Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती 17-18
किं कारणु पहु अक्खहि कहिउ मुणिंद भओ । असुह कम्मु तुम्ह आयउ जं वउ णिंदियओ ॥33॥
मण-वय-काय तिसुद्धिए रविवउओ धरहु । पुव्व पाउ तुम्ह आयउ जं वउ णिंदियओ ॥34॥ मुणिहि वयणु आयरिओ पासणाहु थुणहि । एकचित्ति वउ कीयउ पुव्व जु छंडियओ ॥35॥
संपय तहो घर लीणी दाणु पूज करहि । एम कथा को वइयरू वाहुडि गय उ तहिं ॥36॥ सव्वह लहउ जु गुणहरूक्ख धाविया पियउ । जीवणु भावज पासहि हसें हसि मागियओ ॥ 37 ॥
रूसिवि ताइ सुवुत्तउ वइसिवि भोज कउ । घासु लइवि जइ आवहि भोयणु देउ तउ ॥38॥ भावज वयणुन सकिय गुसहि वि कुमारू तहि । दातु इवि तहि चलियउ वणु आरण्णु जहिं ॥39 ॥
विवरयाणि खडु वाधिउ छाडिवि दातु भूमि । घासु लेइ घरू आयउ कुमरू विसन्नमणु ॥40॥ भायर घरि निब्भंच्छिउ रे खलवुद्ध मणा । वेग दातु किं न आणहि तहि ठाम रहि कि ना ॥ 41 ॥ वासुगि कुमरू वषाणउ आयो तं षणहं । वेढि दातु च पासहं रहियउ असण मणा ॥ 42 ॥
जव भावज निरभंछिउ वालकु गयउ तहि । जीवदया प्रतिपालकु विसहरू ठियउ जहिं ॥ 43 ॥ अहो फणिंद मणिमंडण विनती करउ तुहि । वेगि दातु कइ अप्पहि अहवा डसहि मुहि ॥44 ॥
अम्ह दोसु जणु भावइ जिणकुलु संपावियओ । तुम्ह सरणु हउं आयउ अम्हहं हरहि भओ ॥45 ॥

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