Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती 17-18
लहुडउ पुत्तु जु गुणहरू वहुलखन सहिउ । दिढसम्मत्त सजुत्तउ संकाइय रहिओ ॥ 7 ॥ तहि अवसर संपत्तउ निवइ निविदु जहो । पहु वणवालु वि दिट्ठउ अ थिउ तेण ॥8॥ सहसकूड चइत्यालइ आयउ मुणिषवरू । तेण वि पहु आणंदे वंछिउ लाधु वरू ॥9॥
पंचसवद तहि वाजे वंदहु मुणि चलणा । चालिय नरवइ पुछिवि हरिसिय सयल जणा ॥10 ॥ सेठिहि न्हवणु सजोयउ माथइ कलुसु किउ । ताह सुह तह जंपिउ वयणु सुहावणउ ॥11॥
असारउ कयलीगब्भ जिह । इहु संसारू किंपि न दीसइ सारउ विजुलफुरणु जिहा ॥ 12 ॥
मणि पणविवि वउ मागहु दूतरू जिह तरहुँ । धम्मकज्जि सुंदरियहो हरिसइ चित्त महु ॥13॥ जिण पूजिवि मुणि वंदिवि आषिउ मुणिवरहं । सामिय सुवउ उवएसहो जें रक्खउ करहं ॥ 14 ॥
तं णिसुणिवि जंपड़ निसुणहु पुत्ति तुम्हि । जा कीए फलु पावहु सुथिए कहिउ अम्हि ॥ 15 ॥ पासणाह वउ कीजड़ खीरहंधार दह । रविदिणु तुम्हि उववासहु वंभचरिउ वि लई ॥16॥ अह अंविलु इक ठाण उं एयभत्तु णिविडु | किज्जइ मणु अणुराइय मेलिवि चित्तु जडु ॥ 17 ॥
वसुविह पूज रएप्पिणु णवफल पुणु ठवहु । अंवविजउरा भावें चुण्ण्हं दइ न वहु ॥18॥ वरिसिवरिसि नवबारहं नववरिसइ करहो । आसादहं आरंभि विदुत्तरू जिमत्तरहो ।।19 ।।

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