Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती 17-18
करहो ।
अहवा
वारहमासहं एकुवरि भावें जिणवरू पुज्जिवि णियमणि कह धरहो ॥ 20 ॥
गिहि आइवि वउ णिदिउ भइय विसण्ण मणी ।
फलहं वउ आ खिउ किं कीरइ सवणी ॥ 21 ॥ सयल लछि तिनु नाठी रोय सहिय रहहि । उरू वि पूरि न सकहि कासु वि णउं कहहि ॥ 22 ॥
तं पुरू चइवि विएसहि करिवि उवाउ मणे । मायवापु घरि छंडिवि गइय ति अवधषनि ॥ 23 ॥ तहि जिणदत्तु वणीसरू गुणगण मयरहरो । धणपरियणहं संजुत्तउ भूवें कुसुमसरो ॥24 ॥
सइ वसुमइ पियमंडिउ अमियवयणु चवई । कामभोय सुह भुंजहि जिणवरू णित णवइ ॥ 25 ॥ यर मज्झि सो देषिवि दुक्खदरिद्ध जणु । कर जोडिवि सिरू नायवि विनय उ साहु सिहु ॥26॥
तुम्ह पसाय सामिय पेसणु अम्हि करहि । करि किरसणु ववहारू वनिज पेट्टर भरहि ॥27॥ तुहु जि साहु पुन्नाहिउ अम्हहि मणि धरहि । लाखदाम कौ षांडउ को सुवि अणुसरइ ॥28॥ जइ न रूषरउ सायण उ गरूवहं मणु हरई ॥ 29 ॥
महुर वयणु तुम्ह जंपिउ वयण सुहावण उं । वेगि मज्झु घरू आवहु कामु करहु घण उं ॥ 30 ॥ यणि दिवस ते धावहि सुक्खु न लहहि तहि । माय वापु घर ज्झरवहि भयउ वि जोउ जहि ॥ 31 ।।
अवहणाणि तिन्हु पूछिउ धरिणिह धरिवि सिरू । पूतहं भयउ विछोहउ दुक्खदलिद्ध
भरू ॥32॥

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