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अपभ्रंश भारती 17-18
स्वाभिमान को कतई नहीं छोड़ सकती । लक्ष्मण को शक्ति लगने की बात सुनकर शोकाकुल हुई सीता को रावण द्वारा पुनः अपने वशीभूत करने के लिए अथक प्रयत्न करने पर सीता शंकित हो जाती है, किन्तु वह रावण से दृढ़तापूर्वक यह कहती है कि राम के बिना उसका अस्तित्व उसी प्रकार निरर्थक है जैसे दीपक के बिना शिखा, काम के बिना रति, प्रेम के बिना प्रणयांजलि, सूर्य के बिना किरणावलि, चन्द्रमा के बिना चाँदनी और परमधर्म के बिना जीवदया । उसकी इस शोक-कातर और मूर्च्छित स्थिति को देखकर रावण के हृदय में भी पश्चात्ताप का उदय हो जाता है और यही सीता रामलक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटने पर जब लोकापवाद के कारण राम द्वारा निर्वासित कर दी जाती है तो अत्यधिक दु:खी होकर घोषणा करती है कि- शीलव्रत को धारण करनेवाली मैं यदि कहीं मारी गई तो मेरी स्त्री-हत्या तुम्हारे ऊपर होगी । लोगों के कारण कठोर राम ने मुझे अकारण निर्वासित कर दिया है
लोयहुँ कारणे दुष्परिणामें । हउँ णिक्कारणें घल्लिय रामें ॥
जइ मुय कह वि सइत्तण-धारी । तो तुम्हइँ तिय-हच्च महारी ॥ 81.13.8-9
कालान्तर में विभीषण, अंगद, सुग्रीव और हनुमान उन्हें वापिस लाने के लिए जाते हैं तो वह राम के अनुचित व्यवहार का भी उसी तेवर से विरोध करती हैं। वे कहती हैं कि जिस पत्थरहृदय राम ने चुगलखोरों की बातों में आकर मुझे डाइनों, भूतों, सिंह, शार्दूल, गेंडे, बर्बर शबर, पुलिन्द, तक्षक, रीछ, साँभर, सियार आदि से भरे हुए भयंकर वन में भेजकर जो पीड़ा पहुँचाई है उसकी जलन सैकड़ों मेघों की वर्षा से भी शान्त नहीं हो सकती। राम ने मेरे साथ जो कुछ किया उसके लिए कोई कारण नहीं था
घल्लिय
णिट्ठर - हिययहो अ-लइय-णामहों। जाणमि तत्ति ण किज्जइ रामहों। जेण रुवन्ति वणन्तरे । डाइणि- - रक्खस-भूय- भयंकरे ॥ सद्दूल-सीह-गय- गण्डा । वब्बर-सवर - पुलिन्द - पयण्डा । जहिँ बहुत तच्छ-रिच्छ - रुरु-सम्बर। स- उरग - खग- मिग - विग - सिव-सूयर ॥
जहिँ
माणुसु जीवन्तु वि लुच्चइ । विहि कलि-कालु वि पाणहुँ मुच्चइ ॥
तहिँ वर्णे घल्लाविय अण्णार्णे । एवहिं किं तहों तणेण विमार्णे ।।83.6.2-7 इतना ही नहीं, इस मनस्ताप को भी वे सहन करती हैं और अनिच्छापूर्वक अयोध्या जाना स्वीकार करती हैं। वह कल्पना करती है कि लम्बे समय के बाद राम का सान्निध्य और स्नेह पाकर वह अपने सारे कष्ट भूल जायेगी, किन्तु इसके विपरीत राम उसे व्यंग्य-भरे शब्दों में कटु वचन कहते हैं