Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 जेत्थ पट्टणसरिस वरगाम जेत्थ पट्टणसरिस-वरगाम गामार वि नायरिय नायरा वि बहुविविहभोइय। भोइया वि धम्माणुगय धम्मिणो वि जिणसमयजोइय॥ महिसीबद्धसणेह जहिँ कमलायर-गयसाल। परिरक्खियगोहण रमहिँ गोवाल व गोवाल॥॥ जत्थ केयारवरसालिफलबंधयं नियडतरुगलियमहुकुसुमसमगंधयं। . जत्थ सरवर न कयावि ओहदृइ मंदमयरंदवियसंतकंदोई। जत्थ भमरोलि कीरेहिँ समहिट्ठिया नीलमरगयपवालेहिँ णं कंठिया। छत्तछोक्काररवपामरीसल्लिया पहिय-कणइल्ल-मिग पउ वि नउ चल्लिया। - महाकवि वीर जंबूसामिचरिउ, 5.9 - (विंध्यप्रदेश) जहाँ के ग्राम नगरों जैसे थे और ग्रामीण नागरिकों जैसे तथा नागरिक बहुविध भोगों से युक्त थे। भोगों से युक्त होकर भी वे धर्मानुगत (धर्मपालक) थे और धर्मानुगत होकर जिनधर्म से योजित (युक्त) थे। जहाँ के गोपाल (ग्वाले) गोपालों (भूमि अथवा प्रजापालक राजा) के समान रमण करते थे; राजा लोग महिषी (महादेवी) के प्रति स्नेहासक्त होते हैं, लक्ष्मी के निधान होते हैं तथा हस्तिशालाओं के स्वामी होते हैं और गोधन (पशुधन, पृथ्वीधन व जनधन) का रक्षण करते हुए आनन्द मनाते हैं, उसी प्रकार वहाँ के ग्वाले महिषियों से स्नेह करते थे और कमल सरोवरों रूपी गजशाला (गवयशाला-गोशाला) से युक्त थे (क्योंकि उनकी भैंसे तालाबों में ही प्रसन्न रहती हैं) तथा अपने गोधन (पशुधन) की रक्षा करते हुए रमण करते थे। जहाँ श्रेष्ठ-शालि (धान) के खेत फूले हुए थे, जो पास के वृक्षों से गिरे हुए मधु (मधूक-महुआ) के फूलों की गन्ध से सुगन्धित थे। जहाँ के सरोवर कभी सूखते नहीं थे और जो मन्द मकरन्द से युक्त विकसित होते हुए नीलकमल समूहों से पूर्ण थे। जहाँ शुकों से समाधिष्ठित भ्रमरपंक्ति मरकत व प्रवाल (मूंगा) मणियों से जड़ी हुई नीलमणि के समान शोभायमान होती थी। जहाँ खेतों में कृषक-वधुओं के छोक्कार रव (पक्षियों को डराने के लिए की जानेवाली ध्वनि) से बिंधकर, पथिक, शुक और मृग एक पग भी आगे नहीं बढ़ते थे। - अनु.- डॉ. विमलप्रकाश जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106