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अपभ्रंश भारती 17-18
घत्ता- असुइसरीरहों कारणेण केवलु सुद्ध अप्पु अवगण्णइँ।
किसि-कव्वाड-वणिज्जफलु सेवकिलेसु सुहिल्लउ मण्णइँ॥11.6॥
तदनन्तर वे अशुचि भावना का चिन्तन करते हैं- चेतन (आत्मा) के सहारे से अचेतन (शरीर) का संचरण होता है। इस अशुचि शरीर में कुछ भी भला नहीं है। यह शरीर आड़े-टेढ़े हाड़ों से संघटित है, शिराओं से बँधा हुआ है और चमड़े से मढ़ा हुआ है। यह शरीर रक्त, मांस और वसा की गठरी है, मूत्र का निधान है और मल की पोटली है। मरणोपरान्त रख देने पर इसमें कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं, श्मशान में जलाने पर राख बन जाता है। जिस मुखबिम्ब से चन्द्रमा की तुलना की जाती है, आयु व्यतीत होने पर उसकी परिणति कपोलों पर देखिये! अब नेत्रों का कटाक्ष कहाँ गया? दाँतों से मन्द-मन्द मुस्कुराना कहाँ गया? होठों की शोभा कहाँ गयी? अब कोमल वचन क्यों नहीं प्रवृत्त होते? धूप आदि का विलेपन बाहर ही रहता है, शरीर के भीतर की दुर्गन्ध को कौन मिटा सकता है? अज्ञानी जीव इस अपवित्र शरीर के कारण शुद्ध आत्मा की उपेक्षा करता है और खेती, कबाड़ीपन, वाणिज्य फल तथा सेवा के कष्ट को सुखकर मानता है। आस्रव भावना
नारय-तिरिय-नरामर थावण मुणि परिभावइ आसवभावण। तणु-मण-वयण जोउ जीवासउ कम्मागमणवारु सो आसउ। असुहजोएँ जीवहाँ सकसायहाँ लग्गइ निविडकम्मलु आयहाँ। कप्पडे जेम कसायइ सिट्ठउ जायइ बलहरंगु मंजिट्ठउ।। अबलु नरिंदु जेम रिउसिमिरे मंदुज्जोउ दीउ जिह तिमिरें। जीउ वि वेढिज्जइ तिह कम्में निवडइ दुक्खसमुद्दे अहम्में। अकसायहाँ आसवु सुहकारणु कुगइ-कुमाणुसत्तविणिवारणु।
सुहकम्मेण जीउ अणु संचइ तित्थयरत्तु गोत्तु संपज्जइ। घत्ता- मिच्छादसणे मइलियउ कुडिलभाउ जायइ सकसायहाँ।
काय-वाय-मणपंजलउ पुण्णनिमित्तु होइ अकसायहाँ।।11.7।।
पुनः वे मुनि नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में स्थापन करनेवाली आस्रव भावना का चिन्तन करते हैं- जीव के आश्रय से होनेवाली मन, वचन और काय की क्रिया, जो कर्मों के आने का द्वार है, वही आस्रव है। सकषाय जीव के अशुभ योग से कर्ममल आकर उसी प्रकार लग जाता है जैसे गोंद लगेहुए कपड़े में मंजीठ का रंग खूब गाढ़ा हो जाता है। जिस प्रकार दुर्बल राजा को शत्रु सेना द्वारा और मन्द प्रकाशवाले दीपक को अन्धकार के द्वारा घेर लिया जाता है, उसी प्रकार सकषाय जीव