________________
अपभ्रंश भारती 17-18
महाकवि स्वयंभू की लोकदृष्टि
- डॉ. शैलेन्द्रकुमार त्रिपाठी
सर्वप्रथम यह कहना आवश्यक है कि यह लेख अकादमिक लेख नहीं है। स्वयंभूदेव को भारत के एक दर्जन अमर कवियों में रखनेवाले महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के पास अपभ्रंश की आधिकारिक जानकारी थी। अपनी झोली में तो वह भी नहीं है। हाँ! विद्यार्थीभाव अवश्य बचा है जो इस उपभोक्तावादी अध्येता समाज के पास कम रहता है। अपनी सीमा में मैंने स्वयंभूदेव के अनूदित काव्य-अंशों का पारायण किया है जिसे जैन रामायण कहा जाता है। तुलसी का मानस (रामचरित), वाल्मिकी का रामायण और अध्यात्म रामायण को भी मैंने अपनी सीमा के अन्तर्गत पढ़ा है। एक हद तक मैं तुलसी के मानस का आग्रही भी रहा हूँ, अभी भी हूँ, किन्तु इसका यह मतलब तो नहीं होता कि एक अच्छे कवि की कल्पनाशक्ति और काव्य सामर्थ्य से वंचित रहा जाए!
प्रतिभा, अभ्यास व व्युत्पत्ति का आश्रय ग्रहणकर रचना की सम्प्रेषणीयता समाज का अंग बनती है, किन्तु अब तक का जो अपना अध्ययन रहा है उसके आधार पर मैं यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि प्रतिभा का नैसर्गिक स्वरूप ही कवि को स्थायी कीर्ति देने में समर्थ होता है और यह बात स्वयंभू के साथ लागू होती है। लोक का अनुभव और लोक का सौन्दर्य रचना को प्रौढ़ता तो देती ही है कवि की अपनी