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अपभ्रंश भारती 17-18
कीर्तिसिंह वय में उनसे 2-3 वर्ष बड़े थे। विद्यापति ने साहित्यशास्त्र, कामशास्त्र और दण्डशास्त्र आदि का गहन अध्ययन किया था। वे श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, प्रमाणविद्या, समय-विद्या और राज्य सिद्धान्तत्रयी के विशेषज्ञ थे। माँ भगवती, भगवान शंकर
और गंगा के वे अनन्य उपासक थे। 'उगना' के रूप में, कहते हैं, स्वयं भगवान शिव अहर्निश उनकी सेवा में लगे रहते थे। मृत्यु के समय उनकी पुकार पर गंगा उनके पास चली आई थी।
संस्कृत, प्राकृत, अवहट्ट के साथ ही विद्यापति मैथिली के भी विलक्षण कवि और पण्डित थे। अपनी भाषा की शक्ति और सामर्थ्य के विषय में वे इतने आश्वस्त हैं कि विश्वास-दीप्त वाणी में कहते हैं
बालचन्द विज्जावइ भासा। दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन हासा॥ ओ परमेसर सेहर सोहइ।
ई णिच्चइ नाअर मन मोहइ॥' अर्थात् बालचन्द्र और विद्यापति इन दोनों की भाषा को दुष्टों, दुर्जनों की हँसी नहीं लगती। बालचन्द्र भगवान शंकर के माथे पर शोभायमान होता है और विद्यापति की भाषा नगरजनों के मन को मोहित करती है। भाषा सम्बन्धी अपने विचार प्रकट करते हुए ये आगे कहते हैं
सक्कय वाणी बहुअन भावइ। पाउँअ रस को मम्म न पावइ। देसिल वअना सब जन मिट्ठा।
तं तैसन जम्पो अवहट्ठा ।।1.33-36 ।। अर्थात् संस्कृत केवल विद्वानों को अच्छी लगती है और प्राकृत में रस का मर्म नहीं होता। देशी भाषा सबको अच्छी लगती है इसीलिये वे उसी प्रकार का 'अवहट्ठ' कहते हैं। ... कहना नहीं होगा कि कवि-कोकिल विद्यापति और उनकी कीर्तिलता दोनों परवर्ती अपभ्रंश की अत्यन्त मूल्यवान धरोहर हैं। अतः उन्हें यदि हम परवर्ती अपभ्रंश का 'महाकवि स्वयंभू' कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भाषा-साहित्य के अध्ययन, अध्यापन और अनुसन्धान की दृष्टि से आज भी गद्य-पद्य से संवलित इस ऐतिहासिक कथा-काव्यकृति का अप्रतिम महत्त्व है। विस्मयकारिणी प्रतिभा के बल पर कवि