह सामाजिकता का अनिवार्य हिस्सा हो जाता है। पउमचरिउ में समर्थवान राम जब यह विचार करते हैं तब पाठक को यह लग सकता है कि यह कवि लोक और परम्परा के प्रगतिशील तत्त्वों पर विचार तो करता ही है, वह कहीं से रूढ़ियों को जान-बूझकर प्रश्रय नहीं देता । राम का वक्तव्य देखें- जो णरवइ अइ- सम्माण करु । सो पत्तिय अत्थ- समत्थ- हरु ॥ जो होइ उवायर्णे वच्छलउ । सो पत्तिय विसहरु केवलउ ॥ जो मित्तु अकारणें एइ घरु । सो पत्तिय दुडु कलत्त - हरु ॥ जो पन्थिउ अलिय-सणेहियउ । सो पत्तिय चोरु अणेहियउ ।। जो रु अत्थकऍ लल्लि करु । सो सत्तु णिरुत्तउ जीव हरु । जा कामिणि कवड - चाडु कुणइ । सा पत्तिय सिर-कमल वि लुणइ ॥ जा कुलवहु सवर्हेहिं ववहरइ । सा पत्तिय विरुय - सयइँ करइ ॥ जा कण्ण होवि पर णरु वरइ । सा किं वढन्ती परिहरइ ॥

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