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अपभ्रंश भारती 17-18
- लक्ष्मी निश्चय ही उद्योग में बसती है, अवश्य ही साहस के कार्य में सिद्धि मिलती है। विलक्षण पुरुष जहाँ जाता है, वहीं उसे समृद्धि की प्राप्ति होती है। वे भूपाला मेइनी वेण्डा एक्का नारि।3.25।। सहहि न पारइ वेवि भर अवस करावए मारि।3.26। - दो राजाओं की एक पृथ्वी और दो पुरुषों की एक नारी, दोनों का भार नहीं सह सकती, अवश्य युद्ध कराती हैं। तावै जीवन नेह रह जाव न लग्गइ मान।3.153। - जीवन में तभी तक स्नेह रहता है जब तक पारस्परिक सम्बन्धों में मान का प्रवेश नहीं होता। जइ साहसहु न सिद्धि हो, झंष करिव्वळ काह।3.56। होञ होसइ एवक पइ वीर पुरिस उच्छाह।3.57। - साहस करने से भी यदि सिद्धि नहीं मिलती है, तो झंखने से क्या होता है? जो होना है होगा, पर, वीर पुरुष के लिए एक उत्साह रह जाता है। विपइ न आवइ तासु घर जसु अनुरत्ते लोक।3.146। - उसके घर विपत्ति नहीं आती जिससे लोग अनुराग रखते हैं। आदि, आदि।
'कीर्तिलता' की कथा-समापन के बाद अपने अन्तिम संस्कृत श्लोक में कविकोकिल कामना करते हुए कहते हैं- इस प्रकार संग्राम-भूमि में साहसपूर्वक शत्रु-मंथन करने से उदित हुई लक्ष्मी को राजा कीर्तिसिंह चन्द्रमा और सूर्य के रहने तक परिपुष्ट करें और जब तक यह संसार है कवि विद्यापति की यह कविता जो माधुर्य की प्रसवस्थली और श्रेष्ठ यश के विस्तार की शिक्षा देनेवाली सखी है, क्रीड़ा करती रहे
एवं संगरसाहसप्रथमन प्रालब्धलब्धोदयां। पुष्णाति श्रियमाशशांकतरणी श्री कीर्तिसिंहो नृपः॥ माधुर्य प्रसवस्थली गुरुयशो विस्तार शिक्षासखी।
यावद्विश्वमिदञ्च खेलतकवेर्विद्यापति भारती॥ कविकोकिल विद्यापति की यह कविता कल भी मिथिलांचल के घर-घर में क्रीड़ा करती थी, आज भी करती है और आगे भी करती रहेगी। जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने उनके गीतों को देखकर अपनी पुस्तक 'एन इण्ट्रोडक्शन टू द मैथिली लैंग्वेज' (1881-82) में ठीक ही लिखा है- “कृष्ण में विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो