Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 37. 38. 39. 40. 41. 42. जं चिंतिज्जइ विप्पिउ परहो तं एइ खणद्धि णियघरहो। ज.च. (2.14.8) - जो कुछ दूसरों के लिए अप्रिय सोचा जाता है वही क्षणार्ध में अपने घर आ पहुँचता है। सोएँ गिहि केवलु दुक्खु ठाइ। जसहरचरिउ (3.3.2) - शोक से घर में केवल दुःख ही व्याप्त रहता है। उज्जम विणु होइ ण का वि सिद्धि। धण्ण कु.च. (2.13.10) - उद्यम के बिना कोई भी सिद्धि नहीं होती। उज्जम विणु दुह-दालिद्द--बिद्धि। धण्ण कु.च. (2.13.10) - उद्यम के बिना दुःख एवं दारिद्र की ही वृद्धि होती है। विणु विणएण कवणु पावइ सिउ। वडमाण. च. (2.6.5) - विनय गुण के बिना कौन व्यक्ति शिव (कल्याण) पा सकता है। मह मयवंतु अकज्जें ण जंपइ। वड्डमाण च. (4.10.4) - बुद्धिमान व्यक्ति बिना प्रयोजन के नहीं बोलते। मित्तहो फलु हियमिय उवएसणु। सुदंसणचरिउ (1.10.2) - मित्रता का फल हित-मित उपदेश है। विहवहो फलु दुत्थिय आसासणु। सुदंसणचरिउ (1.10.3) - वैभव का फल दीन-दुखियों को आश्वासन देना है। सुयणहो फलु परगुणसुपसंसणु। सुदंसणचरिउ (1.10.5) - सज्जनता का फल दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना है। विणएँ लच्छि कित्ति पावइ। सुदंसणचरिउ (6.18.7) - विनय से ही लक्ष्मी और कीर्ति प्राप्त होती है। सरणें पइट्ठ जीव रक्खिज्जइ। सुदंसणचरिउ (6.18.11) - शरण में आये हुए जीव की रक्षा करनी चाहिये। 43. 44. 45. 46 47. अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर- 302 004

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106