Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 43
________________ 36 अनुसंधान-२७ हरि तरकारी न हाथि लीइ, नाहीं लेत तंबोल नांगे पाउं फिरे, बहु बोलइ न बोल ॥३४॥ बाल उचावई धर्म जाणि अइसे हिं उही देस विलाति सहु गाम फिरइ प्रतिबंध. नां मोही । सत्तू-मित्त समचित गिणइं, किंसहइ नि दिइ दोस महिने दस रोजे करइ, न करइ टुक रोस ॥३५।। भुई सुवइ धूपकालि धूप सीतकालिं सीत। समतिणमणि नाहीं क्रोध लोभ कामवयरी जीत । राह निहालइ चलइ पंथि साचे वयरागी पाढ पढइ गुरु ध्यान धरइ होवइ गुणरागी ॥३६।। टाणुटुंगुं उ करत नाही, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सो कथन कथइ नाही किं न सारु ॥३७॥ दूहा ॥ वली निजमुखि साहि कहइ, अयसे वचन अनेक । इया खुदा तई निस्पृही, कीआ हीर यु एक ॥३८॥ एक ज हीर दीदार थई, हुआ हम बहुत सबाब । मरती मछी मनय कीई, बकस्या डावर तलाव ॥३९। भादं नव रोजे जनमिदिन, जीव मरत मनीय कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंद खलासी दीध ॥४०॥ हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मुलक पुर गाम । लालचि देखाई घणी, गुरुजी कहइ नाहीं काम ॥४१॥ साही कहइ गुरु हीरकुं, दर्शन देखण की चाय । जो सेषुजी तुम्ह कहु तु, लीजइ बहुड बोलाय ॥४२॥ ढाल राग गोडी ॥ सेषुजी इउं बोलइ साही स्युंणो अरदास तुम्ह जानत नी को पंथ उहां को उदास । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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