Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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March-2004
इमेऽधुना स्वास्थ्यं लभन्ताम् । भवत्येव सतन्त्र्या तत्रत्यवृत्ति
मधुरया प्राकृतगिराऽऽविःकरोतु । उर्वशी: - सामीणं आणा पमाणं, अह दाव सुणेह तस्सेव रण्णो
कुमारचरियं, मणहरसभियवयणो घणमित्तजुओ पत्तारगुम्महणो । सिर(रि)जोरावरसीहो जयइ कुमारो कुमारुव्व ॥१६॥
अथोर्वशी रति विलोक्य स्मित्वा च, जं दट्ठण सुरूवं अज्ज अणंगो किमंगवं जाओ ।
इय चिरविम्हियहियया रई ठिया तं अहिलसंती ॥१६।। विदूषकः - अह तत्थ रइदेवी एतेण सद्धि अहिलासाणं सिद्धिसंपण्णा ।
अहवा दलिद्दकलत्तपयं इमाए अवलद्धं । उर्वशी : - तुब्भेहिं चेव रई पडिपुच्छणीया । रतिरलज्जत ।
देवः - आर्ये ! पुनराख्याहि तच्चेष्टितम् । उर्वशीः - पमाणं सामी,
सो जयउ रायपुत्तो जस्स पसाया बुहाण गेहम्मि । जं सिरिसरसइवेरं भग्नं खलु चेगवासम्मि ॥१८॥ ईसरभत्ती हियए जस्स मुहे भारई करे लच्छी ।
सो लोआणंदयरो जयउ सया तत्थ जुवराया ।।१९।। देवः - आर्ये ! अयमपि सत्यवानुग एव ? | उर्वशी : - अह किं ? ।
देवः - आर्ये ! ब्रूहि, कस्तत्र प्रधानपुरुषो राज्यधुराधरणधौरेयः? । उर्वशी : - पसीयउ सामी !, मह सहीओ सूरसेणी-मागही-पिसाई
देवीओ भट्टिणो आलावपसायं संपेहिंते । देवः - भवतु,
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