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अपभ्रंश भारती 17-18
कहिं मि गिरिकडणि
कहिं मि गिरिकडणि गज्जंतकरिकाणणा कुद्धपंचाणणा। कहिँ मि हयदंडवग्घेहिँ गुंजारिया गवय विद्दारिया। कहिँ मि घुरुहुरियकोलउलदढुक्खया कंदया सुक्खया। कहिँ मि हुँकरियादिढमहिससिंगाहया रुक्ख भूमिं गया। कहिँ मि मेल्लंतु वुक्कार दीहरसरा धाविया वाणरा। कहिँ मि घुग्घुइयघूयडसया रोसिया वायसा वासिया। कहिँ मि भल्लुक्किफेक्कारहक्कारिया जंबुया धारिया। कहिँ मि पज्झरियखलखलियजलवाहला कसणतणुनाहला। कहिँ मि महिपडियतरुपण्णसंछन्नया संठिया पन्नया। कहिँ मि फणिमुक्कफुक्कारविससामला जलिय दावानला।
- महाकवि वीर
जंबूसामिचरिउ, 5.8.14-23 कहीं पर्वतमेखला पर हाथी व क्रुद्ध सिंह गर्जन कर रहे थे। कहीं दण्ड (शस्त्र) से आहत व्याघ्रों (को चिंघाड़) से वह अटवी [जारित हो रही थी और कहीं नील गाय विदीर्ण कर डाली गई थी। कहीं घुरघुराते हुए बनैले सूअरों के दाढ़ों से उखाड़े हुए कंद सूख रहे थे। कहीं हुँकार करते हुए बलवान् महिषोंके सींगों से आहत हुए वृक्ष गिर गए थे। कहीं दीर्घ-स्वर से बुक्कार छोड़ते हुए वानर दौड़ रहे थे। कहीं घूग्घू-घूग्घू करते हुए सैंकड़ों घूयडों के स्वर से रुष्ट हुए वायस काँव-काँव कर रहे थे। कहीं शृगालियों के फेत्कार से आह्वान किये गए जंबूक पकड़े जा रहे थे। कहीं खल-खल करके झरते हुए जल के छोटे-छोटे प्रवाह थे और कहीं काले शरीरवाले म्लेच्छ थे। कहीं पृथ्वी पर गिरे हुए पत्तों से ढके हुए सर्प पड़े थे और कहीं नागों के छोड़े हुए फूत्कारों से विष के समान श्याम वर्ण के दावानल जल रहे थे।
अनु.- डॉ. विमलप्रकाश जैन