Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 47
________________ 36 अपभ्रंश भारती 17-18 केरिसी विज्झाडई पुणु केरिसी विज्झाडईभारहरणभूमि व सरहभीस गुरु-आसत्थाम-कलिंगचार गयगज्जिर-ससर-महीससार। लंकानयरी व सरावणीय चंदणहिँ चार कलहावणीय। सपलास-संकचण-अक्खथड्ढ सविहीसण-कइकुलफलरसड्ढ। कंचाइणि व्व ठिय कसणकाय सद्दूलविहारिणि-मुक्कनाय। तिणयणतणु व्व दारुवणछंद गि रिसुय-जड-कंदल-खंडयंद। । घत्ता- वोलवि वणु परिसक्कइ कहिँ मि न थक्कइ जहिँ छइल्लु जणु निवसइ। गरुयारंभुच्छाहिउ मगहनराहिउ विज्झएसु तं पइसइ॥ - महाकवि वीर, जंबूसामिचरिउ, 5.8.30-38 और फिर वो विंध्याटवी कैसी थी?- वह (महा) भारत रणभूमि के समान भयंकर थी; भारत रणभूमि चीत्कार करते हुए रथों से भयानक थी, अटवी शरभों (अष्टापदों) से; अटवी में सिंह, अर्जुन वृक्ष, नेवले और मयूर थे; भारत रणभूमि गुरु (द्रोणाचार्य), अश्वत्थामा और कलिंगराज के संचरण (परिभ्रमण) से यक्त थी. अटवी बडे-बडे पीपल के वक्षों. हरी-हरी लताओं एवं चार (चिरौंजी) वक्षों से: भारत रणभमि गजों के गर्जन तथा बाणधारी राजाओं से समृद्ध थी और अटवी गजों के गर्जन, सरोवर तथा महिषों से। और भी- वह अटवी लंकानगरी के समान थी, लंकानगरी रावण से सनाथ थी और चन्द्रनखा के आचरण के कारण वहाँ कलह हुआ था और विंध्याटवी रावण (फलविशेष) वृक्षों, चन्दनवृक्षों, चारवृक्षों एवं कलभों (बालहस्तियों) से युक्त थी। लंकानगरी पलाश (राक्षस), काँचन (सुवर्ण) और अक्ष (रावणका पुत्र) सहित होने से गर्विष्ठ थी एवं विभीषण तथा रसिक कवियों से परिपूर्ण थी; विंध्याटवी पलाश, कंचन (मदनवृक्ष), चक्षु-विभीतक (बहेड़ा) के वृक्षों से गर्विष्ठ तथा नाना प्रकार की विभीषिकाओं एवं वानरों व खूप रसभरे फलों से समृद्ध थी। वह अटवी कात्यायनी (चामुण्डा) के समान थी; कात्यायनी कृष्णशरीरवाली हैं तथा शार्दूल (शरभ) पर विहार करती हुई फेत्कार छोड़ती रहती हैं, विंध्याटवी काले कौओं, शरभों के विहार व नाना वन्यपशुओंके नाद से युक्त थी। वह अटवी महादेव के समान थी, महादेव ने गौरी के अभिप्राय (छन्द) से नाना प्रकार का रौद्र नृत्य किया तथा वे गिरिसुता (पार्वती), जटाओं एवं कपालपर खण्डचन्द्र (चन्द्रकला) से युक्त हैं और विंध्याटवी दारुवनों से आच्छादित थी एवं पर्वतों, शुकों, नानाप्रकार की मूलों, विशेष अंकुरों एवं खण्डकन्दों (कन्दविशेष) से युक्त थी। वन को लांघकर, राजा आगे बढ़ गया, कहीं भी रुका नहीं। इस प्रकरा मगधाधिपने बड़े-आरम्भ (कार्य) के उत्साह से उस विंध्यप्रदेश में प्रवेश किया जहाँ छैले लोग (विदग्ध-जन, ज्ञानीपुरुष) रहते थे। - अनु.- डॉ. विमलप्रकाश जैन

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