Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 61
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 पेक्खु फुरन्तउ वामउ लोयणु। पेक्खहि रुहिर-हाणु वस-भोयणु॥ पेक्खु वसुन्धरि-तलु कम्पन्तउ। घर देवउल-णिवहु लोहन्तउ॥8.3॥ अर्थात् अभी प्रस्थान करना मेरे विचार से ठीक नहीं है। बहुत सारे अपशकुन हो रहे हैं। सियार रो रहा है, कौआ कुभाषा बोल रहा है। विषधरों से रास्ता पट गया है। बाई आँख फड़क रही है। रक्त की धारा और हाड़-मांस का वह भीषण वीभत्स दृश्य दिखाई दे रहा है। धरती काँप रही है जिसके कारण घर और मन्दिर तक के सारे देवता भी त्रस्त हो रहे हैं। दरअसल रचनाकार पर कोई साम्प्रदायिक प्रभाव तब तक नहीं पड़ता. है जब तक वह रचनाकार रहता है। प्रतिश्रुति बदलते ही सृजन की मूल आस्था व सामाजिकता का आग्रह भी सीमित होने लगता है। पउमचरिउ का रचनाकार भी जब तक अपनी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति को लोक से जोड़े रखता है तब तक वह अपने पात्रों के जरिये मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ कृति बताता है, क्योंकि उसी में तीर्थंकरों ने भी (यानी मनुष्य रूप में ही) मुक्ति और कैवल्यज्ञान प्राप्त किया है। भणइ णराहिउ केत्तिऍण जगे माणुस-खेत्तु जें अग्गलउ . जसु पासिउ तित्थङ्करेंहि सिद्धत्तणु लद्धउ केवलउ ।। अतः मनुष्य-रूप स्वयंभू को अतिप्रिय है। आत्माभिव्यक्ति को दूसरे तक सम्प्रेषित करने का विधान भी विधाता ने लोक या प्रकृति में सिर्फ मनुष्य को ही दिया है। कवि जब प्रकृति के वर्णन में लगता है तो उसके आत्मीयभाव यथार्थ की चिन्ता करते हैं जिसमें आकर्षण, कल्पना और यथातथ्यता तीनों का मेल हो। उपमा या उपमान कवि की चिन्तनधारा को कहीं से भी वायवीय नहीं बनाते। कवि का एक वसन्त वर्णन इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है-- पइठु वसन्तु-राउ आणन्दें। कोइल-कलयल-मङ्गल-सदें। अलि-मिहुणेहि वन्दिरॊहिँ पढन्तेंहिँ। वरहिण-वावणेहिँ णच्चन्तहिँ। अन्दोला-सय-तोरण-वारेंहिं। ढुक्कु वसन्तु अणेय-पयारेंहिँ। कत्थइ गिरि-सिरहइँ विच्छायइँ। खल-मुहइँ व मसि-वण्णइँ णाय। कत्थइ माहब-मासहाँ मेइणि। पिय-विरहेण व सूसइ कामिणि ॥26.5॥ - कोयल के कूहकने के मंगल पाठ के साथ वसन्त का आगमन हो रहा था। भौंरों की तरह बन्दीजन मंगल पाठ पढ़ रहे थे और मोररूपी कुब्जवामन नाच रहे थे। इस तरह अनेक प्रकार के हिलते-डुलते तोरण-द्वारों के साथ बसन्त राजा आया। कहीं आम

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