Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 49
________________ 38 अपभ्रंश भारती 17-18 जाये तो इनमें भारत के सन्दर्भ में समूची मानवीय चेतना और संस्कृति का जीवन्त चित्र है तथा इस चित्र को गागर में सागर भरने-रूप प्रतिबिम्बित करने हेतु अनेक सूक्तियों का प्रयोग भी अनायास ही हो गया है। उक्त चरिउ-काव्यों में से चयनित कुछ सूक्तियाँ इस प्रकार हैंसूक्ति-वाक्य 1. तिह जीवहि जिह परिभमइ कित्ति। पउमचरिउ (1.7.12.1) - इस प्रकार जीओ जिससे कीर्ति फैले। तिह हसु जिह ण हसिज्जइ जणेण। पउमचरिउ (1.7.12.2) . - इस प्रकार हँसो कि जिससे लोग हँसी न उड़ा सके। तिह भुज्जु जिह ण मुच्चहि धणेण। पउमचरिउ (1.7.12.2) - इस प्रकार भोग करो कि धन समाप्त न हो। 4. तिह तजु जिह पुणु वि ण होइ संगु। पउमचरिउ (1.7.12.3) - इस प्रकार त्याग करो कि फिर से संग्रह न हो। तिह चउ वुच्चइ साहु साहु। पउमचरिउ (1.7.12.4) - इस प्रकार बोलो कि लोग वाह वाह कर उठे। दोस वि गुण हवन्ति संसग्गिए। पउमचरिउ (2.29.3.7) - सत्संगति से दोष भी गुण हो जाते हैं। सुन्दर ण होइ वहु। पउमचरिउ (2.36.12.9) - किसी चीज में अति अच्छी नहीं होती। असहायहो णत्थि सिद्धि। पउमचरिउ (2.37.9.1) - असहाय व्यक्ति की संसार में सिद्धि नहीं होती। किं णीसब्भावेण सणेहें। पउमचरिउ (3.53.12.3) - बिना सद्भाव के स्नेह से क्या? 10. सिद्धि णाणेण बिणु ण दिट्ठि। पउमचरिउ (4.68.10.9) - ज्ञान के बिना सिद्धि नहीं दीख पड़ती। 11. जहिं परम-धम्मु तहिं जीव-दय। पउमचरिउ (4.73.11. घत्ता) - जहाँ परम धर्म होगा जीव-दया भी वहीं रहेगी।

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