Book Title: Apbhramsa Bharti 2005 17 18
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 40
________________ अपभ्रंश भारती 17-18 कोकिल ने इसमें मध्यकालीन भारतीय समाज और उसकी तत्कालीन आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियों को अपनी सीमा और समग्रता में रूपायित कर दिया है। 'कीर्तिलता' के प्रणयन का प्रमुख प्रयोजन संग्राम में शत्रुओं का दर्प दलन करनेवाले अपने आश्रयदाता नरेश कीर्तिसिंह के कुमुद-कुन्द-चन्द्रमा की तरह समुज्ज्वल यश को काल-कपाल पर चिरकाल के लिए अंकित कर देना है। कीर्तिसिंह काव्य के श्रोता, प्रणेता, रस-ज्ञाता और दान के द्वारा दारिद्रय का दलन करनेवाले दुर्लभ कोटि के दाता हैं। अपने को कीर्तिसिंह का 'खेलन कवि' कहनेवाले कवि विद्यापति अक्षर के खम्भे गाड़कर यदि उस पर मंच न बना दें तो त्रिभुवन-क्षेत्र में उनकी कीर्तिलता भला किस तरह फैलेगी तिहुअन त्तहिं काञि तसु कित्तिवल्लि पसरेइ। अक्खर खंभारंभ जउ मञ्चो वन्धि न देइ॥1.15-16॥ 'कीर्तिलता' की ऐतिहासिक कथा चार पल्लवों/अध्यायों में वर्णित है। मंगलाचरण में कवि ने क्रमशः पार्वती, पशुपति और सरस्वती की अत्यन्त सुन्दर समवेत वन्दना की है। यथा 'पिताजी, मुझे स्वगंगा का मृणाल ला दीजिये, पुत्र! यह मृणाल नहीं, सर्पराज है!' यह सुनकर गणेश रोने लगे और शम्भु के मुँह पर हँसी छागयी। यह देखकर पर्वतराज कन्या पार्वती को बड़ा कौतूहल हुआ। वह कौतूहल तुम्हारी रक्षा करे। सूर्य, चन्द्र और अग्नि अज्ञान-तिमिर के विनाशक भगवान शिव के तीन प्रकाशपूर्ण नेत्र हैं। अतः कवि उनके कमलचरणों की वन्दना करता है। भगवती सरस्वती को कवि-कोकिल सब प्रकार के अर्थबोध के लिए द्वाररूप, जिह्वारूपी रंगस्थली की नर्तकी, तत्त्व को आलोकित करनेवाली दीपशिखा, विदग्धता के लिए विश्राम-स्थल, शृंगारादि रसों की निर्मल लहरियों की मन्दाकिनी और कल्पान्त तक स्थिर रहनेवाली कीर्ति की प्रिय सखी कहते हैं। इसके बाद ',गी पुच्छइ भिंग सुन' अर्थात् भंग-भंगी संवाद के द्वारा 'कीर्तिलता' की कथा आगे बढ़ती है- 'हे भुंग, संसार में सार क्या है?' 'मानिनी, ऐसे वीर पुरुष का अवतार जिसका जीवन-मान संयुक्त हो।' 'नाथ, यदि कहीं वीर पुरुष जन्मा हो तो उसका नाम क्यों नहीं लेते? यदि सोत्साह कहो तो मैं भी सुनकर तृप्त होऊँ!' । इस तरह 'कीर्तिलता' की सम्पूर्ण कथा कवि-कोकिल भृग-भंगी के प्रश्नोत्तर

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