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अपभ्रंश भारती 17-18
___39 12. णिय-जम्मभूमि जणणिएँ सहिय सग्गे वि होइ अइ-दुल्लहिय।
प.च. (5.78.17.4) - अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्यारी होती है। 13. कोहु मूलु सव्वहुँ वि अणत्थहुँ। पउमचरिउ (5.89.10.1)
- क्रोध ही सब अनर्थों का मूल है। 14. कज्जु धुरंधरु धुरहिं णिहिप्पइ। णायकुमारचरिउ (3.3.5)
- जो कोई कार्य में धुरन्धर पाया जाये उसी को कार्य-भार सौंपना चाहिये। 15. धम्मु अहिंसा परमुजए तित्थइँ रिसिठाणाइँ पवित्तइँ। णायकुमारचरिउ (9.12)
- इस जगत में अहिंसा ही धर्म है और पवित्र तीर्थ वे ही है जहाँ मुनीन्द्रों
का वास रहा है। 16. विज्जाविहिणु मा करहि मित्तु। (करकण्डचरिउ 2.13.3)
- विद्या-विहीन को कभी अपना मित्र मत बनाना। 17. आढत्तइ कम्मत्तइ पढमुवाउ चिंतेवउ।
णरसत्ति वि धणजुत्ति वि देसु कालु जाणेवउ। महापुराण (5.8 घत्ता) - कार्य को प्रारम्भ करने पर पहले कार्य की चिन्ता करनी चाहिये। मनुष्य,
शक्ति, धन, युक्ति तथा देशकाल को जानना चाहिये। 18. छिद्दण्णेसिहिं को रंजिज्जइ। महापुराण (14.12.7)
- छिद्रों का अन्वेषण करनेवालों से कौन प्रसन्न हो सकता है। 19. ते बुह जे बुहहं ण मच्छरिय। महापुराण (19.3.7)
- त वही है जो पण्डितों से ईर्ष्या नहीं करते। 20. ते मित्त ण जे विहुरंतरिय। महापुराण (19.3.7)
- मित्र वही है जो संकट में दूर नहीं होते। 21. धम्मु अहिंसउ सद्दहहि। महापुराण (26.12 घत्ता)
- अहिंसा धर्म की श्रद्धा करो। 22. धम्मु खमाइ होइ गरुयारउ। महापुराण (28.7.1)
- धर्म क्षमा से गौरवशाली होता है। 23. रोसें णउ विसिट्ठ पहरेवउ। महापुराण (28.8.13)
- क्रोध में आकर विशिष्ट का परिहार नहीं करना चाहिये।