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अपभ्रंश भारती 17-18
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'चन्दनबाला' के नेतृत्व में साध्वी संघ में सुव्रता आर्या थी, जो अति रूपवती थी। उसे अपने रूप-सौन्दर्य का गर्व था। वह श्राविका को अपनी जीवन-कथा कहती है- 'पूर्व भव में वह एक धनी वणिक् की सुन्दरी पुत्री थी। एक दिन वह उपवन में क्रीड़ा करने गई, तो सरोवर में हंस-मिथुन को देखकर उसे अपने पूर्व-जन्म का स्मरण हो आया, जबकि वह स्वयं हंसिनी थी, उसके पति हंस को किसी व्याध ने मार डाला था। वह भी उसके प्रेम के कारण उसके साथ जलकर मर गई थी। यह याद करके उसे मूर्छा आ गई। यहीं से प्रेम और विरह की जागृति होती है। सचेत होने पर वह अपने प्रियतम की खोज में निकल पड़ी। उसने एक सुन्दर चित्रपट बनाया, जिसमें हंस-युगल का जीवन चित्रित था। इसकी सहायता से उसने अनेक विपत्तियाँ सहने के बाद अपने पूर्व-जन्म के पति को ढूँढ़ लिया। इस प्रकार उसे अपने इष्ट की प्राप्ति होती है। वह और उसका प्रेमी गन्धर्व विवाह-बन्धन में बँधते हैं। परदेश में भटकते हुए वे काली देवी की बलि चढ़ाने के संकट में पड़ जाते हैं। किसी प्रकार उनका बचाव होता है। मातापिता उन्हें खोजकर उनका विधिवत् विवाह कर देते हैं।
एक समय वसन्त-ऋतु में वन-विहार करते समय उन्हें जैन मुनि से उपदेश सुनने को मिला जो कि पूर्वभव में नर हंस को मारनेवाला व्याध था। उससे प्रभावित होकर उन्हें संसार से विरक्ति हो जाती है और अन्त में वे दोनों प्रव्रज्या लेकर जैन धर्म स्वीकार करते हैं। अन्त में सुव्रता कहती है- वही ‘तरंगवती' मैं सुव्रता आर्या हूँ।
उक्त आत्मकथा उत्तम पुरुष में वर्णित एक अद्भुत शृंगार-कथा है, जिसका अन्त धर्मोपदेश में हुआ है। इसमें करुण-शृंगार आदि अनेक रसों, प्रेम की विविध परिस्थितियों, चरित्र की ऊँची-नीची अवस्थाओं, वाह्य तथा अन्तर्संघर्ष की स्थितियों का बहुत स्वाभाविक और विशद वर्णन किया गया है। काव्य-चमत्कार अनेक स्थलों पर मिलता है। भाषा प्रवाहपूर्ण एवं साहित्यिक है। देशी शब्दों और प्रचलित मुहावरों का अच्छा प्रयोग हुआ है।
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द्रष्टव्य, सूत्र 130, उद्धृत- डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, द्वितीय संस्करण वाराणसी, 1995, पृष्ठ-323
द्रष्टव्य 3, पृष्ठ-109, उद्धृत, वही, पृष्ठ-323 __ द्रष्टव्य गाथा 1508, उद्धृत, वही, पृष्ठ-323 ___तरंगलीला की भूमिका में उद्धृत, पृष्ठ-7