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अपभ्रंश भारती 17-18 जङ्घोरु-करेहिँ समंसलिय। चल लोयण गमणुत्तावलिय।। कुम्मुण्णय-पय विसमङ्गुलिय। धुय-कविल-के सि खरि पङ्गुलिय।। कडि-चिहुर-णाहि मुह-मासुरिय। सा रक्खसि वहु-भय-भासुरिय ।।36.15।।
अर्थात् जिस स्त्री की जाँघ और पिण्डली स्थूल हों, जिसके नेत्र चञ्चल हों, जो चलने में उतावली करती है, जिसके पैर कछुए के समान हों, अंगुलियाँ विषम और बाल कपिल वर्ण के तथा चंचल हों। जिसके सारे शरीर में रोमराजि उठी हुई हो वह पुत्र और पति का नाश करानेवाली होती है। तीतर-सी आँखवाली स्त्री निश्चय ही दरिद्र होती है। कौए के समान दृष्टि और स्वरवाली स्त्री दुसाध्य एवं दुःखिता होगी।
कवि स्वयंभू की दृष्टि अपने काल और लोक के प्रति यथार्थपरक होते हुए भी कल्पना का आश्रय लेती रही है, उसने परम्परा को भी आत्मसात किया है। अभ्यास के होते हुए उनके पास नैसर्गिक प्रतिभा की कमी नहीं रही। शायद यही कारण है कि महापण्डित राहुल की दृष्टि में भारत के एक दर्जन कवियों में से एक वे भी थे।
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पउमचरिउ - महाकवि स्वयंभू, संपा.-अनु.- डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली हिन्दी काव्यधारा - राहुल साकृत्यायन
हिन्दी भवन विश्वभारती
शान्तिनिकेतन पश्चिम बंगाल- 731235