Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
View full book text
________________
66
अपभ्रंश भारती 17-18
धरणेदे अम्ह अप्पिय पर तउ पूरियओ। सुणिवि राउ मणि हरिसिउ वालउ पुंनु अहिउ॥59॥ अछइ जहि लडहंगी जा सुकुमार धुव। कदलीगभ मणोहर दिण्णिय तुज्झु सुव ।।60।।
सुहदिण लगनु पतिठउ मंडपु तिह रयओ। रयणथंभ की चौरी वहुवरू तहि ठयओ॥61॥ वेईय मंगलकलसहि मंगलगीय सरू । कामिणि रहसी नाचहि वज्जहि तूरभरू ।।62॥
वीतउ व्याहु कु मारिहिं जणु आणं दियओ। दाइज्जउ वहु दीनउ वहु वरू संसियउ।।63 ।। जं जं भुवणहं दुल्लहु तं पुण्णे सलहु । पुण्णु करहो अहो लोयहो सग्गु मोक्खु लहहो।।64।।
रूवरिद्धि सुह संपइ एयइ को गहणु। जासु पसाएं लब्भई लोय सिहरि भवणु॥65।। केतिय दिवस विलंविवि पुणु पहु विण्णविउ । तुम्ह पुणु अम्हहं सामिय वहु उवायरू किओ।।66।।
तुम्ह पसाएं लाधउ नारी रयणु तिम। अवरू मया करिस मदहु कुटवहं मिलहि जिम।।67॥ समद त पहु विलखा नउ दुमणु चित्तु कहइ। जड़ धिय खरिय पियारी पिय हरि नउ हरइ ।।68 ।।
इम चिंतेपिणु पहुणा समदि उ सयल जणु । चाउरंगुवलु चलियउ सलहहि वंदिगणु।।69 ।। धूलिहि सूर ण सुज्झइ वाणरसि गमणि।।70॥
पंचमसवद तहिं वाजहिं सिगिरिय छत्तु वहु । उपरापर जण णिवडहि संकइ चलण पहु॥71।। वाणारसिहि पहू त उववाणि आइरिया। णं सग्गहु सुर आइय पुण्णहि ते वलिया।।72।।

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106