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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
सधान
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
२७
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य - विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
२७
संपादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
श्री हेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
२००४
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आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
संपर्क :
अनुसंधान २७
C/o. अतुल एच. कापडिया A- 9, जागृति फ्लेट्स, पालडी
महावीर टावर पाछळ
अमदावाद- ३८०००७
प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद - ३८०००७
मुद्रक :
मूल्य : Rs. 50-00
(२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अमदावाद- ३८०००१
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ (फोन : ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
मनुष्य, स्वभावतः, 'वीर' पूजक - व्यक्तिपूजक छे. तेनी नजरमां कोईनी कोई खास विशिष्टता के विशेष गुण वसी जाय, एटले ते तेनी पूजा करतो थई जाय छे. पछी ते व्यक्ति विषे कोई खराब के नबळी वात करे तो ते वीरपूजक मनुष्य अने मानवसमाजनुं हृदय दुभाय छे, अने ते दुःखने अभिव्यक्त करवा माटे ते, क्यारेक, निम्न स्तरनां कही शकाय अथवा तद्दन अनुचित गणाय, तेवा उपायो अजमावतां अचकातो नथी. जो के आवुं करवाथी ते समाजने / मनुष्यने पहोंचेलुं दुःख केवी रीते मटतुं हशे ते शोधनो विषय छे, परन्तु तेना ते अनुचित कामनां कटु फल समग्र जगत्ने तथा सुज्ञ जनोने ज भोगववां पडतां होय छे, ते हकीकत छे. भाण्डारकर प्रतिष्ठान - पूनानी दुर्घटना ए आ बाबतनो ताजो दाखलो छे.
आ घटनाथी, भारतमां लोकशिक्षण के लोकघडतरना क्षेत्रे केटली त्रुटि के पछी अभाव छे, ते पण स्पष्ट थाय छे. शिक्षण एटले अक्षरज्ञान अने डिग्रीनी प्राप्ति एवो अर्थ आजे चलणी तथा सर्वमान्य थयो छे. 'घडतर 'ना तत्त्वनो आमां क्यांय समावेश नथी. फलतः नोकरीलक्षी मानस अने गुलामीमां राचनारुं मानस ज नीपजतुं रहे छे. शिक्षित नोकरी ज झंखे ! शिक्षण मळ्या छतां गोरी चामडीने जोईने पाणी पाणी थई जाय ! खरेखर तो शिक्षण एटले अक्षरज्ञान तो खरुंज, पण तेथी आगळ वधीने जीवनलक्षी नैतिक मूल्योनुं ज्ञान तथा ते मूल्योनुं जतन करवा जेटली समज अने जवाबदारी - ए होय. आवो शिक्षित जन, व्यर्थ अहंभाव तथा मिथ्या अहोभावथी दूर रहे, अने मतभेदनो के अणगमतो प्रसंग आवे त्यारे पण, तेनुं वर्तन, विरोध व्यक्त करवा छतां, अनुचित के हानिकर गणाय तेवी चेष्टाथी अलिप्त ज रहे.
आ प्रकारना लोकशिक्षणनो व्याप, स्वतन्त्र भारतमां, विकसावी शकायो नथी, एनो ख्याल पूनानी दुर्घटना थकी, मळी रहे छे.
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‘Deccan Herald’ नामना अंग्रेजी दैनिक वृत्तपत्रना ता. १-२-०४ना अंकमां K.R.N.Swamy नामना लेखकनो एक लेख, पूनानी दुर्घटनाना सन्दर्भमां, प्रकाशित छे, जेनी Head line छे : Thank God it is not in India ! अर्थात् प्रभुनो पा'ड मानो के आ (British library of Indology, U.K.)
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(ग्रन्थागार) भारतमां नथी ! ( भारतमां होत तो तेना हाल पण भाण्डारकर जेवा थात ! )
अंग्रेजो अने अंग्रेजियतनी मानसिक गुलामी, एक भारतीय लेखक पासे केवुं लखावी शके छे ! आवा लोकोने पूछी शकाय के इराकमां सङ्ग्रहालयोमांनी प्राचीन सभ्यताओ साथै सम्बन्ध राखती मूल्यवान् सम्पत्ति साथे अमेरिकी तथा ब्रिटिश लोकोए जे चेडां कर्यां : तोडफोड तथा लूंट : ते मुद्दे तमे शुं कहेशो ? शुं ए चेडां, भारतीयोनी तुलनामां, ते गोरा लोकोने वधु सुशिक्षित पुरवार करे छे ? पोताना ए लेखमां श्रीस्वामी,
१. ब्रिटिशरो, पोताना शासन दरम्यान, भारतमांथी केटली सांस्कृतिक सामग्री उठावी गया; २. ब्रिटिश लायब्रेरीनुं लंडनस्थित मकान भारतना खर्चे बंधायेल छे; ३. ए सम्पत्ति पाछी मेळववा माटेना प्रयत्न करवामां भारत अने पाकिस्ताननी सरकारो ऊणी ऊतरी छे, अने हवे ते ब्रिटिश सरकारनी ज सम्पत्ति बनी गई छे;
आ बधी विगतो आपी छे. परंतु तेमनो प्रधान सूर तो ते बधुं त्यां होवाथी ज सुरक्षित छे- वो ज जणाय छे. सवाल एटलो ज उद्भवे के भारतनी ए सम्पत्ति ब्रिटिशरो कोई पण रीते उठावी गया ते शुं एक राष्ट्रनी अने एक संस्कृतिनी
मना द्वारा थयेली हानि नथी ? खरेखर तो कोई चोरी जाय अने तोडी फाडी नाखे ए बन्नेनी मानसिकतामां, थोडां वर्षोनो तफावत बाद करतां, कोई ज अंतर न गणावुं जोईए.
भारतीयोनी अंग्रेज - पूजा विषे संस्कृतना सुख्यात विद्वान् श्रीचमूकृष्ण शास्त्रीए (दिल्ली ) पोताना एक संस्कृत लेखमां एक प्रसंग आ प्रमाणे नोंध्यो छे : "सन् १९९७मां बेंगलोरमां विश्व संस्कृत सम्मेलन हतुं. तेमां उपस्थित २००० जेटला प्रतिनिधिओमां सो जेटला विदेशीओ हता. सम्मेलन पछी एक वृद्ध पुरुषे मने कह्युं : 'केवुं दुर्भाग्य छे ! संस्कृतज्ञोनी आ केवी मानसिक गुलामी छे? सम्मेलनमां घणा भारतीय विदेशीओने वींटळाईने रह्या हता अथवा तो तेमनी पाछळ पाछळ दोडता रह्या ! विदेशीओनी ज 'तमे ज अमारां मा - बाप' एवी स्तुति करता अने ओ ज सर्वज्ञ छे एवी मानसिकता धरावता आपणा भारतीयो हवे जागे तो सारुं."
पोताना उपरोक्त लेखमां श्रीचमूकृष्ण शास्त्रीए एक महत्त्वपूर्ण वात करी छे
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के, "मेकॉलेए ज्यारे भारतमां अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्थानो प्रारम्भ कर्यो त्यारे तेनो उद्देश अ ज हतो के 'अहीं एक एवा जनसमाजनुं निर्माण करवुं के जे बहारथी भले भारतीय महोरुं धारण करे पण तेओनी मानसिकता तो अंग्रेजनी ज होय. ' विश्वनी साथे व्यवहार करवा माटे, अने अंग्रेजी लेखो द्वारा ऊभी थयेली अने ऊभी थती कलुषता तथा विकृतिओनुं उन्मूलन करवा माटे, आपणे- संस्कृतना विद्यार्थीओ तेमज अध्यापको-बधा ज अंग्रेजी भाषानो सारी रीते अभ्यास कँरीए, एमां कोई आपत्ति नथी. परन्तु अंग्रेजीनो मोह, तेनुं अभिमान, तेनी आराधना, अने अंग्रेजो प्रत्ये अन्ध भक्ति ए बधुं तो आपणामां न ज होवुं जोईए. सौ प्रथमं आपणे - संस्कृतज्ञो ज आ मेकोलेनी असरमांथी बहार आवीए, अने महर्षिनी वाणी (संस्कृत) वडे व्यवहार करवा द्वारा तेमनी परम्पराने वधारीए.'
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आ स्वयंस्पष्ट मुद्दा परत्वे कशी टिप्पणीनी आवश्यकता नथी. पण तेनी पूरवणी करवा माटे उमेरवुं जोईए के, जेम सुज्ञोए मेकोले - मानसिकताथी बचवानुं छे, तेम सामान्य समाजे मध्ययुगी मानसिकतामांथी पण बहार आववुं ज जोईशे. पोताने अरुचिकर बाबतनो उकेल तोडफोड के लूंटफाट के आग चांपवाथी न आवी शके; तेम करवाथी एक तो आपणा मूल्यवान् वारसानो नाश थाय छे अने बीजुं जेनो विरोध छे ते वात कांई रोकी शकाती नथी. वळी, आवां तोफानो थाय तो तेनी धाकथी विद्वानो द्वारा तथा आवी शोधसंस्थाओ द्वारा थतां तथा थनारां मूल्यवान् सर्जनात्मक शोधकार्यो अटकी जशे, जेथी हानि आपणी संस्कृति ने ज थवानी.
वस्तुत: आवा अछाजतां लखाणोनो विरोध एक ज रीते थई शके : तमे अध्ययन द्वारा सुसज्ज थाव अने आवा प्रकारनां लखाणो जेवां ध्यान पर आवे ते साथे ज तेनुं खण्डन करतां, प्रमाणभूत, अधिकृत, शिष्टमान्य लखाणो तैयार करो अने तेने व्यापक रूपे वहेतां करो. तोडफोड आपणने तो अयोग्य ठेरवेज, साथे आपणे जे नरवीरनी पूजा करता होईए तेमने पण, आपणा दुर्व्यव्यवहारने कारणे, 'ए नरवीर पण आमना जेवा ज हशे' एवा मानवा अन्यने प्रेरशे. ज्यारे अधिकार अने सज्जता साथे करातां प्रतिलखाण, सामाने पुनर्विचार करवा प्रेरशे, अथवा तो तेमना मलिन आशयने जगत् समक्ष उघाडो करी आपशे.
शी.
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अनुक्रम
१. नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् । सं. म. विनयसागर २. कल्पव्याख्यानमांडणी ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ३. लाभोदयरास । वाचना बीजी ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि २७ ४. श्रीसंभवनाथ कलश
(सं.) डॉ. रसीला कडीआ ५० ५. श्रीमेघकुमार गीत
(सं.) डॉ. रसीला कडीआ . ५८ ६. श्रीआदिनाथ वीनती पूजा सं. डॉ. रसीला कडीआ ६३ ७. 'प्रमाणसार' विषे
शी. ८. 'चाणाक्य'- एक दक्षिणी कथानक शी. ९. विहंगावलोकन (अनुसंधान-२४नु) मुनि भुवनचन्द्र १०. विहंगावलोकन (अनुसं. २५नु) मुनि भुवनचन्द्र ११. मानव-सर्जित दुर्घटनानो भोग बनेल
एक विद्यातीर्थ १२. सांकळियुं : 'अनुसन्धान' १९ सं. साध्वीदीप्तिप्रज्ञाश्रीशिष्या ९५ थी २६ अंकोनुं
साध्वी चारुशीलाश्री
टाईटल १ : सूरत, १९मा शतकनुं सरस्वतीदेवी, चित्र
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नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् ।
षड्भाषा में यह पत्र एक अनुपम कृति है । १८वीं शताब्दी में भी जैन विद्वान् अनेक भाषाओं के जानकार ही नहीं थे अपितु उनका अपने लेखन में प्रयोग भी करते थे । लघु नाटिका के अनुकरण पर विक्रम सम्वत् १७८७ में महोपाध्याय रूपचन्द्र ( रामविजय उपाध्याय) ने बेनातट ( बिलाडा ) से विक्रमनगरीय प्रधान श्रीआनन्दराम को यह पत्र लिखा था । इस पत्र की मूल हस्तलिखित प्रति प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के हस्तलिखित संग्रहालय में क्रमांक २९६०६ पर सुरक्षित है । यह दो पत्रात्मक प्रति है । पत्रलेखक रूपचन्द्र उपाध्याय द्वारा स्वयं लिखित है । अतः इसका महत्व और भी बढ़ जाता है ।
सं. म. विनयसागर
इस पत्र के लेखक महोपाध्याय रूपचन्द्र है । पत्र का परिचय लिखने के पूर्व लेखक और प्रधान आनन्दराम के सम्बन्ध में लिखना अभीष्ट है ।
महोपाध्याय रूपचन्द्र :
खरतरगच्छीय श्रीजिनकुशलसूरिजीकी परम्परा में उपाध्याय क्षेमकीर्ति से निःसृत क्षेमकीर्ति उपशाखा में वाचक दयासिंहगणि के शिष्य रूपचन्द्रगणि हुए । दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार इनका जन्मनाम रूपौ या रूपचन्द था । इनका जन्म सं० १७४४ में हुआ था । इनका गोत्र आंचलिया था और इन्होंने वि. सं. १७५६ वैशाख सुदि ११ को सोझत में जिनरत्नसूरि के पट्टधर तत्कालीन गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी । इनका दीक्षा नाम था रामविजय । किन्तु इनके नाम के साथ जन्मनाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा । उस समय के विद्वानों में इनका मूर्धन्य स्थान था । ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे । तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि
१. म० विनयसागर एवं भँवरलाल नाहटा, खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची, पृष्ठ २६, प्रकाशक : प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ।
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अनुसंधान-२७
और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के विद्यागुरु भी थे। सं० १८२१ में जिनलाभसूरि ने ८५ यतियों सहित संघ के साथ आब की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे । विक्रम सम्वत् १८३४ में ९० वर्ष की परिपक्व आयु में पाली में इनका स्वर्गवास हुआ था । पाली में आपकी चरण-पादुकाएँ भी प्रतिष्ठित की गई थीं । इनके द्वारा निर्मित कतिपय प्रमुख रचनायें निम्न है : संस्कृत :
गौतमीय महाकाव्य - (सं० १८०७) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है।
गुणमाला प्रकरण - (१८१४), चतुर्विंशति जिनस्तुति पञ्चाशिका (१८१४), सिद्धान्तचन्द्रिका "सुबोधिनी" वृत्ति पूर्वार्ध, साध्वाचार षट्त्रिंशिका, षटभाषामय पत्र आदि । बालावबोध व स्तबक :
भर्तृहरि-शतकत्रय बाला० (१७८८) अमरुशतक बालावबोध (१७९१), समयसार बालावबोध, (१७९८), कल्पसूत्र बालावबोध (१८११), हेमव्याकरण भाषा टीका (१८२२) और भक्तामर, कल्याणमन्दिर, नवतत्व, सन्निपातकलिका आदि पर स्तबक । स्फुट रचनायें :
आबू यात्रा स्तवन (सं० १८२१), फलौदी पार्श्व स्तवन, अल्पबहुत्व स्तवन, सहस्रकूट स्तवनादि अनेक छोटी-मोटी रचनायें प्राप्त हैं । महोपाध्याय जी की शिष्य परम्परा भी विद्वानों की परम्परा रही है। प्रधान आनन्दराम :
__ आनन्दराम के सम्बन्ध में इस पत्र में केवल यही उल्लेख मिलता है कि ये विक्रमनगर अर्थात् बीकानेर नरेश अनूपसिंहजी के राज्याधिकारी और महाराजा सुजानसिंहजी के राज्यकाल में राज्यधुरा को धारण करने में वृषभ के समान हैं अर्थात् बीकानेर के प्रधान थे । बीकानेर के युवराज
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March-2004 जोरावरसिंह थे ।
ये किस जाति और किस वंश के थे, इसका कोई संकेत इस पत्र में नहीं है। किन्तु यह स्पष्ट है कि महोपाध्याय रूपचन्द्र के साथ इनका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । राजनीति के अतिरिक्त आनन्दराम प्रौढ़ विद्वान् था, अन्यथा संस्कृत, प्राकृत, सौरसेनी, मागधी और पैशाची आदि छ: भाषाओं में इनको पत्र नहीं लिखा जाता ।
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने बीकानेर राज्य का इतिहास प्रथम खण्ड में आनन्दराम के सम्बन्ध में जो भी उल्लेख किए है, वे निम्न हैं :
महाराज अनूपसिंह के आश्रय में ही उसके कार्यकर्ता नाजर आनन्दराम ने श्रीधर की टीका के आधार पर गीता का गद्य और पद्य दोनों में अनुवाद किया था । (पृष्ठ २८४)
नाजर आनन्दराम महाराजा अनूपसिंह का मुसाहिब था। उसके पीछे व महाराजा स्वरूपसिंह तथा महाराज सुजानसिंह के सेवा में रहा, जिसके समय में विक्रम सम्वत् १७८९ चैत्र वदी ८ (१७३३ तारीख २६ फरवरी) को वह मारा गया । (पृष्ठ २८५)
जब काफीले वालों ने महाराजा सुजानसिंह के दरबार में आकर शिकायत की तो प्रधान नाजर आनन्दराम आदि की सलाह से महाराजा ने अपनी सेना के साथ प्रयाण कर वरसलपुर को जा घेरा । (पृष्ठ २९७)
कुछ ही दिनों बाद नवीन बादशाह (मोहम्मदशाह)ने सुजानसिंह को बुलाने के लिए अहदी (दूत) भेजे, परन्तु साम्राज्य की दशा दिन-दिन गिरती जा रही थी, ऐसी परिस्थिति में उसने स्वयं शाही सेवा में जाना उचित नहीं समझा । फिर भी दिल्ली के बादशाह से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए उसने खवास आनन्दराम और मूधड़ा जसरूप को कुछ सेना के साथ दिल्ली तथा मेहता पृथ्वीसिंह को अजमेर की चौकी पर भेज दिया । (२९८, २९९)
सुजानसिंह के एक मुसाहब खवास आनन्दराम तथा जोरावरसिंह में वैमनस्य होने के कारण वह (जोरावरसिंह) उसको मरवाकर उसके स्थान में अपने प्रीतिपात्र फतहसिंह के पुत्र बख्तावरसिंह को रखवाना चाहता था।
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अनुसंधान-२७
अपनी यह अभिलाषा उसने पिता के सामने प्रकट भी की, पर जब उधर से उसे प्रोत्साहन न मिला तो वह नोहर में जाकर रहने लगा, जहां अवसर पाकर उसने वि० सं० १७८९ चैत्र वदि ८ ( ई० स० १७३३ ता० २६ फरवरी) को आधीरात के समय खवास आनन्दराम को मरवा डाला । जब सुजानसिंह को इस अपकृत्य की सूचना मिली तो वह अपने पुत्र से अप्रसन्न रहने लगा । इस पर जोरावरसिंह ऊदासर जा रहा । जब प्रतिष्ठित मनुष्योंने महाराजा सुजानसिंह को समझाया कि जो हो गया सो हो गया, अब आप कुंवर को बुला लें । इस पर सुजानसिंह ने कुंवर की माता देरावरी तथा सीसोदणी राणी को ऊदासर भेजकर जोरावरसिंह को बीकानेर बुलवा लिया और कुछ दिनों बाद सारा राज्य कार्य उसे ही सौंप दिया । (पृष्ठ ३००) इसी इतिहास के अनुसार तीनों राजाओं का कार्यकाल इस प्रकार
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है :
१. महाराजा अनूपसिंह जन्म १६९५, गद्दी १७२६, मृत्यु १७५५ २. महाराजा सुजानसिंह जन्म १७४७, गद्दी १७५७, मृत्यु १७९२ ३. महाराजा जोरावरसिंह जन्म १७६९, गद्दी १७९२,
ओझाजी ने आनन्दराम को महाराजा अनूपसिंह का कार्यकर्ता नाजर, तो कहीं महाराजा अनूपसिंह का मुसाहिब माना है । महाराजा सुजानसिंह के समय प्रधान माना है और उनको एक स्थान पर कूटनीतिज्ञ और खवास भी कहा है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तीनों महाराजाओं के सेवाकाल में रहते हुए वह मुसाहिब और कूटनीतिज्ञ तो था ही । पत्र का सांराश :
लघु नाटिका के अनुकरण पर षड्भाषा में यह पत्र रूपचन्द्र गणि ने बेनातट आश्रम ( बिलाडा के उपाश्रय) से लिखा है । देवसभा में इन्द्रादि देवों की उपस्थिति में सरस्वती इस नाटिका को प्रारम्भ करती है । मर्त्यलोक का परिभ्रमण कर आये बृहस्पति आदि देव सभा में प्रवेश करते है और मृत्यु लोक का वर्णन करते हुए मरु- मण्डल के विक्रमपुर / बीकानेर की शोभा का वर्णन करते है । साथ ही सूर्यवंशी महाराजा अनूपसिंह, महाराजा सुजाणसिंह और युवराज जोरावरसिंह के शौर्य और धार्मिक
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March-2004
क्रियाकलापों का तथा जनरजंन का वर्णन करते है । इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति आदि समस्त देवताओं की उपस्थिति में उर्वशी के अनुरोध पर सरस्वती आगे का वर्णन प्राकृत, सौरसेनी, मागधी, पैशाची आदि भाषाओं में मधुर शब्दावली में नगर, राजा, प्रधान इत्यादि के कार्य-कलापों का प्रसादगुण युक्त वर्णन करती है । इस प्रकार देवसभा को अनुरंजित कर लेखक महाराजा, राजकुमार और आनन्दराम को धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हुए पत्र पूर्ण करता है । यह पत्र मिगसर सुदि तीज सम्वत् १७८७ आनन्दराम के कुतूहल और उसको प्रतिबोध देने के लिए यह पत्र लिखा गया है ।
प्रायः जिनेश्वर भगवान् की स्तुति में ही जैन कवियों ने अनेक भाषाओं का प्रयोग किया । किन्तु व्यक्ति विशेष के लिए पत्र के रूप में अनेक भाषाओं का प्रयोग अभी तक देखने में नहीं आया, इस कारण यह कृति अत्यन्त महत्त्व की है ।
विक्रमनगरीयप्रधान श्रीआनन्दरामं प्रति वेनातटात् श्री रूपचन्द्र ( रामविजयोपाध्याय) प्रेषितम् नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् । ॥८०॥
स्वस्ति श्रीसिद्धसिद्धान्ततत्त्वबोधा (ध) विधायिने । अस्तु विद्याविनोदेनात्मानं रमयते सते ॥१॥ कृताधिवसति साधुः श्रीमद्वेनातटाश्रमे । षड्भाषो (षा) लेखलीलायां रूपचन्द्रः प्रवर्तते ॥२॥ अथाऽत्र पत्रोपक्रमे कविः सरस्वतीं सम्भाषते
स्वर्गाधिवासिनि सरस्वति मातरेहि, ब्रूहि त्वमेव ननु देवसदोविनोदम् । नाट्येन केन भगवान्मघवानिदान, सन्तुष्यति स्वहृदि भावितविश्वभावः ||३||
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अनुसंधान-२७
सरस्वती-वत्स ! श्रृणु
मध्येसुरसभं देवः कथारसकुतूहली ।
किञ्चिद्विवक्षुरखिला-मालुलोक सुरावलीम् ॥४॥ अथ समेऽपि समवहिता देवा देवपादाभिमुखं तस्थुः । देव :
भो भोः सुराः कलिरयं कलुषीकरोति, भूलोकमेतमिव सन्तमसं समस्तम् । तेनान्वहं सुकृतवर्म विहाय मोहात्,
सर्वत्र सम्प्रति विशो विपथं विशन्ति ॥५॥ सुरा :- सत्यं भाषन्ते देवपादाः, ओमिति प्रतिश्रृण्वन्ति । देवः पुनरपि
तत्रैव कुत्रचिदपि प्रतिपद्य दैवादेशं पदं कृतयुगं लभते त्विदानीम् । तस्याद्य मे वसति निर्णयमन्तरेण, श्लाध्यैरलं बहुरसैरपरैर्विलासैः ॥६॥
अथ सर्वेऽपि सुराः कर्णाकर्णि परस्परं मन्त्रयन्ति । स्वामी कृतयुगपदजिज्ञासुरस्ति । ततस्तदन्वेषणार्थमालोकितव्योऽस्माभिर्मर्त्यलोकः, तत्रापि मध्यदेशः । यतो वर्ण्यतेऽयं वृद्धैः ।
सुरगिरिरिव कल्पपादपानां, भवति नृणां प्रभावो महीयसां यः । विलसति खलु यत्र तीर्थमाता, जयति जगत्यनघः स मध्यदेशः ॥६॥ अतस्त्वरितव्यं तद्विलोकनाय ।
इति निष्क्रान्ता महितदेवा देव्यश्च ।
अथ दौवारिकः - जयन्तु भट्टारकाः ! (देवो नयन्ते(ने) न प्रतीच्छति)
दौवारिकः - देव ! मर्त्यलोकादागतः सुरगणो देवदर्शनाभिलाषी द्वारे
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March-2004
भगवदाज्ञां प्रतीक्षते ।
देवः - प्रवेशय आशु तम् । अथ दौवारिकः - सुरगणं प्रवेशयति । प्रविश्य,
सुराः - जयन्ति देवपादा ! इति कृताञ्जलिपुटा: भट्टारकं प्रणमन्ति । देवः - अस्ति स्वागतं सर्वसुपर्वणामिति हस्तविन्यासेन- सम
स्तानाश्वासयति । सुराः - स्वर्लोके चापि भूलोके पाताले वा सुपर्वणाम् ।
गतिरव्याहता देव ! तव व्याधाम तेजसा ॥८॥ स्मित्वा देवः - जलधरधाराधोरिणि संसेकोत्फुल्लनीपकुसुममिव ।
स्मेरवपुर्भवदीयं शंसति सत्कामसिद्धिमिदम् ॥९॥ गुरुः - अत्रभवद्भिः किमज्ञातमस्ति, तथापि किञ्चिन्नेत्रातिथीकृतं
वृत्तं देवपादानां पुरस्तात् सुराः पृथय(क) पृथय(क्)
रूपयितुमुत्सहन्ते । देवः - भवतु । गुरुः - नो प्राची दिशमासमुद्रमखिलाऽपाची प्रतीची तथो
दीची देव निरीक्ष्य देशनगरग्रामाभिरामां मुहुः । आलोक्याऽथ पुरं नु विक्रमपुराभिख्यं मरोर्मण्डले,
नित्योन्मीलनयोर्यथा नयनयोः साफल्यमाप्तं सुरैः ॥१०॥ देवः - सविस्मयम्, कीदृशं तत् ? कश्च तत्राचारः ? | गुरुः - राजन् ! यत्र सुजाणसिंहनृपतिर्धत्ते भवद्रूपतां,
श्रीजोरावरसिंहनामक इदंसूनर्जयन्तायते । देवौपम्यमहो वहन्ति सकला लोकाश्च यद्वासिन
स्तत्कि देवपुरेण विक्रमपुरं न स्पर्द्धते साम्प्रतम् ? ॥११॥ अथ देवो रवेर्मुखमालोक्य, ननु भो दिनपते !
गुरुणा मदुपमोऽयमभिहितो भूपः, प्रतिदिनं गगनं गाहमानेन भवताऽऽलोकितोऽपि किं न ज्ञापितः ? ।
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अनुसंधान-२७
दिनपतिः - सत्रपम्, स्वामिन् ! मत्सन्ततिगुणोत्कीर्तनं ममैव नोचितम्,
तथापि रहस्यमेतदेव । मदन्वये भूपतयो महान्तः, सन्तीह काले बहवस्तथापि । सुजाणसिंहाह्वयभूमिपाते, जाते तुं वंशं कलयामि धन्यम्
॥१२॥ अथ शशधरमुपसृत्य, दिनकरः - वयस्य निशापते । त्वमेव विस्तरेण देवपादानां पुरस्तत्कीत्तिं कीर्तय, भट्टारकाः श्रोतुमनासास्सन्ति । शशधरः - भवतु, स्वामिन् !,
भूपाला बहवो भवन्तु भुवने सूर्येन्दुवंशोद्भवा, ये न न्यायविदो न चापि निपुणा नाचारसञ्चारिणः । किं तैः कापुरुषैः कले: सहचरैर्भूभारभूतैः सदा, सत्येवाऽथ सुजांनसिंहनृपतौ राजन्वती भूरियम् ॥१३॥ निःस्वानेषु नदत्सु देशपतयो नश्येयुरस्याऽरयोऽरण्यं चैव विशेयुराशु चकिताः स्युः श्वापदौघास्ततः । ते किं त्वाधिवसेयुरित्यवनिकाक्षोभावनव्याकुला, दिग्यात्राप्रतिषेधमेवमनशे सन्त्यस्य दिग्दन्तिनः ॥१४॥ यो देवान् यजते प्रजाहितकृते वर्यान् द्विजान् वन्दते, धत्ते भक्तिमथाऽच्युते प्रतिदिनं सन्मानयत्यर्थिनः । साधूंस्तोषयति द्विषो दमयति क्षमापालमालेश्वरः,
सोऽयं श्रीमदनूपसिंहनृपतेः सूनून कैः स्तूयते ॥१५॥ देवः - कृतयुगप्रवृत्तिरेवाऽयम् । शशधरः - पुनः किम् ।
देवः - उर्वश्यभिमुखमालोक्य, आर्ये ! इत एहि । उपसृत्य
उर्वशी : - उवट्ठियाम्हि, अज्जा भट्टिणो किमाणविंति ?
देवः - आर्ये !, निर्जरसो जगत्कृत्ये नियोजयितव्याः सन्तीत्यत
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इमेऽधुना स्वास्थ्यं लभन्ताम् । भवत्येव सतन्त्र्या तत्रत्यवृत्ति
मधुरया प्राकृतगिराऽऽविःकरोतु । उर्वशी: - सामीणं आणा पमाणं, अह दाव सुणेह तस्सेव रण्णो
कुमारचरियं, मणहरसभियवयणो घणमित्तजुओ पत्तारगुम्महणो । सिर(रि)जोरावरसीहो जयइ कुमारो कुमारुव्व ॥१६॥
अथोर्वशी रति विलोक्य स्मित्वा च, जं दट्ठण सुरूवं अज्ज अणंगो किमंगवं जाओ ।
इय चिरविम्हियहियया रई ठिया तं अहिलसंती ॥१६।। विदूषकः - अह तत्थ रइदेवी एतेण सद्धि अहिलासाणं सिद्धिसंपण्णा ।
अहवा दलिद्दकलत्तपयं इमाए अवलद्धं । उर्वशी : - तुब्भेहिं चेव रई पडिपुच्छणीया । रतिरलज्जत ।
देवः - आर्ये ! पुनराख्याहि तच्चेष्टितम् । उर्वशीः - पमाणं सामी,
सो जयउ रायपुत्तो जस्स पसाया बुहाण गेहम्मि । जं सिरिसरसइवेरं भग्नं खलु चेगवासम्मि ॥१८॥ ईसरभत्ती हियए जस्स मुहे भारई करे लच्छी ।
सो लोआणंदयरो जयउ सया तत्थ जुवराया ।।१९।। देवः - आर्ये ! अयमपि सत्यवानुग एव ? | उर्वशी : - अह किं ? ।
देवः - आर्ये ! ब्रूहि, कस्तत्र प्रधानपुरुषो राज्यधुराधरणधौरेयः? । उर्वशी : - पसीयउ सामी !, मह सहीओ सूरसेणी-मागही-पिसाई
देवीओ भट्टिणो आलावपसायं संपेहिंते । देवः - भवतु,
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उपसृत्य सूरसेनी - सामिआ, इमाए सहीए सद्धि विक्कमनयरं पासिदूणाहं हरिसुक्करिसमुवगदा । इत्थ णं आणंदरामनामेणं रण्णो पहाणपुरिसो दट्ठो । अम्महे भयवं दाव तस्स लावण्णं किं भणेमि ? देव : - कीदृशोऽसौ ? । शूरसेनी
घडिदूण अज्जउत्तं एदं पुण अज्ज बंभदेवोवि । एदारिसं घडेदुं होत्था नोय्येव य समत्थे ||२०|| होज्जा कस्सवि जणओ जदि बंभो पुण सरस्सदी जणणी । तहवि हु न भोदि लोए वियक्खणो अस्स सारित्थो ॥२१॥
अथ मागधी: - हते ! उवलम | हगेय्येव एदश्शलूवं पलूवयिश्शं । शूरसेनी उपरमति ।
देव: - ब्रूहि मागधि ! तच्चरितम् ।
मागधी : - खलु शिलि शुयाणशिघश्श शामदाणेहिं भेयडंडेहिं । पञ्चे शच्चपदिञ्चे लज्जधुलं शुणिव्वहदे ॥ २२॥
तम्मि पुले शे लाया पुणो वि शे धम्मिए णिवकुमाले । शे तत्थ पहाणपुलिशे युत्तमिणं णिम्मिदं विहिणा ||२३||
अथ पिशाची : - हले ! उवलम, त ( तं) एतस्स फुत्थत्तनं न किय्यत्तो अहं य्येव चानामि ।
देव: - वद त्वमेव ।
पिशाची: - छहतलसनपलमत्थं यो वितति सत्थय निफल निऊन । अत्थप्पेलक्कलुई सच्चेमक्के पतंतेइ ||२४|| सच्चनलक्खनतक्खो समक्कफासालतो मतिमं ।
पहुलोकानंतकलो नत तुआ नंतलामोसो ||२५|
विदूषकः - ही ही ! इमाए मागहीपिशाईभगवदीए गिलविलरूवं वाणी
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महुरत्तणं अस्सुदपुव्वं मये सुणिदं । देवः - तर्हि अयमपि सत्ययुगानुवर्येवाऽस्ति । पिशाची : - अह किम् । उर्वशी : - ( इतोऽवलोक्य) हेजे, अवझसभासाविसारए ! तमवि
किं वुत्तकामा चिट्ठसि ? । चेटी : - हुं । उर्वशी : - सामी, एसावि भट्टिणो आलावपसायं ईहई ।
देवः - ब्रूहिचोटी : - रज्जपहाणमणीसि पुण जहां चउब्भुय धन्नु ।
मंतकरण जेस रूवु जहां धणरक्खणउ किसन्नु ॥२६॥ जहिं विक्कमणयरहि रहई, सुहु जण देवह जेम्वु । धम्मह केरी वट्टडी, हल्लइ अप्पण पेम्वु ॥२७॥ घरि घरि देवा पुज्जियई, घरि घरि दिज्जै(ज्जइ) दाणु । घरि घरि महिला सीलवइ, घरि घरि धम्मह ठाणु ॥२८॥ झल्लरि तूर झणक्कडा, हुंति विहाणह संझि । दिण दिण हल्लोहलि रहइ, देवल देवल मंझि ॥२९॥ विक्रमणयरह भत्तिडी, सग्गह मज्झि पलोइ । सग्गह केरी भत्तिडी, विक्कमणयरहिं जोइ ॥३०॥
इति उपरमति ।
अथ गुरु: - समसंस्कृतेन,
इदमेव नगरमरिबलतापविहीनं विसारिगुणपीनम् ।
नहि नहि पापाधीनं, भूयो भूयो वदामीनम् ॥३१॥ अथ देवः - (प्रसद्य) आलब्धमत्रैव कृतयुगसदमिति समाधाय देवनायको
देवविधेयान् साधयति ।
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इति रञ्जिता देवपर्षत् । राजश्चिरं जीव विधेहि राज्यं, चिरं महाराजकुमार ! जीव । आणन्दरामाऽन्वहमेव नन्द,
श्रीधर्मलाभं सततं वहस्व ॥३२॥ इति श्री नाटिकानुकारिषड्भाषामयं पत्रम् । लिखितं मार्गशीर्षासिततृतीयातिथौ १७८७ वर्षे ।
आनन्दरामस्य कुतूहला), भाषाश्च षट् तं प्रतिबोधनार्थम् । सर्वज्ञपुत्रत्वकवित्वसंज्ञोन्मादप्रमोदादहमप्यखेलम् ॥१॥
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कल्पव्याख्यानमांडणी ॥ भूमिका
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
जैन मुनिनी व्याख्यान-पद्धति एक रसप्रद विषय बने तेम छे. 'व्याख्यान' माटे मूल प्रयोजातो शब्द छे 'देशना'. श्रोताओना समूहने अपातो धर्म-उपदेश ते 'देशना'. 'व्याख्यान' एटले जिनभगवानना कहेला तथा गणधरोए रचेला सिद्धान्त-सूत्रोनी व्याख्या-विवरण. कालान्तरे सूत्र बोलतां जईने तेनो अर्थ, विविध सन्दर्भो टांकतां टांकतां, समजाववानी क्रियाने 'व्याख्यान'ना नामे ओळखवामां आवी. सारांश ए के जे प्रतिपादनमां सूत्र के शास्त्रनां वचनोनो आधार होय, अने ते वचनोना शब्दे शब्दना अर्थोद्धाटन के विवरण माटे, लोकभोग्य बने ते रीते पण, अनेक विभिन्न शास्त्रो तथा सन्दर्भोनो टेको लेवातो होय, अने ते प्रकारे शास्त्रना पदार्थो तथा धर्मनी वातो लोकहृदय सुधी पहोंचाडवामां-ठसाववामां आवती होय, तेनुं नाम व्याख्यान.
व्याख्यानमां मूळ सूत्र मुख्यत्वे प्राकृत-मागधी भाषामां बोलातुं. समर्थन माटे टांकवामां आवतां अवतरणो संस्कृत-प्राकृत आदि भाषानां रहेतां. अने तेनुं विवरण-विवेचन जे ते समयमां तथा स्थळमां प्रचलित लोक भाषामां - दा.त. गुजराती, अपभ्रंश वगेरेमां - थतुं.
मध्यकाल अथवा उत्तर मध्यकालमां, आ व्याख्यान पद्धतिने वर्णवनारी अनेक प्रतिओ लखायेली मळी आवे छे. 'सूत्र व्याख्यानपद्धति', 'मध्याह्न व्याख्यानपद्धति' वगेरे नामे ते उपलब्ध होय छे. ते प्रतिओनुं अवलोकनअध्ययन करतां, मध्य युगमां जैन मुनिओ केवी रीते व्याख्यान आपतां हशे तेनो अंदाज अवश्य मळी आवे छे.
अहीं ए प्रकारनी ज एक नानकडी कृति प्रस्तुत थाय छे : 'कल्पव्याख्यान-मांडणी'. भादरवा महिनामां, चातुर्मास रहेला मुनिओए, 'कल्पसूत्र'नुं वांचन करवानुं अनिवार्यपणे आवश्यक कृत्यरूप छे. हवे ते सूत्र गृहस्थ श्रोताओने अर्थ साथे संभळाववानुं होय छे, एटले श्रोताओने रस पडे अने
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कंटाळो न चडे ते रीते तेनुं व्याख्यान थq जोईए. आ कारणे ज, जेम अनेक विद्वान् मुनिवरोए सेंकडोनी संख्यामां कल्पसूत्रनी टीकाओ तेमज अन्तर्वाच्योनी रचना करी छे, तेम अनेक मुनिओए कल्पसूत्र पर बालावबोध के स्तबक (टबा) पण रच्या छे. अनी भाषा गुजराती के मारुगुर्जर प्रकारनी लोकभाषा होय छे.
प्रस्तुत कृति ए कल्पसूत्रनुं संस्कृत विवरण पण नथी के बालावबोध पण नथी. परन्तु, कल्पसूत्र ज्यारे वांचवानुं होय त्यारे तेनी भूमिका केवी रीते बांधी शकाय के बांधवी जोईए, तेनो एक सुन्दर नमूनो कर्ताए आ कृतिरूपे पेश कर्यो छे. तेमणे आजु नाम पण बहुज सार्थक आप्युं छे : कल्पव्याख्यान मांडणी : कल्पसूत्र उपर व्याख्यान करवा इच्छनारे तेनी मांडणी एटले के पूर्वभूमिका के पीठिका केवी, केवी रीते, बांधवी जोईए तेनी पद्धति.
तेमणे प्रारम्भ-श्लोकमां ज कारणमालागर्भित मुखडं बांधी दीधुं छे के लोको सुख इच्छे; सुख धर्मथी; धर्म ज्ञानथी; ज्ञान शास्त्राध्ययनथी; ने छेल्ले उमेर्यु के शास्त्रना त्रण प्रकार छे. आ श्लोक, भाषा-विवरण करतां तेओ धर्मशास्त्र एटले के कल्पशास्त्र सुधी पहोंचे छे, तेटलामां आठेक पद्योनां सार्थ उद्धरण आपीने प्रतिपादनने वजनदार अने रसिक बनावी मूके छे.
'कल्प' शब्द आवतां तेना अनेक प्रकारो दर्शावीने अहीं कल्पसूत्रनी ज वात- व्याख्यान करवान छे ते कहेवानी साथेज, आवा सूत्रने 'हूं वखाणिसू'- अर्थात् 'हुं आ सूत्रनुं व्याख्यान करीश' - एम कहेवामां पोतानी केवी धृष्टता तथा मूढता थाय-गणाय ते दर्शावे छे, अने पोते, आम छतां, आ व्याख्यान करी रह्या छे तेमां सद्गुरुनी तथा श्रीसंघनी कृपा ज मुख्य कारण छे तेम जणावीने पोतानी गुरुपरतंत्रता तथा संघाधीनता प्रगट बतावी दे छे. गुरुना तथा संघना महिमानुं वर्णन तथा पोतानी हीनतानुं वर्णन करवामां कर्ताए जे हृदयस्पर्शी वातो करी छे तथा उद्धरणो टांक्यां छे, ते अत्यन्त मननीय लागे छे. कुल मळीने प्रथम पद्यना विवरणमा १४ पद्यो तेमणे टांक्यां छे.
द्वितीय पद्यमां श्रीगौतमस्वामीनी वन्दनारूप मंगल आचरीने तेमणे
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पुर्वे थयेला महान् आचार्योनुं स्मरण-वर्णन कर्यु छे. तेमां प्रथम विभागमा गणधर सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभवसूरि, यशोभद्रसूरि, भद्रबाहुस्वामी, स्थूलिभद्रजी, आर्यमहागिरि, आर्य सुहस्ती, श्री वज्रस्वामी -- आटलां नामो जोवा मळे छे.
अहीं नोंधपात्र वात ए छे के आर्य सुहस्ती साथे जोडायेला राजा संप्रतिना वर्णनमां "जीणई सोल सहस्र प्रासाद करावी जिनमंडित पृथ्वी कोधी"- एवो उल्लेख छे. प्रचलित-परम्पराप्राप्त मान्यता अनुसार संप्रतिए सवा लाख मन्दिर बनावेलां. ज्यारे अहीं मात्र '१६ हजार' ज कह्यां छे. इतिहासनी दृष्टिए आ मुद्दानी छणावट - विचारणा थवी जोईए.
जा पछी पालित्ताचार्य तथा बप्पभट्टसूरिनां नामो आवे छे. अहीं पण एक ऐतिहासिक विसंगति जोवा मळे छे, ते ए के मुरंड राजानो सम्बन्ध बप्पभट्टिसूरि जोडे होवा- प्रसिद्ध छे, छतां तेनो सम्बन्ध पादलिप्ताचार्य साथे जोडी देवायो छे.
___ कालव्यत्ययनो दोष घणा आचार्योना सन्दर्भमां थयेलो जोवा मळे छे. जेमके वृद्धवादी, मल्लवादीने नागेन्द्रगच्छीय गणाव्या छे, तथा रत्नप्रभसूरिने बहु पछीथी नोंध्या छे. कर्तानो आशय इतिहासनी परम्परा नोंधवानो जराय नथी; तेमना मनमां महान् आचार्योनुं गुणवर्णन ज छे ते, अलबत्त, स्वीकारीने ज चालवू जोईए.
त्रीजा तबक्कामां, वायडा जिनदत्तसूरि, वेणीकृपाण अमरचन्द्रसूरि, नागेन्द्रगच्छे देवेन्द्रसूरि, शीलगुणसूरि, संडेरगच्छे यशोभद्रसूरि, विजयसेनसूरि, उपकेशगच्छे रत्नप्रभसूरि तथा सिद्धसूरि. दरेक आचार्यना नाम साथे तेमनी विशिष्टता पण कर्ताए नोंधी छे, जे मोटा भागे ऐतिहासिक छे.
__नाणावालगच्छना शान्तिसूरि, कोरंटगच्छे नन्नसूरि, भावडारगच्छे वीरसूरि, जवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि. अहीं अभयदेवसूरिना नाम पूर्वे 'खरतरगच्छे'
वो शब्द नथी ते खास सूचक तथा ध्यानार्ह गणाय. वास्तवमां 'खरतरगच्छ' एवं नामाभिधान बहु मोडुं थयुं छे, ते पण ऐतिहासिक तथ्य छे.
खरतरगच्छे जिनप्रभसूरि, कासहदगच्छे उद्योतनसूरि, बडगच्छे
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कपटाचार्य, मडाहडगच्छे चक्रेश्वरसूरि. आ तबक्कानां नामो साथे लखायेल बाबतो ऐतिहासिक अन्वेषणनी विशेष अपेक्षा राखनारी लागे छे. १. उद्योतनसूरिना प्रतिबोधित अरुणराजाए शत्रुजयपर्वत पर 'अरुणविहार' बनाव्यो, ते कयो ? क्यां ? क्यारे ? इतिहासमां तेनी नोंध केम नथी ? २. हूंबड एटले दिगम्बर एम आजे मनाय छे. वास्तवमां हूंबड ज्ञाति हती, ते परथी गच्छ पण थयो, अने ते श्वेताम्बरो पण हता, तेवं आना उल्लेखथी फलित थाय छे. ३. आर्य खपुटाचार्य नामना मान्त्रिक आचार्य थयेला, ते करतां आ आर्य कपटाचार्य जुदा होवार्नु मानवू ठीक लागे छे. अने जो ते तथा आ एक ज आचार्य परत्वे होय, तो कालव्यत्यय थयो गणाय. 'कवड' यक्ष साथेना सम्बन्धने कारणे कपटा(डा)चार्य नाम पड्युं होवू जोईए. ४. चक्रेश्वरसूरिए माणिभद्रयक्षने प्रतिबोध कर्यो, ते यक्ष अंगे पण शोध थवी आवश्यक गणाय.
___ पूर्णिमापक्षना धर्मघोषसूरि तेमना शिष्य सुमतिसूरिनी वात अनेरी वर्णवी छे. तेमणे कोंकण देशमा विहार करीने हजारो माछीमारोने प्रतिबोधी हिंसा छोडावी, १८ लाख मत्स्यजालो बळावी, ए एक अद्भुत घटना गणाय. छीपा लोकोने जैन बनावी 'भावसार' श्रावक बनाव्या तथा ते भावसारोए शत्रुजय पर 'मोल्हावसही' देरासर कराव्यानी वात पण जैन इतिहासमुं रोमांचकारी प्रकरण छे. छेवटे पिप्पलगच्छना धर्मदेवसूरिनी जिकर छे.
आगळ 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य'ना रचनार धनेश्वरसूरिनो उल्लेख छे. ते चित्रावालगच्छना हता. श्रीदेवधिगणिना सहयोगी धनेश्वरसूरि ते आ नथी, ते तो स्वयंस्पष्ट छे. ते जोतां 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य' १२मा शतकनी रचना होवानु,
आ उल्लेखथी सिद्ध थई जाय छे. 'बृहट्टिप्पनिका मां श. माहात्म्यने 'कूटग्रन्थ' तरीके ओळखाव्यो छे, तेनुं रहस्य बे धनेश्वरसूरिने एक मानीने प्राचीनना नामे ते ग्रन्थ मानी लेवायो हशे, ए ज जणाय छे. पण हवे, आ स्थाने प्राप्त स्पष्ट उल्लेख अनुसार, चित्रावालगच्छीय धनेश्वरसूरिनी ते रचना होवार्ने निश्चित थतुं होय, तो तेने 'कूटग्रन्थ' कहेवानी के मानवानी अगत्य रहेती नथी. छेल्ले पूर्णतल्लगच्छना श्रीहेमाचार्य, नाम-काम वर्णव्युं छे.
ते पछी कर्ता पोताना गच्छनी वात मांडे छे. ते गच्छ राजगच्छ, वृद्धगच् के वडगच्छना नामे जाणीतो छे, अने तेमां प्रसिद्ध मानतुङ्गसूरि तथा
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हरिभद्रसूरि थया छे, तेम कर्ता लखे छे. आ. मानतुङ्गना शिष्य आ. हरिभद्र होवा, कर्ता जणावे छे, तो ते १४४४ ग्रन्थ-प्रणेता हरिभद्राचार्य करतां भिन्न ज हशे. तेमनी परम्परामा क्रमशः सर्वदेवसूरि, वादी देवसूरि, अजितदेवसूरि, जयसिंहसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, रत्नसिंहसूरि थया छे. ते पछी थयेला विनयचन्द्रसूरिने वीसलदेवनी राजसभामां 'सिद्धान्ती' बिरुद मळ्यानी नोंध परथी ते गच्छर्नु नाम 'सिद्धान्तगच्छ' प्रसिद्ध थयुं हशे तेम मानी शकाय.
ते पछीनी परम्परामां शुभचन्द्रसूरि, नाणचन्द्रसूरि, अजितचन्द्रसूरि, सोमचन्द्रसूरि अने छेल्ले देवसुन्दरसूरि थया. कर्ता कहे छे के हुं ते देवसुन्दरगुरुनो शिष्य छु.
आ प्रमाणे महापुरुषोनां नामकीर्तन अने गुणस्तवनरूप भूमिका बांधीने हवे कल्प-व्याख्याननो आरम्भ करतां पहेलां पंच मंगलमय श्रीनवकारनुं सार्थ-संक्षिप्त वर्णन कर्ता करे छे, अने ते कर्या बाद तुरत ज कल्पसूत्रनुं वांचन प्रारम्भवाना संकेतरूपे अहीं कर्ताए सूत्रनुं एक वाक्य आलेखीने मांडणी समाप्त करी छे. - प्रान्ते लखेली पुष्पिका परथी सिद्धान्तीगच्छना गच्छपति देवसुन्दरसूरिना शिष्य मुनि देवाणंदे सं. १५७०मां पाटणमां आ प्रति लखी तथा रची होवार्नु सिद्ध थाय छे.
आ प्रति भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभाना ज्ञानभण्डारमां, क्र. ३५४ तरीके अने "आचार्योए करेला शासनोन्नतिनां कृत्यो" ए नामे विद्यमान छे. तेनी जेरोक्स नकल परथी आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. पत्रसंख्या ७ छे, तथा कर्ताना स्वहस्ते ज लखायेली जणाय छे. अक्षरो दिव्य छे, सुवाच्य छे, अने पडिमात्रावाळी लिपिमा लखाया छे. प्रतिनी नकल आपवा बदल ते सभाना कार्यवाहकोनो आभारी छु.
गद्यात्मक आ रचना भाषानी दृष्टिए अभ्यास करनाराओने पण उपयोगी थशे एवी आशा छे.
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कल्प-व्याख्यान-मांडणी ॥ ॥ १० ॥
सर्वो जनः सुखार्थी, तत् सौख्यं धर्मतः स च ज्ञानात् । ज्ञानं च शास्त्र( स्त्रा)धिगमात्, त्रिविधं शास्त्रं बुधाः प्राहुः ॥१॥ सहूइ एकेन्द्रिय आदि देई जीववर्ग सौख्य वांछड्, अनइ दुःक्खतु बीहइ। "सव्वे वि सुक्खकंखी, सव्वेविायादुक्खभीरुणो जीवा ।
सव्वे वि जीवियपिया, सव्वे मरणाउ बीहंति ॥" जीवितव्यसौख्य सहूइ वांछड् । तं सौख्य जीव धर्मतु पामइ । "यद्वन्न तृषाशान्ति-र्जलं विनाऽन्नेनानाक्षुधाहानिः ।।
जलदं विना न सलिलं, न शर्म धर्माद् ऋते क्वचित् ॥" विनय पाखें विद्याप्राप्ति नहीं । औषध पाखइ रोगशान्ति नही । सच्छंग पाखइ सद्बुद्धि नही । विवसाय पाखइ रद्धि नही । शुक्लध्यान पाखइ सिद्धि नही । तिम धर्म पाखइ सुख नही ॥
"जलेभ्यो जायते सस्यं, सस्येभ्यो जायते प्रजा ।
प्रजाभ्यो जायते धर्मो, धर्मान्मोक्षं च गच्छति ॥" प्रथम पहिलु मेघवृष्टि हुइ । पाणीयें करी तेहहुंती अन्ननी प्राप्ति हुइ। अन्नवृद्धि हुँती प्रजा सुखी हुइ । सुखहुंती धर्म चालइ । धर्मथिकी जीव मोक्ष पामइ ॥
"धर्मसिद्धौ ध्रुवा सिद्धि-घुम्नाप्रद्युम्नायोरपि ।
दुग्धोपलम्भे सुलभा, संप्राप्तिर्दधिसर्पिषोः ॥" जइ जीवप्राणी तणइं पोतइ पूर्वाभव(वो)पार्जित धर्म हुइ तु तेहना धर्म थिकी अर्थनी प्राप्ति नीपजइ । अर्थतु कामभोग पामइ । जिम पहिलं दुग्धनी प्राप्ति नीपजइ तु तेह दुग्ध थिकी दधि अनइ आज्य कहीइ घृत-अमृत ते सुप्राप्य नीपजइ जिम, तिम धर्मतु अर्थ, अनइ अर्थतु कामभोग लहइ । ते धर्म प्राणीआ प्रतिइं पंचविध ज्ञानतु हुइ ।।।
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"अज्ञानी यत् कर्म, क्षपयति बहुवर्षकोटिभिः प्राणी ।
तत् ज्ञानी गुप्तात्मा, क्षपयति उच्छ्वासमात्रेण ॥" अज्ञानी भणीइ अजाण, जं कर्म बहु घणी वर्षनी कोडिं करीनइ क्षिपइवेइ, ज्ञानवंत सविवेकपणइं तं कर्म एक उच्छासमात्रि एक क्षणमाहि क्षपइ, तेह कर्मनइ पेलइ पारि जाइ ।।
"सर्टि वासहस्सा, तिसत्त खत्तोदएण धोएण ।
अणचिन्हं तामलिणा, अनाणतवोत्ति अप्पफला ॥" तामल रिषीश्वरिई नदीतणइ उपकंठि साठि सहस वर्ष भिक्षा आणी २१ वार जल-पाणी-सूं धोई दस दिग्पालविभाग करी शेष थाकती आहार करइ हूंतइं जं तप आचरिउं, पुणि ते तप अल्पफल जाणिवू ॥
"तामलतणइ तवेण, जिणमइ सिझसि सत्त जन्न(ण) ।
अन्नाणहअ वसेण, तामलि ईसाणइ गयउ ॥" जं तपु तामलिरिषीस्वरिं अज्ञानपणइं कीधु, तीणि तामलरिषि ईशानबीजु देवलोक, जिहां २ सागरोपम अधिकेलं आयु तिहां गिउ । तु ज्ञानतणु एवडु महिमा छै । पंचविध ज्ञान शास्त्राधिगमतु ऊपजइ ।
"अलोचनगोचारेह्यर्थे, पुरुषाणां शास्त्र तृतीयं लोचनम् ।
अनु(न)धीतशास्त्रः पुमान्, चक्षुष्मानपि अन्ध एव ॥" जे अर्थ लोचनगोचरि-चक्षुमार्गि नावइं तेहरइं शास्त्ररूपीउं त्रीजउं लोचन जाणिवउं । जे शास्त्र न जाणइ ते देखतउ अंध जाणिवउ । शास्त्र तउ जाणीइ जु सद्गुरुतणा उपदेश सांभलीइ । सद्गुरुतणा उपदेश सांभल्या पाखइ जीव हित-अहित, आचार-अनाचार, क्रिया-कुक्रिया, मार्ग-कुमार्ग, पुण्य-पाप, कृत्यअकृत्य न जाणइ । ज्ञानना प्रमाणतु महापाप- करणहार दढप्रहाररिषि सिद्धि गयु । अल्पकालि अयमत्तउ ऋषीश्वर तथा गयसुकमाल ऋषि, मेतार्य ऋषि प्रभृति अनेक ऋषीश्वर बिहं घडी माहि आठ कर्म-अठावन सु प्रकृति क्षिपी मुक्ति पाम्या, ते विवेकतणुं प्रमाण । ते विवेक शास्त्र थिकी ऊपजइ । ते शास्त्र ३ प्रकारिः धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र । पुण ईहां हिवडां धर्मशास्त्रनुं अवसर । श्रीकल्पशास्त्र बोलीइ । कल्प अनंता छइ:- रैवतकाचलकल्प,
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अनुसंधान-२७
कदम्बगिरिकल्प, अर्बुदाचलकल्प, औषधीकल्प, मणिकल्प, दीपालिकाकल्प, ईणइंअइं अनेकविध कल्प छइं । जीह कल्पतणा प्रमाण एवडा श्रीपादलिप्ताचार्य समान गणधर पंचतीर्थी देव नमस्करी आवतां । एक कल्प इस्या नीपजइं, जीह लगइ अद्रश्यकारणी रूपरावर्तनी विद्या, सुवर्णसिद्धि, रूपसिद्धि, लक्ष्मी, पुत्र, मित्र, कलत्र, बांधव, स्वजन सौख्य पामीइ । एवंविध अनेकप्रकारि इहलोकसंबंधीया कल्प नीपजइ ।
आउ कल्प दशाश्रुतस्कन्ध सिद्धान्ततणुं आठमुं अध्ययन । अमेयमहिमानिधान, इहलोक-परलोक सौख्यदान हेतु, तेह श्रीकल्प इम को न कहइ, जे हुं वखाणिसु ।।
"सरिसा(शिरसा) गिरि बिभित्सेदुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोाम् । प्रतिशी(ती)चेच्च समुद्रं मतः सि च पुण कुशाग्रेण (?) । व्योम्नीन्दुं चक्रमिषेत्?]मेरुगिरिं पाणिना कंठयषेत् (?) । गत्याऽनिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ खद्योतकप्रभाभिः सोऽपि बुभूषेच्च भास्करं मोहात् ।
ज्योतिर्महागूढार्थं (योऽतिमहागूढार्थ) व्याचिख्यासेच्च जिनवचनम् ॥" मस्तकि करी जे पर्वत भेदिवा वांछइ, अनइ आपणि बिहु भुजि करी पृथ्वी ऊपाडिवा वांछइ । लवणसमुद्र २ लक्ष योजन प्रमाण तरिवा वांछइ, अनइ आकाशथिकुं इंदुमंडल चलाविवा वांछइ । पाणि-हस्ति करी लक्षयोजन देवकां मेरुपर्वत कंपाविवा वांछइ । आपणी गति करी वायु-रहइं जीपिवा वांछइ । असंख्यातां योजन स्वयंभूरमण समुद्र आपणी तृषां करी पीवा वांछइ । खजूआनी कांति भानु-भास्कर-जगच्चक्षु पाराभविवा वांछइ । ते ए गूढार्थ जिनवचन महामोहतु इम कहइ - 'हूं वखाणिसु' ॥ ___एह श्री कल्पतणी वाचना बोली तु हुं छद्मस्थ मंदबुद्धि अज्ञान मूर्ख महाजडशरोमणि हुंतउ सभासमुक्ष्य दक्ष थई करी बइसउं, एइ श्रीकल्पसूत्रतणी वाचनानुं साहस करूं, तेह सद्गुरुतणु प्रसाद अनइ चतुर्विध संघतणउं सानिध्य जाणिवउं । स्या कारण ?
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"ये मज्जन्ति न मज्जयन्ति च परास्ते प्रस्तरा दुस्तरा वार्डों वीर ! तरन्ति वानरभटानु(उ)त्तारयन्ति(न्ते) परान् । नावा ग्रामगुणा न वारिधिगुणा नो वानराणां गुणाः
स्फूर्जद्दाशरथेः प्रभावमहिमा सोऽयं समुज्जृम्भते ॥" शास्त्रमाहि एकांतपक्षि अनि प्रत्यक्षानुमानि करी पाषाण बूडई अनइ अनेरारइं बोलई । पाषाण, ए गुण । एस्या महामोटा पाषाण श्रीरामदेवतणे वानरे समुद्रमाहि मूंक्या हूंता तरइं । सेतुबंध प्रत्यक्ष आज लगी दीसई सांभलीइं । तेउ ते पाषाणतणउ को गुण न जाणिवउ, समुद्रतणउ को गुण न जाणिवउ, अथवा वानरतणउ को गुण न जाणिवउ । ते गुण श्रीरामदेवतणुं भाग्यनु जाणिवउं ।
तिम हुं पाषाणसिरीखु महामूर्ख जड हूंतउ एह श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करउं, ते माहरु को गुण न जाणिवउ, सभा शालातणउ को गुण न जाणिवउ। ते गुण सद्गुरु अनइ श्रीसंघतणउ जाणिवउ । तउ ते सद्गुरु अनइ श्रीसंघतणइ प्रसादि एह श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करउं । अनइ इणइं स्थानकि ईणइं क्षेत्रि अनेकि गणधर, संपूर्ण श्रुतधर महाव्याख्यानी नवरसावतार व्याख्याण करणहार, तेहइ वखाण करई, श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करई । अनइ हूंइ ते श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करउं ।
___ "टोलो रुलो रुलंतो अहीयं विन्नाणनाणपरिहीणो ।
दिव्वव्व वंदणिज्जो कीउ(ओ) गुरुसुत्तहारेण ॥"
जिम टोल पाषाण रुलतउ हूंतउ, ज्ञानविवर्जित हूंतउ आणिउ । तेहतणी प्रतिमा कीधी । गुरु तणे वचने श्रीसंघ विधिमार्गि प्रतिष्ठित कीधी हूंती देवतणी प्रतिमा हुई । सविहुं रहइं माननीय । तिम हूं संघतणइं प्रसादि माननीय हुइसु । जिमतिम गुरुआतणे स्थानकि कांई एक वचनमात्र बोलिउं ते श्रृंगारभूत प्रवर्तइ । - "सर्वत्र महतां नामोच्चाराद् भवति गौरवम् ।
लभते भव्यभोज्यानि शुको राम इति ब्रुवन् ॥" सर्वत्र-सघलइ गुरुआतणा नामोच्चार मांगलिक्य तणइ अर्थि संपजइ ।
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अनुसंधान-२७
'शुको राम इति ब्रुवन् भव्यभोज्यानि लभते' । शुक-सूडउ 'राम' ए इस्या अक्षर उच्चरतु हूंतु भव्य भोज्य लहइ । रामतणउं अभिराम नाम उच्चरतु हूंतु तेहतणी भक्ति निर्भर हूंतां तेहतणी प्रतिपालना करई । तुं हूंइ पुण्य गुरुआतणां नाम उच्चरतुं हूंतु स्तुति करतउ हूंतउ माननीय हुइसु ।
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गौतमं तमहं वन्दे यः श्रीवीरगिरा पुरा । अङ्गमय प्राप्य सद्यश्चक्रे चतुर्गुणाम् ॥१॥
अहं तं गौतमं वन्दे यः श्रीगौतमः श्रीवीरात् अङ्गत्रयं प्राप्य सद्यस्तत्कालं चतुर्गुणां(णं) चक्रे - कृतवान् ।
ते श्रीगौतमस्वामि प्रथमगणधर लब्धिधर श्रुति (त) केवलधर वांदूं नमस्करूं | जीणइं श्रीगौतमस्वामि श्रीवर्द्धमानतणी गीर्वाणीजभणित भांडागार अंगत्रयरूप पामी सद्यस्तत्काल चतुर्गुण उद्धार द्वादशांगी बारगुणड कीधउ । ते श्रीगौतम आदि देई ११ गणधर हूआ ।
५ गणधर श्री सुधर्मस्वामि, तेहनी आज लगइ संतति- शाखा प्रसरणशील दीसइ छइ || तेहनउ शिष्य श्रीजंबूस्वामि, मुक्तिरूपिणी नायकातणइ कारण आठ कोडि संयुक्त ८ कन्या नवपरणीत छांडी । श्रीजंबूस्वामि पूठिइं भरतक्षेत्र कोइ मुक्ति न गउ || तिवार पूठि श्रीप्रभवस्वामि ॥ तेहना शिष्य श्रीशज्जंभवसूरि मणकपिता । अ ( आ ) पणा पुत्रतणउं छ मास आयुकर्म जाणी श्रीदशवैकालिक ग्रंथ उद्धरिउ ॥ तत्पट्टे श्रीयशोभद्रसूरि ॥ तत्पट्टे भद्रबाहुस्वामि हूआ । जीणइ दस नियुक्त (क्ति) ग्रंथ कीधा ॥ तत्पट्टे दशपूर्वधर दूष्कर दूष्करकारक श्रीस्थूलभद्रस्वामि हुआ । श्रीनेमिनाथ गिरनार पर्वत गढ बल प्राण लेई राजीमती परहरी । पणि जीणई श्रीस्थूलभद्र कोशावेश्यागृहांगणि चतुर्मासिक रही, नययौवन नवरस षटरस भोजन बारवरसु प्रेम चित्रसाली सुखशय्यासंवास, इसिइ मोहिकटकि पइसी अंगोअंगि भिडी ते पापपंकि न च्छीतु, मदनकंदर्प जीतु ॥
तत्पट्टे आर्य महारषि (गिरि), जीण गिउ जिनकल्प उद्धरिउ ॥ तत्पट्टे आर्य सुहस्ति । द्रमकु दीक्षित, जे ऊजेनीनगरीइं संप्रति राजा हुआ । जीणई सोलसहस्त्र प्रासाद करावी जिनमंडित पृथ्वी कीधी ॥ तदनु श्री वइरस्वामि, जीण बौधदेशि पर्युषणापवि आविड़ हूंतइ श्रीसंघतणउ मनोरथ पूरिउ, जिनशासन
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गहगहाविउं, प्रभावना कीधी ॥ तदनु श्रीपालिताचार्य, जीणई मुरंडराजा प्रतिबोधिउ । लेपतणइ प्रमाणि श्रीशत्रुंजयप्रभृति पंचतीर्थी देव नमस्करता ॥ तदनु श्री बप्पभट्टसूरि । जीणई आमराजा प्रतिबोधिउ ||
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श्रीवृद्धवादि, मल्लवादि नागेंद्रगच्छि || वायडज्ञाति श्रीजिनदत्तसूरि, जेहनइ परकायाप्रवेशिनी विद्या हूंती मूई गाई जीवाडी | तेहना शिष्य अमर, वेणीकृपाण सिरीखा हूआ । जीणई कविशिष्या (क्षा) प्रभृति महाग्रंथ कीधा । नागेंद्रगछि श्रीदेवेंद्रसूरि हुआ, जीणई एकरात्रिमाहि व्यंतर पाहि सेरीसानुं प्रासाद श्रीपार्श्वनाथनुं कराविउ । नागेंद्रगछि श्री शीलग (गु) णसूरि हूआ । चाउडा वणराज प्रतिबोधकारक ॥ संडेरगच्छि श्रीयशोभद्रसूरि हूआ, जीणे राजा मूलदेव प्रतिबोध्या || श्रीवस्तपालमंत्री श्वरगुरु श्री विजयसेनसूरि हूआ || उपकेसि गच्छि श्रीरत्नप्रभसूरि हूआ, जेहे ऊएसइ महास्थानि अनइ कोरंटि महास्थानकि एकइं अंशि प्रति प्रतिष्ठा कीधी । शचीआवि साचइ धर्मि आणी ॥ तत्पट्टे सिद्धसूरि हूआ ||
नाणावालगछि श्रीमौनी शांतिसूरि हूआ, जेहे रोहेडइ ब्रह्मस्थानि रही ४ वेद वखाण्या ॥ कोरंटगछि श्रीनन्नसूरि हूआ || भावडारगछि श्री वीरसूरि हूआ, जेहे कल्याणकटकि नगरि परिमाडि राजा प्रतिबोधी १८ हाथीनी गजथय आणी ॥ नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरि हुआ, जेहे थांभणइ श्रीपार्श्वनाथनी प्रतिमा स्तवी धरणेंद्र प्रत्यक्ष करी आपणु रोग फेडिउ ॥
खरतरगच्छ श्री जिनप्रभसूरि हूआ, जेहे पातसाह महिमूद अनेकि संकेति करी धर्मपरायण कीधु, श्रीजैनप्रासाद अनइ सिवप्रासाद कराव्या प्रगट || श्री कास [ह] गच्छि श्रीउज्जोयणसूरि हूआ, जेहे अरुण राजा प्रतिबोधी अरुणविहार कराविउ सेत्तुंज ऊपरि ॥ तथा हूंबडगच्छि आर्य क (ख?) पटाचार्य हूआ, जेहे कवडयक्ष प्रतिबोधिउ, विद्यासिद्ध हुआ || तथा मडाहडगच्छि श्रीचक्रेस्वरसूरि हूआ, जेहे मडाहड देशि माणिभद्रयक्ष प्रतिबोधि च्यारि नियम दीधा । तदन्वये बइसणां ५ हूआ ||
श्रीपूर्णिमापक्षे श्रीधर्मघोषसूरयः ॥ तेहनइ पाटि सुमतिसूरि हूआ । जीणई ४ शाखा पांचमा प्रधान स्थापना कीधी । कुंकणदेसि १८ लाख जाल बाल्या । जीवदया पलावी । दस सहस्र छीपा प्रतिबोधी भावसार श्रावक
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अनुसंधान-२७ कीधा । तीहतणी मोल्हावसही श्रीशत्रुजय ऊपरि प्रसिद्ध । पिप्फलगच्छि श्रीधर्मदेवसूरि हुआ, जेहे राजा सारंगदेवना ३ भव कह्या, त्रिभवीया बिरद हूउं । अनइ कांचनबलाणाहूंती स्तुति आणी ॥ ईणी परि गच्छि गच्छि अनेक प्रभावक हूआ ॥
चित्रावालगछि श्रीधनेश्वरसूरि हुआ, जेहे चैत्रइ महानगरि १८००० सहस्र ब्राह्मण प्रतिबोधी श्रीमहावीरनुं प्रासाद कराविउ । अढार धडनी सुवर्णमय श्रीमहावीरनी प्रतिमा करावी, स्थापी । १८ पदस्थापना कीधां । शत्रुजयमहात्म्य कर्ता ॥ पूर्णतिलइगच्छि श्रीदत्तसूरिनइ संतानि श्रीहेमसूरि कलिकालसर्वज्ञावतार श्रीहेमसूरि हूआ । जेहे जीणइं राजा श्रीकुमारपाल प्रतिबोधी चऊदसई ४४ प्रासाद कराव्या । अमारि वर्तावी । ३ कोडि ग्रंथ नवा कीधा । इम अनेकि प्रभावक गच्छिगच्छि हुआ ॥
आत्मीय श्री वडगच्छतणी वर्णना कीजइ । श्रीवृद्धगच्छो महिमानिधानः, सिद्धान्तसारस्य वर प्रधानः ।
श्रीमानतुङ्गस्य वरं प्रदत्ते, तस्मि(स्या?)न्वये राजति राजगच्छः ॥ ईणइ वडगच्छि श्रीमानतुंगसूरि, जीणइं भक्तामर काव्य कीधउं । जिनशासन गहगहाविउं । तत्पट्टे श्रीहरिभद्रसूरि, जीणइं बौध जीता ॥ तत्पट्टे श्रीसर्वदेवसूरयः ॥ तेहनइ पाटि श्रीदेवसूरि, जीणई कम (कुमुद)चंद्र क्षपनक जीतु, ८४ वाद जीता ॥ तत्पट्टे श्रीअजितदेवसूरि ॥ तत्पट्टे श्री जयसिंहसूरि ॥ तत्पट्टे श्रीनेमिचंद्रसूरि ॥ तत्प० श्रीमुनिचंद्रसूरि ॥ त० श्रीरत्नसिंहसूरि, जीणइं अढारसु देस प्रतिबोधी १३३ प्रसाद कराव्या ॥ त० श्रीविनयचंद्रसूरि, जीणइं राजा श्रीवीसलदेव प्रतिबोधी षट्दर्शनस्यूं वाद देई 'सिद्धांती' बिरद लाडूं ।। त० श्री शुभचंद्रसूरि । श्रीनाणचंद्रसूरि । श्रीअजितचंद्रसूरि । श्री सोमचंद्रसूरि ।। तत्पट्टे श्रीदेवसुंदरसूरि जयवंता वर्तु । तेहतणो शिष्य हूं जाणिवु ॥
___एतलइ वडातणा नामोचार हुआ । हवइ अमुकज्ञातीय अमुकातणी अभ्यर्थनाई करी कल्पवाचना कीजइ । अनेरु जि को ग्रंथ प्रारंभई तिहा समुचित द्रष्ट समुचितेष्ट त्रिधा देवतारहई नमस्कार करइ । ईहां मोक्षशास्त्र भणी समुचितेष्ट पंचपरमेष्टि नमस्कार संक्षेपतु वखाणी छइ ॥
"नमो अरिहंताणं ॥"
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अरिहंतरहइं नमस्कारु । भावारिहंत, नामारिहंत, अतीत अनागत वर्तमान, पनर कर्मभूमि-मध्यस्थित जे अरिहंत, तेहरई नमस्कार ॥
"नमो सिद्धाणं ॥"
सिद्ध छई जि पनरभेदि, ते सिद्ध सामान्यकेवली मुक्तिपदप्राप्त, तेहरइ नमस्कार ॥
"नमो आयरियाणं ॥"
आचार्य जे चौद पूर्वधर गणधर श्रुतज्ञानी अग्यार अंगतणा जाण अनंत सिद्धांततणा आचार कहणाहार गच्छभारधुरंधर जिनशासनमंडपस्तंभ अदंभविवर्जितारंभ वैराग्यरसकुंभ इस्या छई जि आचार्य, तेहरहइं नमस्कार ॥
"नमो अवज्झायाणं ॥"
उपाध्याय ते कहीइं जे आचार्यपदयोग्य पाउ द्वादशांगी भणावई । आपणपे भणइ । ते उपाध्यायरहइं नमस्कार ||
"नमो लोए सव्वसाहूणं ॥"
लोक कहतां हूंतां चौद रज्ज्वात्मक लोक, तेहमा अष्टदश सहस्र शीलांगधरधारक, सर्वसावद्ययोगनिवारक, तपक्रियानिर्मलीकृतगात्र, चारित्रपात्र, दांत, कांत, बावीस परीषह सहनशील, गणि करी धीर, निर्मल चारित्रमार्गतणा पालणहार शुद्ध, बइत्तालीसदोष करी विशुद्ध, अविरुद्ध आहार लेणहार, इस्या छंई जे महात्मा, पंचासाम(मि)ति सम(मि)ता, त्रिहु गुप्ति गुप्ता, ऋषिराज एवंविध साधुमहात्मा, तेहरहई नमस्कार ॥
"एसो पंचनमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो । ___ मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ॥१॥"
इसिउ पंचपरमेष्ठि-नमस्कारु सघलाई पापनु प्रणाशन करणहार, मांगलिक्य सवि हु माहि एह श्रीकल्पसूत्रतणइ प्रारंभि पहिलु मांगलिक्य नीपजउ॥ एतावता पंच परमेष्ठि नमस्कारतणुं संक्षेपि करी व्याख्यान कीधुं । हिव ते श्रीकल्पसिद्धांततणउ प्रथम आलापक ग्रंथकार कुणइ प्रकारि भणइं॥ सिद्धांत आरंभणुं :
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अनुसंधान-२७ __ "ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था । तं जहा- हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वकंते ॥"
संवत् १५७० वर्षे ज्येष्ट वदि ७ गुरु श्रीपत्तने श्री श्रीसिद्धांतीगच्छे प्रभ(म)पूज्य गच्छाधिराज श्री श्री श्री ४ देवसुंदरसूरि तशिष्य मुनिदेवाणंद लषितं ॥ आत्मार्थेन ॥ श्री ॥
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. लाभोदयरास । वाचना बीजी ॥
भूमिका
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
अनुसन्धान-२५मां (September 2003) पृ. ६२-७३ 'लाभोदयरास' प्रकाशित थयेलो. ते रासनी आधारभूत प्रति त्रुटित-त्रुटक होई ते अधूरो ज छपायो छे. सद्भाग्ये ते रासनी वधु एक प्रति जडी आवी छे, जे अत्रुटितसंपूर्ण वाचना धरावे छे, उपरांत, केटलाक महत्त्वना पाठभेद पण आपे छे. आ कारणे ज, आ बीजी प्रतिनी वाचना साद्यन्त सम्पादित करी अत्रे आपवामां आवे छे, जेथी अभ्यासी जनोने तुलना करवानुं सुगम थशे.
१. सौ प्रथम जे अंशो पूर्व-सम्पादनमां नथी, पण आ नवीन सम्पादनमां छे, ते अंशोनी नोंध जोईशं. आ माटे समजवान सुगम पडे ते हेतुथी पूर्व सम्पादनने ‘ला.१' तरीके तथा आ नवीन सम्पादनने 'ला.२' तरीके ओळखीशुं.
(1) ला. १मां अंक-संख्या-अनुसारे ९० कडी छे, तो ला.२मां १४४ कडी छे. (2). ला. २ प्रमाणे कडी क्र.८, कडी क्र. ४६-९४, कडी क्र. ११४-१२३, कडी क्र. १४२-४४, आटली कडीओ ला.१मां नथी. (3) तो ला.१ गत कडी १०३-४ तथा कडी ११९-२३, आ कडीओ ला.२मां नथी. (4) ला.१नी कडी १० (ला.२मां ११)नुं त्रीचरण; कडी ३४ (ला.२मां ३६)नुं त्रीजुं चरण; कडी ९५ (ला.२,मां ९५)मा पूर्वार्ध-पश्चार्धनो व्यत्यय; कडी ९६ (बनेमां) नो उत्तरार्ध; कडी १०३ (बन्नेमां)मां बे पंक्तिनो उत्तरार्ध तथा तेनी प्रथम पंक्ति; कडी ११४ (ला.२मां ११३)मां उत्तरार्ध; कडी १२६ (ला.२मां १२८)नो पूर्ण पाठ; आ बधामां जे सुधारा, उमेरा, फेरफार छे, ते बन्ने वाचनाओ साथे सामे राखवाथी समजी शकाय तेम छे. तो कडी ३२ (ला.२मां ३३) नवी वाचनामां सुग्रथित तथा पूर्णरूपे जोवा मळे छे. (5) ला.१ नी वाचनामां 'ढाल'ना रागो नोंधाया नथी, जे ला-२नी वाचनामां जोवा मळे छे.
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अनुसंधान-२७
(6) ला.१नी भूमिकामां आ रासना रचनासमय विषे अटकळ करतां नोंधेलु के 'छतां तेनी रचना विजयसेनसूरिमहाराजनी विद्यमानतामां ज थई होय, अथवा तो आ समग्र घटनाक्रमना कर्ता स्वयं साक्षी पण रह्या होय अने तेमणे आंखे देख्यो हेवाल आ रासरूपे लख्यो होय, तेवी शक्यता वधु लागे छे.'- आ नोंध ला.२नी वाचना द्वारा प्राप्त निम्नांकित पंक्तिओ जोतां यथार्थ होवानुं सिद्ध थाय छे. कर्ता रासनुं समापन करतां लखे छे के
आगरइ सहइरि श्रीपासपसाउलइ संवत सोल उगणपंचासइ । कल्याणकुशल गुरुराज कल्याणकर
सीस दयाकुशल मनिरंगि भासइ । अर्थात् आगरा शहेरमां संवत १६४९मां दयाकुशले आ रास रच्यो छे. विजयसेनसूरिनो शाह पासे जवा-रहेवानो समय पण आ ज छ; अने कवि ते वखते तेमनी साथे होवा जोईए. 6 (7) ला.१मां जे अंश नथी, ते अंश ला-२ मां मळवाथी खूटती विगतो जाणी शकाय छे. ते आ प्रमाणे :
शाहनो संदेशो (आमंत्रण) आव्या पछी गुरु-शिष्य (विजय हीर, विजयसेन) एक स्थाने बेसीने चर्चा करे छे. तेमां शिष्यनी गुरुने मूकीने जवानी अनिच्छा, गुरुनी मोकलवानी भावना, अने शिष्यनी गुरुवचनने न उत्थापवानी तत्परता एकदम अल्प शब्दोमां ज ध्वनित थाय छे. (कडी ४७४९). विजयसेनसूरिनुं मूळ नाम जेसींग-जयसिंह हतुं, तथा गुरु हमेशां तेमने 'जेसींग'ना लाड-नामथी ज बोलावता, तेथी कविए पण आ तबक्के तेमने ते नामे ज वर्णव्या छे. विजयसेनसूरिए विहार कर्यो त्यारे थयेलां शुभ शकुनोनुं वर्णन (५०-५२) वास्तविक लागे तेवू छे. आने मळतुं वर्णन 'विजयप्रशस्ति' काव्यमां पण जोवा मळे छे.
आ पछी तेमना विहारक्रमनुं वर्णन ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वनुं छे. तेओ कया मार्गे चाल्या, ते खास जाणवालायक छे. राधनपुरथी शंखेश्वर, पाटण, सिद्धपुर, मालवणी, रोह-सरोतरना मार्गे आगळ वधतां मुण्डस्थल,
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कासींद्रा थईने तेओ आबू पर्वते आव्या छे. त्यांथी सीरोही गया. वाटमां सरोतर (सरोत्रा?)मां सहस्रार्जुन नामे भील राजवीए गुरुनी स्वागता करी हती, तो सीरोहीमां देवडा राये सरभरा करी हती. आ पछी तेओ सादडी आवे छे, तेना प्रयोजनमां कवि कथे छे के 'संसारीआ वंदाववा' अर्थात् पोतानां संसारी स्वजनो खातर तेओ सादडी (अथवा सादडीना रस्ते) आव्या छे. अने त्यां निडोलाई-नाडलाईनो-तेमनी जन्मभूमिनो संघ पण आव्यानो निर्देश थयो छे.
सादडीथी राण(क)पुरनी यात्रा करतां नडूलाई पहोंच्या. अत्यार सुधी (राधनपुरथी?) साथे आवेल 'गूजरात'नो संघ (श्रावको) गुरुनी अनुमति लईने पाछो फरे छे (कडी ६०), तेनो उल्लेख खूब रसप्रद छे. त्यांथी बांतावगडीमां थई जैतारण, केकिंद अने मेडता पधार्या. मेडतानो संघ तथा त्यांना राठोड सामा आव्या, अने नगरमां पधार्या पछी श्रावकोए खूब उत्सव ने भक्ति कर्यां. श्रावको तरीके सचीआदास, नरायणा तथा रूपसी-ए ३ नाम (कडी ६३) नोंधेल छे. त्यांथी महिमामेर, सांगानेर थई वैराट नगरे आव्या. त्यां विमलनाथ जिननुं देरासर होवानो तेमज भारमल्ल इन्द्राज नामे गुरुभक्त (राजा) होवानो उल्लेख (कडी ६५) महत्त्वनो छे. त्यांथी विक्रमपुर (बीकानेर) आव्या. त्यां पण इंद्राज (राजा) वंदे छे.
त्यांथी महिमानगर आवतां त्यां रहेला पंडित रंगकुशल मुनि आवीने गुरुने भेटे छे (गडी ७०). त्यांनो खोजो (गामनो मुखी होवो जोईए) पण घणी आवभगत करे छे (कडी ७१). अहीं लाहोरथी कल्याणशाह श्रावके आवी गुरुने वंदन कर्यां छे. पछी गुरु खानपुर आवतां लाहोरनो संघ सामो आव्यो हतो. आ खानपुर ए लाहोरनुं शाखापुर होय एवी शक्यता वधु जणाय.
___पछीनी ढालमा सामे आवेलो संघ, गुरुनी पधरामणीना हर्षमां, शुं शुं लाव्यो छे तेनुं विगते वर्णन छे, जे काल्पनिक-अवास्तविक न होतां ऐतिहासिक तथ्यात्मक छे. ते काळे गुरुनुं स्वागत आवा अनेक प्रकारोथी थतुं. संघ उपरांत शेषजी एटले शेख अबुल फजल, शाहजादा, खानसाहेबो तथा राजा-राणाओ पण गुरुने सामैये आव्यानो उल्लेख आमां जोई शकाय छे (८०). आखी ढालमा स्वागत-सामैया, हू-ब-हू वर्णन थयुं छे.
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अनुसंधान - २७
( 8 ) आ पछी ११४ - १२३ कडीनो त्रुटित अंश ला. २मां प्राप्त थयो छे, ते जोईए. आ अंशमां, गुरुनी विरुद्धमां ब्राह्मणादिए शहेनशाहनी कानभंभेरणी करेली अने सूर्य तथा गंगा विषे शाहना मुखे प्रश्नो गुरुने पूछावेला, तेनो प्रत्युत्तर जे गुरुए आप्यो, अने ते थकी शाहने समाधान थतां विरोधीओनो जे पराभव थयो, तेनुं बयान मळे छे.
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कडी १२६ - २९मां नगरठठा, सिंध, कच्छ-ए देशोमां चोमासामां मच्छीमारी न थाय तेवुं फरमान शाहे गुरुने आप्यानो उल्लेख छे. साथे गोवंश तथा अन्य प्राणीओ माटे अमारि - फरमान, मृतकवेरानुं निवारण तथा कोईने केदखानामां न नाखवानो हुकम पण शाहे आपेल छे. तो ते पछीनी ढालमां शाहे गुरुना उपदेशथी करेलां अहिंसाप्रधान सत्कार्योनी नोंध पण जोई शकाय छे.
( 9 ) समस्या एक ज छे के ला. १मां (कडी ११९-२३) शेखनी प्रार्थनाथी गुरुए उपाध्यायपद आप्यानो उल्लेख छे, ते आ ला. २नी वाचनामां केम नथी ? ला. १ गत कडी ११९-२० आ प्रमाणे छे :
शेषजी श्रीगुरुकुं कहइं, भलशिष्य तुहीरा भाण । मलेच्छ करें डेकाविली, सो किआ चतुर सुजाण ॥ गुरु का हमारा कीजइ, उपाध्याय पदवी दीजइ ॥
(ला. १नी भूमिकामां “केटलाक खास मुनिवरोने उपाध्याय पद" आवुं विधान छे ते बराबर नथी; भाण एटले भानुचन्द्र गणिने ज पद आपवानी वात छे).
आ घटना ऐतिहासिक छे. 'हीरसौभाग्य' ( सर्ग १४) मां आ घटनानो आ प्रमाणे उल्लेख थयो छे :
श्रीमत्सूरिवरो व्यधत्तं वसुधावास्तोष्पतेराग्रहे
गोपाध्यायपदस्य नन्दिमनघां श्रीभानुचन्द्रस्य सः ।
शेखो रुपकषट्शर्ती व्यतिकरे तत्राश्वदानादिभिभक्त: श्राद्ध इवार्थिनां प्रमुदितो विश्राणयामासिवान् ॥ २९२॥
अर्थात् बृहस्पतितुल्य शेखना आग्रहथी सूरिजीए श्री भानुचन्द्रजीने नन्दि (नाण) पूर्वक उपाध्याय पद आप्युं, अने ते प्रसंगे शेखे ६०० रुपियानो
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सद्व्यय, अश्वदान वगेरे करवा द्वारा, एक भक्त श्रावकनी जेम को.
मूळे हीरविजयसूरिए तो अगाऊ ज तेमने 'उपाध्याय' तरीके जाहेर करेला, परंतु नन्दि अने वासक्षेपदाननी क्रिया बाकी हती, ते आ अवसरे शेखना कहेवाथी गुरुए पूर्ण करी. (ही.सौ. १४-२८६).
ला.१नी वाचनागत ११९-२३ कडीओमां आ ऐतिहासिक प्रसंग ज वर्णवायो छे, अने रासकार आ प्रसंगोना स्वयं साक्षी होवाथी तेओ आवी महत्त्वनी घटना नोंध्या विना रहे ज केम ? ए सवाल ला.२ नी वाचना जोया पछी थाय तो ते स्वाभाविक छे.
एक संभावना ए छे के ला.२ वाचनाना प्रतिलेखक समक्ष आ पाठ न होय; अथवा तो तेओ आ अंश लखवानुं चूकी गया होय. अलबत्त, आ उपरथी एक वात ए पण सिद्ध थई शके के ला.२ वाळी प्रति करतां ला. १ वाळी प्रति वधु पुराणी होय. केमके बेमांथी एकेयमां लेखनसंवत् दर्शावती पुष्पिका नथी. अलबत्त, आ मात्र अटकळ ज गणाय. क्यारेक तेनाथी ऊलटुं पण होई शके. केमके ला. १ प्रतिमां, ला. २ गत १४२-४४ कडीओ नथी ज.
(10) ला.२मां घणा पाठो महत्त्वना जणाया छे. जेमके- 'साह कमा' (कडी २-२), 'जगि जयउ' (६-६), 'तिहां सो०' (१०-११), कमता बलष' (१५-१६), 'सघलइ' (१६-१७), 'ताको न लहु' (१७-१८), 'गाजी पठान' (१८-१९), 'चबाड' (१९-२०), 'सुरमांहिं' (२१-२२), 'बुहडि बोलइ' (२६-२७), 'हीक कही उर कूकूत' (२६-२७), 'भंगि खाई' (२७२८), ‘ए सब जब' (३०-३१), 'श्रवणे सुंण्या' (३०-३१), 'जोगीसर सिंणगार' (३१-३२), 'न हाथि लीइ' (३२-३४), 'बहु बोलइ' (३२-३४), 'अइसे हिं उही' (३३-३५), 'इया खुदा तई' (३६-३८), 'बंद खलासी' (३८-४०), 'कहु तु लीजई' (३८-४०), 'उहांको', 'करणी अयसी' (४१४३), 'दुहाई' (४२-४४), 'श्रीगुरुवदन' (९५-९५), 'साधत हो' (१०११०१), 'पीआरां सुख' (१०९-१०८), 'मान्युं गुरु वचनप्रमाण' (१२८१३०), 'हीर अकब्बर जेसंग साही' (१२८-१३०), 'आतम साधक साधु' (१३३-१३५), 'सीझइ वंछित' (१३९-१४१) इत्यादि.
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अनुसंधान-२७ अहीं पाठ ला.२ प्रमाणे शुद्ध लाग्या ते मूक्या छे, अने ब्रेकेटमां प्रथम ला. १ प्रमाणे अने पछी ला. २ प्रमाणे कडी क्रमांक आप्या छे.
आ ला.रनी प्रतिनी झेरोक्स नकल मने आ. श्रीविजयप्रद्युम्नसूरि महाराज तरफथी मळी छे. तेमणे ते कोबाना ज्ञानभण्डारमांथी मेळवी छे. प्रतिमां एकथी वधु कृतिओ हशे, तेम जणाय छे. प्रतिना प्रथम ७ पानांमां आ रास छे. ते पछी आरामनन्दनरास शरु थतो होवानुं आठमा पत्रथी लागे छे. मने ८ पत्रो ज मळ्या छे. कोबा संग्रहनो क्र. १३७२१ छे. तेओनो अत्रे आभार मानुं छु.
★★★ पं. दयाकुशलकृत - श्रीलाभोदयरास ॥ सरसति मति अतिनिरमली, आपो करी पसाय ।। जेसंगजी गुण गावतां, अविहड वर दिउ माय ॥१॥ नडुलाई नयरी भली, धन्य धन्य श्रीउसवंस । शाह कमाकुल चंदलु, सुर नर करई प्रसंस ॥२॥ धन कोडमदे जनमिउ, तपगछको सुलतान । अधिक अधिक तेजिं सदा, वाधइ युगह प्रधान ॥३॥ जस मुख शारद चंदलो, जीह अमीनो घोल । दंतपंति हीरा जसी, अधरस कुंकुमरोल ॥४॥ अति अणीयाली आंखडी, वांकी भमुह कमानि । सरल सकोमल नासिका, मोहइ भविक सुजाण ॥५॥ गजगति चालइ चालतु, सकल कलागुण पूर । गौतमसम गुरु जगि जयउ, जस अनोपम नूर ॥६॥ श्रीगुरु हीर सदा जयउ, तासु तणो ए सीस । रास रचुं रलीआमणो, प्रणमी जिन चउवीस ॥७॥
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कल्याणकुशलपंडित जयउ, सकल पंडित सरि लीह । दयाकुशल तसु पय नमी, सफल करइ निज जीह ॥८॥
चउपई ॥ विनय विवेक विचार सुजाति, कहीइ देस चतुर गूजराति । तिहां रायधनपुर नयर प्रसिद्ध, लोक वसई पुन्यवंत समृद्धि ॥९॥ तिहां गुरु गुणवंत करइ चउमासि, पूरइ भविजन केरी आस । श्रीगुरु हीर जेसंगजी वली, दूधमांहिं जिम शाकर भली ॥१०॥ तिहां सोहइ गुरु-गुरु की जोडि, मंगल महानंद होवइ कोडि । आवइ निति निति श्री संघ थोक, श्रीगुरुतेजि सुखी सहु लोक ॥११॥
दूहा ॥ अवसरि इणइ अति बली, अकबर साह सुलतान । श्रीगुरु रंगि बोलावीआ, ते सुणो भविक सुजान ॥१२॥
___ढाल || राग देशाख । अतिहठी अकबरसाहि कहावइ, दूजो दुनिभई उपम कोई नावइ । कोउ नाहीं अकबर बलि पूजइ, नाम सुणत वयरी तन धूजइ । दूरि कीआ वयरी मद मोड, विषम लीउ जेणई कोट चितोड । कुंभलमेर अजमेर समाणो, जोधपुर जेसलमेर जाणो ॥१३॥ जुंनो गढ लीउ सूरति कोट, भरूअचिकोट लीउ एकदोट । मांडवगढ लीउ बल मांडी, हाडा गया रणथंभर छांडी ॥१४॥ लीउ शीआलकोटि रोहीतास, अनेक विषमगढ पार न जास । सो लीआ अकबर एक निशाण, हवइ सुणो देसनां नाम सुजाण ॥१५॥
___ढाल ॥ राग गोडी ॥ गोड बंगाल तिलंग वंग अंग घोडा घाट
दुलखोडीसु खंधारदेस जाकी विसमी वाट । कामरु कमता बलष देस परवत सवालाख
मगध कासी कास्मीर देस तिहां झाझी दाख ॥१६॥
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अनुसंधान-२७
सिंधु देस जे नगरठठो काबिल खुरासान
दिल्ली मंडण मेवात देस सघलइ साहि आण । मरहठ मेवाडि मारुआडि मालव गूजराति
सोरठ कुंकुण दक्षिण देस सहु अकबर हाथि ॥१७॥ निजबलि अकबरि देस लीआ ताको न लहुं पार
कौतग कारणि देस नाम कहीआं दो-च्यार ॥ रथि सुखासण पालखी ए परतखि चक्रवृत्ति
पुण्य विवेकी सु सारबुद्धि अडीग्ग आछी मत्ति ॥१८॥ ताजा तुरीय तोखार सार जाकुं न लहुं पार
मोटा मयगल मलपता ए दीसइ केई हजार । सेवइ जास सुलतान खांन उंबरा राय रान
रोमी फिरंगी हींदु हठी मूलां गाजी पठान ॥१९॥ इस्यो दुनीमई कोउ नाही लोपइ अकबर लीह
विधिना एही ज आप घड्यो अडीग्ग अबीह । जाकइ तेजि सहु लोक सुखी प्रजा प्रतिपालइ
___ चाड चबाड अनाई चोर धूत्तारा टालइ ॥२०॥ आनंद अधिक सगाल सदा मोटो वडभागी लाहोरनगर मई लील करइ अकब्बर सोभागी ॥२१॥
दुहा ॥ परवतसरि जिउं मेरुगिरि, ग्रहगण मांहि चंद । सेषनाग सहु नागसरिं, जिउं सुरमांहि इंद ॥२२॥ सकल छत्रपति तिलकसम, एकदिन सभा मझारि । बोलइ अधिक उच्छाहसुं, वचन अमृत रसधार ||२३||
ढाल ॥ राग देसाष ॥ साह कहइ सुंणो वात इयारा, दोउं दूनिमई वात आसकारां । एक भले दूनीआदार भोगी, दूजे फकीर निरंजन योगी ॥२८॥
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योगी सोई जे जोग अभ्यासइ, फूटी कुडी नवि राखइ पासइ । चित्त लगाई निरंजन ध्यावइ, भलो रे बूरो सुनी खेद न पावइ ॥ २५ ॥
जाकइ जोरूसुं नाहीं टूक संग, एक निरंजन सेती रंग । खोजी थई बहु खोज करायो, साचो योगी कोई नजरि न आयो ||२६||
बुडि बोलइ इयुं अकबरभूप, जोई जोउं सोईउ रसरूप । सेष दरवेस सोफी इयुं चालइ, हीक कही उर कूकूत उच्छालइ ॥२७॥
भंग खाई होवइ अति लाल, सिंखला पहइरी दीसइ विकराल । नामि योगी फुंनि याहि ज भेष, नामि संन्यासी सन्यास न रेख ||२८||
खाज पीजइ कीजइ तीय भोग, बोधा बोलइ जगि एह ज योग । पंच वखत नमाज गुजारइ, छुरी लेई बहु जीव सिंहारई ॥ २९॥
काजी मुलां कहइ सुणो साह, खुदाई एही फुरमाया राह । साही कहइ ए सब ही जूठे, खुदा थकी चालइ यु अ पूठे ॥ इयुं करतां किउं पाईइ दीन, जाको मन दुनीआसुं लीन ||३०||
दुहा ॥ ए सब जब जूठे कीए, वडवखती कहइ मीर
दुनीआं दीपक एक मई, श्रवणि सुंण्यो गुरु हीर ॥३१॥
सो हम वेग बोलाइआ, देख्या तास दीदार | कहणी - करणी साचउ, योगीसर सिणगार ||३२||
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ढाल ॥ राग गोडी ॥
ताकी करणी बहुत कठिन, किन पिं कही जाइ । जीव न मारइ जूठ नाहीं, स्त्री सहु जइसी माय । कुडी न राखइ आसपास, एक करइ खुदायकी । लेत नांही कछु गयर दीउ, प्रवाह न किसकी ॥३३॥
खाना खावइ एक बेर, पीवइ ताता नीर बीजा तमासु खेल नांही, ध्यावर एक पीर ।
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हरि तरकारी न हाथि लीइ, नाहीं लेत तंबोल नांगे पाउं फिरे, बहु बोलइ न बोल ॥३४॥ बाल उचावई धर्म जाणि अइसे हिं उही देस विलाति सहु गाम फिरइ प्रतिबंध. नां मोही । सत्तू-मित्त समचित गिणइं, किंसहइ नि दिइ दोस महिने दस रोजे करइ, न करइ टुक रोस ॥३५।। भुई सुवइ धूपकालि धूप सीतकालिं सीत। समतिणमणि नाहीं क्रोध लोभ कामवयरी जीत । राह निहालइ चलइ पंथि साचे वयरागी पाढ पढइ गुरु ध्यान धरइ होवइ गुणरागी ॥३६।। टाणुटुंगुं उ करत नाही, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सो कथन कथइ नाही किं न सारु ॥३७॥
दूहा ॥ वली निजमुखि साहि कहइ, अयसे वचन अनेक । इया खुदा तई निस्पृही, कीआ हीर यु एक ॥३८॥ एक ज हीर दीदार थई, हुआ हम बहुत सबाब । मरती मछी मनय कीई, बकस्या डावर तलाव ॥३९। भादं नव रोजे जनमिदिन, जीव मरत मनीय कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंद खलासी दीध ॥४०॥ हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मुलक पुर गाम । लालचि देखाई घणी, गुरुजी कहइ नाहीं काम ॥४१॥ साही कहइ गुरु हीरकुं, दर्शन देखण की चाय । जो सेषुजी तुम्ह कहु तु, लीजइ बहुड बोलाय ॥४२॥
ढाल राग गोडी ॥ सेषुजी इउं बोलइ साही स्युंणो अरदास तुम्ह जानत नी को पंथ उहां को उदास ।
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करणी अयसी पालई उर भए उ वृध कइसई करि आवइ सेषई उत्तर दीध || ४३॥ जो चाहो बोलाए तु, एक अरज हमारी आलंपनां सलांमत को मेटइ दुहाई तुमारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ ए शिष्य सुजाण सही ताकुं बोलाउ वेग लिखी फुरमांन ॥ ४४॥ ए वात सुणी तब साहि खूसी बहु मांनी श्रीविजयसेनसूरि साचे हई गुरु ग्यांनी । मेवडे दो पठउ साहि लिखी फुरमांन राधनपुरि आए जिहां गुरु गुणह निधान ॥ ४५॥
तुम्ह गुण रंजिउ हइ दिल्लीपति पतिस्याह जाकइ राति दिवस एक तुम्ह देखण की चाह । गुरुजी वडवेगई श्रीआचारिज नाम पठिउ पतिस्यापि जिउं होवइ भले काम ||४६ ॥
श्रीहीर - जेसंगजी गोठि करइ एक ठउरी पतिस्या पिं जानो आए मेवडे दउरी । इयुं कहइ आचारिज श्रीगुरु वीनती एह एक चरणनसुं मोही लागो अधिक सनेह ||४७||
विछोह विषम हइ किं गुरु वचन लोपाय इह चरणन बीनुं मोही षिन एक रह्यो न जाय । समझावइ वली वली आचार्यकुं हीर सही चाल्यो चही करो ध्यान मन धीर ॥४८॥
आचार्य चितइ किउं गुरुवचन लोपाय गुरुवचन मई करणो पांमी प्रबल पसाय । शुभ वेला जेसंगजी साथि लेइ यतीवृंद करइ वेगि पीआणो मोहनवल्लीकंद ॥ ४९ ॥
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गुरुचरण नमीनइ लेई गुरुकी आसीस नवकार जपइ मुख स्मरणि जिन चउवीस | होवइ शुकन भले तिहां मयगल मलपत दीठ बोलइ वायस वांमो कुकर हरइ अनीठ ॥५०॥ दाहिण अंगइ आवइ नारि सुहासणि जेह विवहारी वारु दक्षण अंग वली तेह | चास तोरण रूपारेलि वारु दाहिण अंगि बोलइ वामांगिइं खर तीतर मनरंगिइं ॥५१॥ दाहिण अंगिई आवइ प्रथम पुहुरि मृग माल मनवंछित पूरइ एही हरणकी फाल । वांमांगिं देव्या बोलति विघन हरेय साचइ सुकुनतणइ बलि चालइ हर्ष धरेय ॥५२॥ दूहा ॥
जगि जस महिमा जागतो, पूरइ वंछित पास । श्रीगुरु भेटइ रंगसुं, श्रीसंखेश्वर पास ||५३|| ढाल || देसी धमालनी ॥
पाटणि वेग पधारीया, श्रीगुरु बहुत मंडाणि रे ।
शुभ करणी सहु को करइ, सुंणीय सहइगुरुकी वाणी रे ॥ तपगच्छपति गुरु गुणनिलो, श्रीविजयसेनसूरिंद रे ।
समतारसमांहिं झीलतु, धरतो मनि आणंद रे ॥ तप० आंकणी ॥५४॥
सिद्धपुर मालवणिमांहि थई, रोह सरोतर चंग रे । सहसाअरजन राजवी, अधिक अधिक करइ रंग रे ॥५५ ॥
मुंडथलाथी कासंदरइ, हवई कीजइ आबू जात रे । मनमोहन गिरि भेटतां, होवइ निर्मल गात रे ॥ ५६ ॥
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सीरोहीइं सेवा करइ, देवडो राय सुलतान रे । तिणइ समय श्रीसंघ तिहां, करइ अधिक मंडाण रे ॥५७॥
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संसारीआ वंदाववा, श्रीगुरु सादडी आवइ रे । संघ सहू निडोलाईनो, अवसरि लष्यमी वावइ रे || प० ॥ ५८ ॥
राणपुरि जई यात्रा करइ, संघसुं बहुत मंडाणिई रे । लष्यमी कमाई तेहनी, जे अवसरि खरची जाणइ रे || ५९|| तप० ।
।
जन्मभूमि निडुलाई तिहां, गुरु पगले पुण्य जागइ रे संघ सहू गूजरातिनो सीख तिहांथी मागइ रे ॥६०॥ तप०||
बांता बगडीमांहिं थई, जयतारण केकंदिई रे ।
संघ सहु मेडता तणो, साहमो आवइ आणि (ण) दि रे ||६१ |तप० ॥
राठउड जागती योति तिहां, श्रीगुरु सांहमा आवइ रे । उच्छवरंग जे तिहां हूआ, ते कहइतां पार न आवइ रे ||६२||तप०॥
भमरो दइ भली भगति करइ, सचीआदास सुजाण रे । नरायणा ताई रूपसी, आवइ करत मंडाण रे ॥ ६३ ॥ प० ॥
आणंद होवइ अतिघणा, पहुंता महिमामेर रे । झाकती बहुत मंडाणसुं, आया सांगानेर रे ॥ ६४ ॥ प० ॥
विमल जिणंदकुं भेटवा, गुरु वयराट पधारइ रे । भारमल्ल इंद्राज तिहां, शासनशोभ चढाव रे || ६५ ॥ प० ॥
इंद्राज अति आनंदस्युं, चालइ श्रीगुरुसंगिइं रे । याचकजनांनइ पोषतु, उलट अतिघणो अंगि रे ॥ ६६ ॥ प० ॥
बीरोजथी रयवाडीइं, श्रीगुरु रंगिइं आवइ रे । श्रीसंघ महोत्सव बहु करइ, वित्त सुपात्रइ वावइ रे ॥६७॥ तप०॥
विक्कमपुरि पधारीआ, गुरु इंद्राज वंदावर रे । अवसरि तिणइ अतिघणा, दान याचकजन पावइ रे || ६८ ॥ प० ॥
साहमो संघ झज्झर आवइ, महिमतणो आदि रे । अब जनम सफलो हुउ, फिरी फिरी श्रीगुरु वंदइ रे ॥ ६९ ॥ प० ॥
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महिमनगर कइ सामहीइ, पंडित प्रबल प्रधान रे । रंगकुशल आवी नमइ, श्रीगुरु दिइ बहुमान रे ॥ ७० ॥ प० ॥ षोजो बहु षजमति करइ, लाभ घणा गुरु पावइ रे । गुरुजी श्रीसंघ महिमकु, नगर समाणइ आवइ रे ॥ ७० ॥ प० ॥ अतिआणंद तिहां हुउ, सांहमो साह कल्याण रे । लाहोरथी आवइ रंगस्युं, श्रावक अतिहिं सुजाण रे ॥७२॥ प० ॥
प्रघल चित्त वित्त वावतु, श्रीगुरुकुं पधरावइ रे । खानपुरइ श्रीलाहोरकइ, सांहमो श्रीसंघ आवइ रे ||७३ ||०|| दूहा ॥ श्रीगुरु सांभली आवतां, नरनारीना वृंद |
थोके थोके मिली घणा, आवइ अति आनंद ॥७४॥
ढाल ॥ राग- धन्यासी ॥
श्रीसंघ सांहमो ए आवइ, वाघा आछा बणावइ खासा मुलमुल साही, महिमुंदी अतलस लाई ॥७५॥
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खीरोदक खेस खांतीला, श्रावक सोहइ रंगीला । जडित कटिं कट दोर, देखी जलइ कुंमति कठोर ॥७६॥
चूआ चंदन अंगि लावइ, आछी मुद्रिका फावइ । कठिन कनकीए माला, हरखई हेज मुछाला ॥७७॥ केइ चडई वडे हाथी, वेगइं बोलावए साथी । सुखासन तुरी चकडोल, रथिं चडइ रंगरोल ॥७८॥ आवइ श्रावक सहु भेला, खरचणकी एही वेला । वरसइ कंचनधार, बंदी बोलइ जयकार ॥७९॥ सेषजी साथि साहीजादा, करइ ते बहुत दिवाजा । खान मुलक सांहमा आवइ, राय रांणा तिहां फावइ ॥८०॥
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आवइ हाथी स(सुं)ढाला, घमकइ घुघरमाला । झूलिसुं कोतल आगई, नेजा नवरंग छाजइ ॥८१॥ सुंदरी सुंदर देह, आंखि काजल-रेह । नलवटि चंदाए चंगा, खेस उढइ पंचरंगा ||८२।। लटकइ लाखीणी वीणी, उढणि पांमरी झीणी । नेउरी घूघरी घमकइ, चालइ गोरी सहु ठमकइ ॥८३|| पहइरइ सार पटउली, दप्पणफालीए पुहुली । कामिनी चंपकवरणी, करइ नित्य धर्मकी करणी ॥८४॥ हईडइ नवसर हार, पहरइ सोल सिंणगार । सरस वय उपम रूडी, अंगीआं कसी कसी जूडी ॥८५।। मोहनीकट कटि लंकी, भमह कमाणि ते वंकी । अभिनव रूपिं ए रंभा, साथल कदली ए थंभा ॥८६॥ भरयोवन मदि माती, चतुरकइ चिति सुहाती । रमझम करती ए बाला, महइकइ फूलकी माला ॥८७|| कोकिलकंठि समाणी, बोलइ सुललित वाणी । मिलइ सो सुंदरी टोलइ, धुंघटकइ पट उरइ ॥८८॥ विनय विवेक सरीति, गावइ श्रीगुरुगीत ।। मोती लुंछणां कीजइ, मणुअ जन्म फल लीजइ ॥८९।। वसमसि अढलीक दांन, वंदइ युगह प्रधान । वाजिबनाद ते वाजइ, नादिं. गयणंगण गाजइ ॥९०|| भेरी नफेरी सहिनाई, पखाउज ताल बनाई । रबाप महुंअरि बीणा, किंनरी शबद सो झीणा ॥११॥ ढोल कंसाल नीशाण, दडदडी मोटइ मंडाण । हुडक तिवल संख वाजइ, झल्लरी तूर ते छाजइ ॥९२।।
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अनुसंधान-२७
· एणी परिइं बहुत मंडाण, सांहमो संघ सुजाण ।
अबीर लाल गुलाल, तोरण वन्नरमाल ॥९३।।। पूजा नवे अंग कीजइ, दान याचकजन दीजइ । देखई चतुर मिली थोक, कौतिग मोह्या ए लोक ॥९४|| श्रीगुरुवदन निहालइ, दूरित दूरि पखालइ । एणी परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ ॥९५॥ श्रीगुरु रंगि सिधारइ, लाहोरमांहि पधारइ । नगरी सारी सिणगारइ, भलई आयो हीर पट्टोधारी अकब्बर साही बोलायो, गछपति रंगिं ए आयो ॥१६॥
दूहा ॥ ईर्यासुमतिं चालतु, बोलइ युगहप्रधान । पहइलुं तिहां अम्हो जाइसुं, जिहां अकब्बर सुलतान ||९७||
ढाल ॥ राग गोडी ॥ श्रीगुरु दरबारई आवइ मननइ रंगिइं समतारस-रागी उलट अतिघण अंगि । वेग खवरि कराई अकब्बर साहीकुं एह आएहिं गुरुजी खुसी बोलाए तेह ।।९८॥ साहि अधिक विवेकी आचारिज पधरावइ कास्मेरी मुहुलंइ सांहमो दिल्लीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिइ आंणी मन उच्छाह। तपगच्छपति सेती बोलइ इयुं पतिस्याह ॥९९।। "चंगे हु गुरुजी चंगे हई गुरु हीर . आलम सारीमई कोउ नाहीं तुम्हसो पीर । तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पाय नाही टुकरोस तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस ॥१०॥ बडे फकीर निरंजन साधत हो नित योग च्यत लाउ खुदायसुं नाही दुनीआंका भोग ।
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हम जानत नीकइ जिस्या तुम्ह आचार" साही सभा सुंणत हई प्रसंसइ वारवार ॥१०१॥
" हम बहुत खुसी हई देखत तुम्ह दीदार सुखिई आए पिंडइ सुखी सहु तुम्ह परिवार ।" तिहां श्रीआचार्य धर्मदेशन दीध भविकजन केरां मनवंछित सहु सिद्ध ॥ १०२॥
अकब्बर आचारिज करइ जे धर्मविचार ते कहुं हुं किणी परिं कइता नावइ पार । कीधी कुंमर निरंद परिं कइ श्रेणिक परि जांणी श्रीहीरजी जेसंगजी कीए विधिना गुणखांणी ॥ १०३ ॥
ढाल ॥ राग सामेरी ॥
मनवंछित काज समारी, हरख्यो हीइ हीरपट्टीधारी । सीख साही पासइं तव मागई, बहु नुबति नींकी बाजइ ॥ १०४॥
उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ ।
दीजइ हीर- चीर पट्टकूल, गंठोडा तुरी बहुमूल ॥ १०५ ॥
रूपानाणइ दुर्जनसाह, प्रभावना मंडिउ प्रवाह ।
धन्य दिवस गणुं ते लेखइ, एहवा आणंद जे नित देखइ ॥ १०६॥
दूहा ॥
इइ अवसर वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उगइ भाण ॥ १०७॥
माखी त्यजइ जीउ अप्पणो, पणि देवइ परदुख । दुरजन दहई मनि अपणइ देखि पीआरां सुख ॥ १०८ ॥
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ढाल ॥
बांभणे जाइ चुगली कीधी, मुंकी मयदा मांहिं दीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानो, कीछु उहांकी करणी जाणो ॥ १०९ ॥
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अनुसंधान-२७ मानत नाही सूरज गंगा, उर, श्रीपरमेश्वर चंगा । नांही दंडवरत की बात, पापी च्युगले घाली घात ॥११०॥
दूहा ॥ दूरजन कर तन वेवहइ, सन्मुख लेत संताप । गरुड बराबरि किउं होवइ, जोरे भलेरा साप ॥१११॥
ढाल ॥ जेसंगजी साहि हजूर, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणीकी फाली ॥११२॥ सुभट सुणी रणतूर, किउं झाल्या रहइ तिहां सूर । झूझूइ जिउं सबल झूझार, हुउ तिहां वादविचार ॥११३।।
दूहा ॥ तव गुरु आए साहि पई, जिहां जूडे वादीवृंद । तिहां गुरु गुंजइ सीह जिउं, वादी-गरुड-गोविंद ॥११४।। सूरज हम मानइ सही, निसुंणि अरज वडवीर । उदय होवइ जब सूरकु, तब हम पीवइ नीर ॥११५॥
. ढाल ॥ राति जिमइ भरपूर, तो किसई मान्यो इणइ सूर । । गंगाकुं इयु हम ध्यावइ, मल भस्म न पाउ लगावइ ॥११६॥ जो भगवती कही पोकारइं, तु कइसइ भस्म मल डारइ । भगवंत निरंजन कहीइ, मसकति विण किउं सो लहीइ ॥११७॥ उस पावनकुं इयु कीनो, सही भोग तिजी व्रत लीनो । रमइ रामा रंगि जेह, भगवंत कहीइ किउं तेह ॥११८॥ वंछड् माल मुलक जे कोई, दंडव्रत करइगा सोइ । सुणी बोल खुसी हूउ भूप, धन धन गुरु तेरा सरूप ॥११९॥ दुसमन जे वसिमसि करता, मुंसाकी दाई फिरता । ते कीआ जिउं आटामांहिं लूंण, तुझ विण समझावइ कुंण ॥१२०॥
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भट्ट मिलीया जे उतकट, नाठा ते सहु दहवट्ट । जिनशासन की थिति राखी, कीउ साही अकब्बर साखी ॥१२१॥ धन्य धन्य कोडमदेनंद, जेणइ जगत्र कीउ आनंद ॥१२२।।
दूहा ॥ जाण्युं तुं किउं कीजस्यइ, सबला सेती काम । . जेसंग तइ दूसमन समय, राखी मोटी माम ॥१२३॥
ढाल ॥ वाद हुउ साही हजूरि, जीत्या श्रीविजयसेनसूरि । बांभणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी ॥१२४॥ . हुआ ते हाकाविका, पडीया दुसमन सब फीका । एकएक्कु इयुं समझावइ, अपनो कीउ सहु को पावइ ॥१२५॥
दहा ॥ जय जयवाद वरी तिहां, श्रीगुरु मनि उलासि । श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहुर करइ चउमासि ॥१२६।।
ढाल ॥ अकब्बर सहइगुरुकुं बकसइ, ते सुणतां हईडु विकसइ । नगरठठो सिंधु कच्छ, पाणी बहुलां तिहां मच्छ ॥१२६।। जिहां हुंता बहुत सिंहार, धन धन सहइगुरु उपगार । च्यार मास को जाल न घालइ, वसेषई वली वरशालइ ॥१२७॥ गाइ बलद भींस जेह, कदी कोई न मारइ तेह । गुरुवचन कोई बंदि न झालइ, मृतककेरो कर टालइ ॥१२८॥
दूहा ॥ जो गुरु साचा निस्पृही, तु मागइ अभयदान । साहि पासि करावीयां, ए अडीग्ग फुरमान ॥१२९।।
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अनुसंधान-२७
ढाल ॥ बोलइ इयुं साहि सुजाण, मान्युं गुरुवचन प्रमाण । हीर अकब्बर जेसंग साही, द्वंजिउं (भुंजिउं?) अविचल पातिसाही॥१३०॥ जिहां मेरु मही सूरचंद, तां प्रतपो एह मुर्णिद ।। साधु साधवी श्रावक श्रावी, उदयवंत सु सुगुरु पद पावी ॥१३२।। करतव्य जे अकब्बर कीधां, सहु जांणइ लोकप्रसिद्धां । जगतगुरु दीधुं नाम, छ मासि अमारि फुरमांन ॥१३२॥ सेजादिक तीर्थ जेह, बकसइ सहइगुरुकुं तेह ।। जीजीउ दंड दोर जगाति, अकबरसाही कहइ नही वात ॥१३३॥ जोर जलम न कीजइ जाकइ, हुए ए अधिक इसा कइ ॥१३४।। भोगीजन करइ बहुभोग, आतम साधक साधु योग । देस मुलक पुर गाम, सुखी जिहां जिहां अकबर नाम ॥१३५॥ ते तो सहइगुरुको उपदेस, समुअइ सो सदा वंछेस । चउथउ आरो परतखि दीसइ, पूजीजइ जिन चउवीसइ ॥१३६।। उच्छव होवइ निति झाझा, जिनशासन बहुत दिवाजा ॥१३७॥ श्रीविजयसेनसूरिंद, चिर नंदो महामुर्णिद । जस गुणकुं न लहु पार, सोहम जंबु अवतार ॥१३८॥ सकलपंडित सिरताज, कल्याणकुशल गुरुराज । ज्ञानी गुणवंत मुनीस, श्रीमेहमुंणिंदकु शीस ॥१३९॥
. दूहा || साह लटकण सुत गुणनिलो, लीलादे जस माय । कल्याणकुशल गुरु भेटतां, दारिद्र दूरि जाय ॥१४०।।
ढाल ॥ अहनिशि जपतां गुरु नाम, सीझइ वंछित काम । कहइ दयाकुशल तस सीस, सुप्रसन्न सहइगुरु निशदीस ॥१४२।।
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ढाल ॥ राग-धन्यासी ॥
धन्य गुरु हीर धन्य तपगच्छ ए धन्य जेसंग जगमइ वदीतो । साहि अकब्बरसदसि जेणि निजभुजबलि वादी जिनधर्मवर वाद जीतो ॥ध० ॥ १४२॥ कुंमतिकुद्दाल जय वादवेताल तुं असमसाहसीक तुं सुद्धभाषी । हेमगुरु जेम तइं पण दूसमनसमय जैनशासन तणी माम राखी १०॥ १४३।। आगरइ सहइरि श्रीपासपसाउलइ संवत सोल उगणपंचासइ । कल्याणकुशल गुरुराज कल्याणकर
सीस दयाकुशल मनिरंगि भासइ ॥१०॥ १४४॥ इति श्री विजयसेनसूरिश्वराणां लाभोदयनामा रास संपूर्ण ॥
कठिन शब्दो
कडी क्र.
दुनि पूजइ सगाल
सरि
इयारा आसकारां
दुनिया-लोक पूगे-पहोंचे सुकाल शिरे-मस्तके, शिरोमणि यार,मित्र आशाकारी-आश्वासन देनार कोडी बहु(?) सूफी हाकोटा (?)
कुडी
बुहडि
सोफी
हीक
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अनुसंधान-२७
कूकूत भंगि
कौतुक, विचित्र चेनचाळा (?) भांग शंखला
सिंखला
तीय
स्त्री .
३३
प्रवाह
३४
ताता विलाति किंसहइ नि सबाब
३७
४०
भादं
४४
आलंपनां
दुहाई
04
P
मेवडे पीआणो सुहासणि
परवाह तपावेला-उकाळेला विलायत-परदेश कोईने ना स्वभाव-स्वाभाविक के वास्तविक (?) भादरवामां आलमपनाह (बादशाह) द्विधा सेवको-खेपिया प्रयाण सौभाग्यवंती देवचकली सदुरु शिक्षा-रजा प्रदक्षिणा(?) राजा-ठाकोर सामैये खिदमत-सेवा परिगल-अनर्गल वेष अच्छा
ti
देव्या
सहइगुरु
सीख भमरो
६३
६५-५५
७०
७१
७२
इंद्राज सामहीइ खजमति प्रघल वाघा आछा झूलि
झूल
कोतल
नलवटि चंदा
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वींणी वसमसि ईर्यासुमति
१०१
च्यत कुंमर निरंद
१०३
नुबति
नीकी
वेणी झळके(?), (आपे?) ईर्यासमिति, जैन मुनिनी जीवदयापूर्वक ज चालवानी क्रिया चित्त नरेन्द्र कुमारपाल नोबत उत्तम उपाश्रयमां-जैन साधुनो आवास, तेमां. मर्यादा बख्तर फाळ-कूदको-छलांग योद्धा डाले-नाखे - (हिन्दीमां मशक्कत?)
१०५
१०९
११२
उपासरइ मयदा पाखर फाली झूझार
११३
११७
डारइ
१२०
१२१
१२२
१२३
मसकति मुंसा की दाइ उतकट दहवट्ट जगत्र सेती दूसमनसमय माम हाकाविका वरशालई श्रावी समुसइ चउथउ आरो
उत्कट-थनगनता दशे दिशामां जगत साथे दुश्मन सामे ममत्व-इज्जत आकुल-विकल चोमासामां-वरसाद वखते श्राविका
१२५
१२७
१३१ १३६
चोथो आरो (काळविशेषतुं नाम)
★★★
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श्री संभवनाथ कलश
प्रस्तुत कृतिनी नकल ला. द. भा. विद्यामन्दिर, अमदावादनी त्रूटक प्रत परथी करी छे. श्रीलक्ष्मणभाई भोजके आ कृतिने उकेलवामां तथा सम्पादन करतां शुं शुं जोवुं तेनुं मार्गदर्शन हंमेशनी पेठे पूरुं पाड्युं छे ते बदल तेमनी तथा संस्थानी हुं ऋणी छु.
अनुसंधान-२७
(सं.) डो. रसीला कडीआ
२ पत्रो, ३७ कडीओ अने पांच ढाळोमां रचायेल आ 'संभवनाथ कलश'नी प्रति तेनी श्रेष्ठ स्थितिमां मळी आवी छे.
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अद्यापि पर्यंत आपणने श्रीऋषभदेव, श्रीपार्श्वनाथ, श्रीशान्तिनाथ तथा सर्वे जिणंदानो कळश प्राप्त थाय छे. स्त्रात्रपूजामां पांच के सात कुसुमांजलि मूकाय छे मां पण ए अनुक्रमे श्रीशान्ति जिणंदा श्रीआदिजिणंद श्रीनेमिजिणंदा श्रीपार्श्वजिणंदा श्रीवीरजिणंदा, श्रीचउवीस जिणंदा अने श्रीसर्व जिणंदाना नामे मूकाय छे. श्रीरूपविजयजीनी स्त्रात्रपूजामां श्रीआदि जिणंदा पछी श्रीअजित जिणंदा अने वीर जिणंदा पछी श्रीसीमंधर जिणंदा अने बादमां चोवीस जिणंदानी कुसुमांजलि छे. आ कळश संदर्भे में विविध पूजासंग्रहमांना अनुक्रमे पं. वीरविजयजी, श्री देवपालजी (देपाल कवि), श्री देवचन्द्रजी, श्रीरूपविजयजी तथा श्रीज्ञानविमलना कळशो तपास्या. भाषानी प्रांजलताने कारणे आजे आपणे सौ पं. श्रीवीरविजयजीना स्त्रात्रथी खूब ज परिचित छीओ.
आ कृतिमां पण उपरना अन्य कळशोनी पेठे संवत आपवामां आवी नथी. पण लेखनरीति उपरथी १९मो शतक जणावी शकाय तेम लागे छे. रचनारीतिमां प्रारंभनो भाग श्रीदेवपालकृत स्नात्रपूजामां आवता श्री वच्छ भंडारी (भणे वच्छभंडारी अम मन, वसियो श्रीअरिहंतोजी) ना पार्श्वनाथ कलशना प्रारंभना भाग साथे साम्य धरावे छे. आ प्रारंभ आ प्रकारे छे : 'श्रीसौराष्ट्र देश मध्ये, श्रीमंगलपुरमंडणो, दुरितविहंडणो, अनाथनाथ अशरणशरण त्रिभुवन जनमनरंजणो, त्रेवीसमो तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तेह तणो कळश भणीशुं. १" कोई एक ज समये कळश कहेवानी आ प्रचलित रीति
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होई शके अथवा कोई एक कविनी रचनारीतिनो अन्य कवि परनो प्रभाव होई शके.
घणीवार देशीओ पण समयनिर्धारणमां मददरूप बने छे. श्री देवचन्द्रजीनी स्नात्रपूजामांना सर्वे जिणंदाना कळश'मां ८मी ढाळ छे : 'पूरण कळश शुचि उदकनी धारा, जिनवर अंगे नामे'२ आ कृतिमां ढाळ-३ देशी ललनानी कही, आ देशीनां जाणीतां गीत तरीके 'पूरण कळश...... नामे रे' पंक्ति आपी छे जे कवि श्रीदेवचन्द्रजीना कळशना समय बाद आ कळश रचायो होवानुं इंगित आपे छे.
कर्तानाम स्पष्ट नथी. अंते आवती 'ज्ञान महोदय पद लहे' पंक्तिमां कविओ पोतानुं नाम जणाव्यु छे तेम मानी शकाय. जो ज्ञान महोदये आ कळश लख्यो छे तो ते ज्ञान महोदय कया ? शुं ते शान्तिनाथनो कळश'ना रचयिता श्रीज्ञानविमल होई शके ? आ प्रश्न थाय छे.
अन्य कळशोमां छे तेम अहीं पण श्रीजिनेश्वरनो (अहीं संभवनाथनो) जन्म महोत्सव वर्णव्यो छे. माता चौद स्वप्नो जुओ छे, सुपनपाठकने राजा बोलावे छे, फळ सांभळी राजी थाय छे, जन्म बाद छप्पन दिग्कुमारीओ न्हवरावे ने इन्द्रनुं आसन चलित थाय एटले इन्द्र पण भगवानना जन्मना समाचार जाणी, पोताना समग्र परिवार साथे पंचरूपे प्रभुने ग्रही, पांडुकवनमां धामधूमथी जन्महोत्सव उजवे छे अने राजमहेलमां सौने अवस्वापिनी निद्रामां डूबाड्या हता तेने अपहरे छे अने बत्रीस कोडि सुवर्णनी वृष्टि करे छे. अंते कवि जणावे छे के जे आ 'संभवनाथकलश' भणशे तेने रिद्धिवृद्धि थशे तथा नव निधि अने आठ सिद्धिओ प्राप्त थशे.
उपलब्ध स्नात्रपूजामां पांच के सात जिणंदाने कुसुमांजलि अर्पण थती वर्णवी छे ते पैकी अंते आवतो कळश अनुक्रमे श्रीआदिनाथ, श्रीशान्तिनाथ, श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीसर्व जिणंदानो रचायो छे. श्रीनेमिनाथ तथा श्रीमहावीर स्वामिना कळशो उपलब्ध थया नथी. हवे 'श्रीसंभवनाथकलश'नी कृति प्राप्त थता, दरेक जिनेश्वरना अन्य कळशो पण रचाया होवानो संभव लागे छे.
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अनुसंधान-२७
टिप्पण:
(१) विविध पूजासंग्रह - पृ. ३४
(२) एजन, पृ. ४६ (नोंध : कलशनी प्रारम्भिक पंक्तिओमां 'श्रीसूर्यपुरमंडणो' एवं पद छे, ते उपरथी एम जणाय छे के सूर्यपुर-सूरतना श्रीसंभवनाथ चैत्यने अनुलक्षीने आ कलश रचायो होवो जोईए. .-सं.)
ज्ञान महोदयकृत (?) संभवनाथकलश
ॐ नमः । स्वस्तिश्रियां मंदिरमिंइ वंद्य, सम्यक्त्वदेवद्रुमवारिवाहं । रत्नात्रयाराधनपुष्टहेतुं, सस्नपते संभवनाथबिंब ॥१॥ एहवा श्री संभवनाथ, अनाथना नाथ तारण भवजल पाथ, साचो शिवपुरी साथ, सकल मंगलैकनिलय, स्यादवाद विद्याना आलय, भव्यजन मनरंजणो, दष्टाष्ट कर्मभंजणो. अनादिकालीन विभाव विहंडणो, श्री सूर्यपुरमंडणो- इक्ष्वाकु वंश विभूषणो, श्रीजितारि भूप कुलकमल दिनेश्वर, श्रीसंभवनाथ जिनेश्वर, तेह तणो कलश भणिसुं ।
(हां रे जिनजननी जिनने ए देशी) श्रीजंबूधीपें दक्षिण भरत मझार तस मध्य खंडे, नयरी सावत्थी सार, राज्य करें श्रीभूप जितारी नाम तस व्या(मा)ता सेना शीलगुणें अभिराम ॥१॥ उवरिमहिट्ठिम वर ग्रैवेयकथी देव फागुण सुदि अष्टमी चवी उपजें ततखेव
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मृगशिर नक्षत्रे मिथुन राशे रह्यो चंद मज्झिम रयणी समें गर्भ धरें अमंद ॥२॥ तव रानी पेषे(खें) सुपना दश में च्यार तस वर्णन अनोपम, कहिंता नावे पार पहिले जग[गजादीठो बीजे वृषभ उदार त्रीजे हरि, चोथो श्रीदेवी श्रीकार ॥३॥ पांचमे वर पुष्पनी माला, छठे चंद, सातमे दिनकारक, आठमे धजा आनंद नवमें शुभ कलश, दशमें पद्म तडाग ईग्यारमें सागर, देवविमान उत्तंग ॥४॥ तेरमें मणि रासी चौदमे निधूम अग्नि शुभ सुपनां देखी राणी थाओ मग्न जागी प्रिऊ पासें आवी वात कहंत नृप सुपन पाठकने तेडी फूल पूछंत ॥५॥
ढाल
नवमें मासे ने सातमें दिवसें संभव जिनवर जायाजी मागशिर सदि चौदसि मध्य रातें छपन कुमरी न्हवरायाजी ततखिण चौसठि हरिनां आसण साथै कंपित थावेंजी निज निज हरिणगमेषी बोलावी निज निज तूर वजडावेंजी ॥६॥ तिहां भुवनपतीना वीसें सुरपति, शंख शबद संभलावेंजी सात कोडि बहोत्तर लख भुवनना देव मिली तव आवेजी भुवनपतीना सामानिक सुर दुगलष(ख)दुतीस हजारजी एहना अंग रक्षवा नव लाष(ख)ने अडवीस सहस उदारजी ॥७॥ त्रायत्रिंशक पण षटमहिषी लोगपाल वली च्यारजी सात अनीक नै तीन परखदा इम कोडिगमें परिवारजी
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अनुसंधान-२७
प्रत्येके हरि साथें आवी मंदर भूधर जावेंजी अभियोगिक सुर तिहां हरि हुकमें क्षीरसमुद्र जल ल्यावैजी ॥८॥ व्यंतरना बत्रीसें सुरपति निज निज नगरो मझारजी पडह निनाद सुर तेडाया आया हरख अपारजी एक लाख ने अडवीस सहसा सामानिक सुर मेहनाजी पांच लाख ने द्वादश सहसा आतम रक्षक जेहनाजी ॥९॥ सात अनीक में तीन परखदा अग्रमहिषी च्यार च्यारजी अभियोगिक सुर कोडिगमें तिहां प्रत्येके परीवारजी इणि परें व्यंतरना सह नायक कनकाचल परें आवेंजी तीरथ जल ने सरसव मृत्तिका कुसुम कलश अणावेंजी ॥१०॥
___ ढाल : ३ देशी ललनानी (पूरण कलश शुचि उदकनी धारा जिनवर अंगे नामे रे) देती जोतीसीना दोय इंद्र, शशी रवि आसन चलियां ताम रे सिंहनादें सवि सुर तेडाया, आवें मन अभिराम रे ॥१॥ जवनव वाहन नवनव भूषण, नवनव वेष बनावें रे अष्ट सहस सामानिक बेहूना, ते पणि साथें आवे रे ॥२॥ बत्रीस सहसा आतमरक्षक, इंद्राणी च्यार च्यार रे सात अनीक ने तीन परखदा, आवे हरख अपार रे ॥३॥ अभियोगिक सुर पणि वली एहना, आवें कोडाकोडी रे केई निज भक्ते केई आचारे, प्रिया मित्र होडाहोडी रे ॥४॥ वलिय प्रकीर्णक विबुधा विविध, भक्ति करण जिनराज रे कंचनगिरि पर आवें सघला, जन्म महोच्छव काज रे ॥५॥
ढाल - ४ (नमो रे नमो श्री सेज गिरिवर (देशी) जनममहोच्छव स्नात्र करेवा वैमानिक दश इंदा रे, आसन चलित ने अवधि प्रयुंजे, जाणे जनम जिणंदा रे ॥१६ ज०||
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ततखिण हरिणगमेषी बोलावी, घंट सुघोष वजडावे रे बीस लाख विमानना सुरनें मोहनी निद्रा गमावे रे ॥१७ ज० ॥ कलपोपपन्न विमाननी संख्या, जाणो चुलसी लाख रे सहस छनू ने सातसें उपर, एहवी प्रवचन साख रे ॥१८ ज० ॥ सोहम सुरपति पालक जानें, लाख जोयण जस मान रे मध्य भागें बेठा हरी पोतें, सिंहासने शुभ थान रे || १९ ज० ॥
सन्मुख आठ इंद्राणी बेसें, वामें सामानिक देवा रे सहस चोरासी भद्रासन तेहना, जिमणा परखद देवा रे || २० ज० ॥ हरियाबल सात कटकना स्वामी, तस भद्रासन सात रे
चिहुं दिशें चुलसी चुलसी सहसा, अंगरक्षकना अवदात रे || २१ ज० ॥
आयुध लेईनें चिहु दिशि ऊभा, हरि सनमुख कर जोडि रे तीन लाख नें छत्रीस सहसा, आत्मरक्षक मन कोडि रे ॥२२ ज०॥
इम कल्पवासी सहु सुरपतिना सामानिक सुर छेक रे पांच लाख ने षोडश सहसा, अभियोगिक अनेक रे ॥२३ ज० ॥
वीस लाख नें चोसठ सहसा, अंगरक्षकना मान रे
अभिनव वाहन अभिनव भूषण, अभिनव रविय विमान रे ॥२४ ज०॥
चौंसठ इद्रना सामानिक सुर अडलख चूलसी हजार रे
अंगरक्षक सुर पांत्रीस लाख, छत्रीस सहस उदार रे || २५ ज० ॥
नंदीसरे आवी जान संकोची, आवे मेरु गिरिंदे रे
चार निकायकना सुर सुरी मिलीया, मनमां अति आनंद रे || २६ ज० ॥
ढाल ५
(इम जिननी पूजा करी हे साहिब ए देशी)
नंदीसरवर दीपथी ते साहिब नंदिसरवर दीपथी, आवें सोहम इंद्र जनमपुरी जिन - जननीने प्रणमें मन आणंद ॥२७ नं० ॥
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रतनगर्भा तुझ कूखिमा, ऊपन्ना रतन्न जनम महोच्छव कारणें, आव्यो शुभ मन्न ॥२८ नं० ॥
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अनुसंधान-२७
इम कही दें परिवारने, अवस्वापिनी नींद प्रतिबिंब तिहां थापीने, चाल्या मेरु गिरिंद ॥२९ नं० ॥ पंच रूपें प्रभुनें ग्रही, आवें पांडुकवन्न तिहां चोसठि सुरपति मिल्या, हरख्या भवि मन्न ॥३० नं० ॥ दक्षिण दिशि सिंहासने, शक्रु लीइं रे उत्संग इम कोडि सठि लाख कलश लैं, स्नात्र करें हरिरंग ॥३१ नं०॥ इणि परें जनम महोच्छव करी, करें समकित शुद्ध अनुभव रस आस्वादता, सवि मघवा विबुद्ध ॥३२ नं०॥ तदनंतर शकेन्द्रजी लेई प्रभूने उल्हास अंगूठे अमृत ठवी, मेलें पो(मा)तानें पास ॥३३ नं०॥ स्वापिनी निद्रा अपहरी, करें रतननी वृष्टि बत्रीस कोडि सुवर्णनी, प्रभु पुण्य गरिष्ट ॥३४ नं० ॥ नंदीसरे उत्सव करी, सुर गवा निज ठाण प्रभु गुण गण गंगा जलें, करता पवित्र अपाण ॥३५ नं० ॥ इम जे भवि जिनराजना, करें पूजा सनाथ सकल कुशल संपत्ति लहें, करें कर्म प्रमाथ ॥३६ नं० ॥ श्रीसंभवनो कलस ओ भणतां रिद्धिवृद्धि ज्ञान महोदय पद लहें, नव निधि अड सिद्धि ॥३७ नं०॥
इति श्री संभवनाथ प्रभूनो कलश संपूर्ण
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दुगलख
अडवीस
कोडिग
गवा
विहंडणो
प्रिऊ
तूर
दुतीस
चुलसी
उवरिमहिठ्ठिम
जान
सनाथ
अघरा शब्दोनी यादी
बे लाख
अठ्ठावीस
करोडोनुं
गया
विनाशक
प्रिय, प्रेमी
एक वाद्य
बत्रीस
चोरा/शी
जैन - परंपरा - मान्य नव ग्रैवेयक देवो पैकी सातमा ग्रैवेयक देव - कल्पनुं नाम.
यान (विमान)
स्नात्र
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अनुसंधान-२७
श्री मेघकुमार गीत
(संपा.) रसीला कडीआ
प्रस्तुत कृति ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावादना ग्रन्थभंडारमाथी श्रीलक्ष्मणभाई भोजक द्वारा मने मळी छे अने ते माटे तथा आ कृतिना सम्पादनमा तेमणे करेली सहाय माटे हुं तेमनी ऋणी छु. प्रस्तुत कृति विविध कृतिओना गुटकाना पाना नं. ६१ परथी लीधी छे. एक पत्रनी आ प्रतना गुटकानो सूचि नं- ला.द.ले.सू. ८४६० छे. २१ कडीनी आ कृतिमां प्रशस्ति अने पुष्पिका द्वारा आपणने कर्तार्नु मात्र नाम ज 'पूनपाल' प्राप्त थाय छे. रचना संवत के लेखन संवत प्राप्त थतो नथी. लेखन मु.श्री कर्मतिलके कर्यु छे अने ते मु. श्रीकर्मसुन्दरनी वाचना माटे लखेल होवार्नु जणावेल छे.
श्रेणिक राजाना पुत्र मेघकुमार आ गीतना वर्ण्य विषय छे. श्री महावीर प्रभुनी देशना सांभळीने विरक्त बनेला श्री मेघकुमारने दीक्षा लेवानुं मन थतां तेओ पोतानी मातानी अनुमति अर्थे माता पासे आवे छे. कई माता यौवनमां संयमनो कठिन पथ पोतानो पुत्र पसंद करे ए इच्छे ? अहीं पण माता धारिणी अने वत्स मेघकुमारनो अतिसुन्दर संवाद सुचारु शैलीमां निरूपायो छे. केवा लालनपालनमां दीकरो उछेर्यो छे ते मा सुपेरे जाणे छे. वळी क्षणिक आवेशमां विरक्तिनो रंग लाग्यो हशे जाणी माता काचलीना पात्रमा अरसविरस-स्वाद विनानं-बेस्वाद पण होय तेवू भोजन जमवानुं शे, भोंय सूवानुं अने हाथी-घोडा-पालखीने बदले पगे चालीने भमवानुं हशे तेवी वास्तविकता सामे धरीने पुत्रने तेनो सुकोमळ देह अने उछेर जोतां अनुमति आपती नथी. आर्द्रकुमार ने मुनि नंदिषेणने पण संयममां विषय केवो दुर्जय रह्यो हतो तेनां उदाहरणो पण आपे छे अने ऋतुओनो सीधो सामनो करवानो आवशे त्यारे ज संयम अपार विषम लांगशे, ए ठसावे छे.
आम छतां, दीकराने तो वीरचरणनो रंग लागी चूक्यो छे. ते ऊखडे तेम नथी, तेथी मातानी आ तमाम दलीलोनो अकाट्य प्रतिवाद करे छे. ते कहे छे के निगोदमां हतो त्यारथी अनंत दुःखोनो साथ रह्यो छे अने आ
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भवे केटला श्वासोच्छवास लईने आव्यो छे तेने हुं जाणतो नथी. वळी जरानो भोग बनीश, गात्रो शिथिल बनशे त्यारे हुं दुर्लभ धर्मनी आराधना केवी रीते करी शकीश ? शालिभद्र. अने जंबुकुमारनां उदाहरणो छ ज ने ? केटकेटला वैभवोने छोड्या शालिभद्रे ? केटली नानी वय हती जंबुकुमारनी ?
__ माता लागणीओथी जीतवानो प्रयत्न करे छे तो ते कहे छे - आ जगतमां सौ स्वार्थर्नु सगुं छे. मने सुखरूप छे ते संयमनी अनुमति आपो तो सारुं छे. आम अनुमति लई आठ पत्नीओने पण मनावी ले छे. पति विना शृंगार शा काजे एम मानती पत्नीओने पण माताले अनुमति आपी दीधी छे एम जणावे छे. अने आ रीते श्रेणिकराजा तेओने वाजते गाजते महोत्सवपूर्वक दीक्षा आपे छे. संयमपालनथी तेओ अनुत्तर विजय विमान नामना देवलोकमां जशे. त्यांथी महाविदेह क्षेत्रमा जशे. त्यां केवळज्ञान पामी मोक्षे जशे एम अन्ते कवि संयमधर्मना फळने जणावे छे.
प्रस्तुत कृतिनी मनोहारिता माता-पुत्रना संवादमां छे. जेमां जगतनी तमाम मातानी मनोकामना, पुत्रनी चिन्ता अने वत्सलता केवी होय छे तेनां दर्शन थाय छे.
कवि श्री पूनपालकृत
श्री मेघकुमार गीत वीर जिणंद समोसर्याजी, वंदइ मेघकुमार सूणी देसण वइरागीउजी, एह संसार असार ॥१॥ हे माऊडी अनुमति दिउ हम आज, संयमसिरि हम काज, हे माउ० आंकणी वच्छ कुणइ तुं भोलविउ रे, श्रेणिक राय निरेस काइ कुणइ कुणइ दूहविउ रे, हुं नवि दिउं आदेस रे ॥२॥ जाया संयम विषम अपारि, किम निरवाहिसि भार सकोमल संयम विषम अपारि । द्वितीय आंचली आदि न(नि)गोदइंहि जिहां रुलिउ हे, सहीआं दुक्ख अनंत सासउसासहि भव पूरिआं हे, ते नवि जानुं अंत ॥३॥ हे माऊडी०
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हविडां तुं बालक अछइ रे, जोवन भरीअ कुमार आठ रमणि परणावीउ रे, भोगवि सुख अपारि रे ॥४|| जाया० जनम मरण नरयां तणां हे, दुख न सहणउ जाइ वीर जिणंद विखाणीआ हे, ते मंइ सुणीआ आज ॥५॥ हे माऊडी० वच्छ काचलीय जीमणउ रे, अरिस विरस आहार भुंइ पाला नई हीडिणउं रे, जाणिसि तब हिं कुमार रे ॥६॥ जाया० भमतां जीव संसार माहि हे, धर्म दुहेलुउ माइ जर व्यापइं इंद्रि खिस्यइं हे, तब किम करणउ जाइ ॥७॥ हे माऊ. जोवनभरी दीख्या लेई रे, आर्द्रकुमार सुजांणी नंदषेण आगइ नडिउ रे, विषय दुजय सुत जाणि रे ॥८॥ जाया०संय० शिवकुमारि किम परहरी हे, भोग पंचसइ नारी सालिभद्र जंबू तजी हे, खूता नवि संसार ॥९॥ हे माउ० सीआलइ सी वाजूस्यइ हे, उन्हालइ लूअ साल बरसालइ मइलां कापडां हे, जांणिसिं तबहिं कुमार रे ॥१०॥ जाया०संय० सुबाहु प्रमुख दस जे हुआ है, पंचपंचसइ नारि राज रिद्धि रमणी तजी हे, जांण्यउ सुख न संसारि ॥११॥ हे माडी० मृगनयणी आठइ रुडइं हे, नयणे नीर प्रवाह भरि जोवन छोरू नहीं रे, मूकि म पूत अणाह रे ॥१२॥ जाय० संय० स्वरथ जगि सवि वल्लहुउ हे, सगु न किसही कोई विषम विषउ एह सही हे, किम भोगविइ सोइ ॥१३॥ हे माऊडी० हंसचूलिका सेजडी रे, रूपि रमणी रस भोग एणि सूंआला देहडी रे, किम लेइसि गिरि जोग रे ॥१४॥ नीया० संय० खमि खमि माइ पसाउ करीनइ, मइ दीधउ तुम्ह दोस दिउ अनुमति जिम हुं सुखा हो, वीर चलणि लीउं दीख ॥१५॥ हे माउ०
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तनु फाटई लोअण झुरइ रे, दुख न सहणउ जाइ होइ सुखी जिम तिम करउ रे, अनुमति दीधी माइ रे ॥१६॥ जाया० मणि माणिक मोती तजी रे, तोडइ नवसर हार सुकुलीणी आठइ भणइ रे, हवि हम किस्यउ सिंगारू कुंअरजी ॥१७॥ कुंअर भण सुकुलीणीआं हे, हम संसार न काज तेह तम्हारउ जाणिस्या हे, जउ लेस्यउ संयम आज ॥१८॥ सुकुलीणी० अनु० रथ सबिका सवि सज कीआ हे, कुमर धारिणी माइ श्रेणिकराव उच्छव करइ रे, चारित्र दिउ जिणवर रांउ हे स्वामी ॥१९||संयम० तपि तनु पोषी तिहां गउ हे, अनुत्तर विजय विमांण महाविदेहइं सीजसी हे, पामी केवलि नांण ॥२०॥ हे मा० इम वइराई सदा धरीजी, रमस्यइ जे नरनारी कर जोडी पूनपाल भणइजी, ते पामइ भव पार ॥२१॥ हे सांमी० संयम० इति श्री मेघकुमार गीत समाप्त: मु० कर्मतिलक लिख्यत
मु० कर्मसुंदरेण वाचितारर्थं ॥ सुभं भुआत् ।.
अघरा शब्दोनी यादी
कडी नं.
8 r mr 3
निरेस नरेश निगोद अनन्त जीवोनुं एक साधारण शरीर सासउसासहि श्वासोच्छवास नरयां
नरक काचलीय काचली-लाकडानुं पात्र जीमणुउं जमवा माटे
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भुंइ पाला हीडिणउ दुहेलउ जर इंद्रि खिस्यउं खूता
भूमि पर सूq परिभ्रमण/ चालवा माटे प्रवृत्त थर्बु दुर्लभ जरा-घडपण इन्द्रियो खसी जाय/इन्द्रियो-गात्र शिथिल थवा खूप्यो । गरकाव थq ठंडी वाशे
सी
अनाथ
वाजूस्यइ अणाह स्वरथ सबिका सीझसी
स्वार्थ
शिबिका-पालखी सिद्ध थशे.
★★★
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श्री आदिनाथ वीनती पूजा
सं. डो. रसीला कडीआ
प्रस्तुत कृतिनी नकल ला.द.भा.विद्यामन्दिर, अमदावादना त्रूटक पुस्तक परथी करी छे, अने श्री लक्ष्मणभाई भोजके आ कृतिने उकेलवामां मार्गदर्शन आप्युं छे ते बदल तेमनी तथा संस्थानी हुं ऋणी छु.
एक ज पत्रनी आ प्रत छे. आ प्रतमां लेखन संवत आपवामां आवी नथी पण लेखनरीति उपरथी १९मो शतक अनुमानी शकाय तेम छे. कृतिने अन्ते 'पं. सुधाभूषणशिष्येणालेखि०' जणाव्युं छे. श्रीलक्ष्मीसागरसूरिना श्रीजिनमाणिक्य अने तेमना शिष्य अनन्तहंसे आ वीनती रची होवानुं २२मी कडीमा उल्लेखायुं छे. गच्छपति रत्नशेखरसूरिना शासनमां आ रचेल छे.
कृतिमां लखाण घणुं ज छेकछाकवाळु छे. केटलेक स्थळे वर्णव्यत्यय थयो छे. अनुस्वारोनो उपयोग घणो छे. २१मी कडीने अन्ते 'इति श्री आदिनाथ वीनती पूजा' लख्या बाद अने ए ज हस्ताक्षरमां नीचे तथा हांसियामा २२मी अने २९मी कडीओ आपेली छे जेने लिप्यन्तरमा में सळंग लीधी छे.
प्रस्तुत कृतिमां कवि शत्रुजय यात्रा करीने श्री आदिनाथ भगवानने भेटवानी कविनी तीव्र उत्कंठा प्रगट करी छे. प्रभुप्रतिमानुं वर्णन कर्यु छे तेमां आ भाव सुपेरे प्रगट थाय छे. अहीं कविओ सिद्धाचल पर सिद्धिने वरेलां सौने याद कर्या छे. पछी पोते पण प्रभु विरहमां केवा झूरे छे अने 'भवे भवे तेमने भेटवा आतुर छे ते तेना भाव सदृष्टान्त वर्णनमा प्रगट थाय छे. 'क्यु न भये हम मोर, विमलगिरि' ए जाणीती स्तवनपंक्तिनी पेठे कवि अहीं पण विमलगिरि पर वसतां अने नित्य सुप्रभाते प्रभुपदे नमतां पंखीओनां जीवननी कृतार्थता-धन्यताने स्मरे छे. पोते पण वादळने जोईने नृत्य करतां मोरनी पेठे, चंद्र अने चकोरनी पेठे शेव्रुज शिखरने जोईने हैये हरखे छे.
'श्रीआदिनाथ वीनती' नामक कृतिओ अनेक उपलब्ध छे. तेमां आ कृति उमेरारूप छे अने अभ्यासीओने रस पडे तेवी छे.
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आदिनाथ वीनती पूजा
सुणी सेजा सिहरि श्रृंगार हार, घणा दिवसनुं अलं (ल) जउ हुं अपार. व्यु (यु) गादीस हुं वंदिसु सीस नामी करूं वीनती आपणुं साम पामी. १
अनुसंधान-२७
धन ललत सरोवर तणी पालि, करइ कलिवर (कलरव ) कोईला अंब डालि धन सरल सोहामणी साद चंग, सुणिं श्रवणि जे उपजइ मनह रंग. २
. चडिउ पावडी जेतलइ भवण केरी, तव प्रभु तणी भेटि लाधी भलेरी, दोइ लेप आरा (र) स मूरति निहाली, इस्युं तीरथ नथी सेतुंज टाली. ३
होई हरखनी वेलडी आज ऊगी, मुझ मांडली आज आसीस पूगी. धन नयणले जे युगादीस दीसइ, धन वयणलां जे प्रभु वीनवीसइ. ४ भलइ पामीउ माणसु अ जम्म सारु, भलई लेटिओ श्रावक - ओज मारु. भलइ जइ आविउ सेत्रुज सिहरि राज, भलइ भेटिओ आपणुं सामी आज. ५ हिव हेल दे बाल जिम नमिसु आज, मन रुलीअ हुं मागिसुं मुगति राज, गुण गाईसिउं प्रभु तणा मधुर सादि किवारीइ वली वंदिसु श्री युगादि. ६
जाउं आंखि ऊआरणइ रिसहनाह, तोरी भमुहडी भामणह गुणसंणाह. तोरी बाहुडी हुं ले लाहर जीऊं (?) गुण ताहारा अंगना रंगि गाऊं. ७
इणि रवि तलि रूअडउं सहू अछइ, पिणि प्रभु तणा निरपम रूप पछइ धन ते जण जात्रइ तुम्हारी जाई चडइ चैत्र वदि जनम आठमि जाणी. ८
धन चैत्र पूनिम नमुं सीस नीमी, जिहां पंचकोडि पुंडरीक सिद्धिगामी. ने (न) मि - विनमि दोइ कोडिसुं सिद्धिगामी, सदा सेविवउ सेत्रुज सिंहरी सामी. ९ इहां अहूठ कोडि जादवकुमर सीधी सही, सेत्रुज सिहरि पुहवी प्रसिद्ध. दस कोडिसिउ द्रविडनइ वाइ (रि) खिल्ल इहां उपन्नं नाण एकलमल्ल. १० इहां पांच पांडव वली वीस कोड, गया सिद्धि वंदउ करकमल जोडि इहां सिद्धि संख्या लहुं नहि अपार, करुं तेहनइ सविहुनु जुहार ११
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इहां राइणि रुख रूडउं निहालु, तिहां आपणां पापी(प)ना ताप टालुं समोसरण हूआं जिहां जिण अणंत, धन ते प्रभु वंदिअ विजयवंत. १२ सुणिसु रूअडा रूअडा रयण सार, तारी अंखडी दिइ मझ अकवार. जिम वंदिइ वली वली मनह रंगि प्रभु आपणु सेर्बुज सिहरि श्रृंगि. १३ मोरु मन रहिउ ताहीरइ चलणि लागी, तव तुम्ह कन्हइ आज नइ सुगति
__म(मु)गति मागी. एह तीरथ सासतुं सिद्धक्षेत्र, युगादीस जाणे जिहां जगहनेत्र. १४ वसइ विमलगिरि उपरि पंखजाति, धन प्रभु पय नितु नमंइ सुप्रभाति छहरी पालतां जे जण करई जात्र, तेह नितु नितु निरमल हुंइ गात्र. १५ अरे विषय वयरी तुझ न हीअ लाग, तुज परि उपनु मुज विराग अरे मोह मतंग तु हारी नासि, हवइ आपणुं ठाम ते करीसुं विमासी. १६ जगि जेहनी कहनइ नही पाडि, तेहू भुजबलि भागीअ कर्म धाडि मिलिवउ ठाकुर आपणु तु आज हेव, सोई समरथ सेत्रुज धणीअ देव. १७ अह दरसणि दुर्गति दोइ नासिइं, एह दरसण छूटि गर्भवासइ अछइ एतलुं एह संसार सर करइं, त्रिभुवन तीरथ जे जे हार. १८ जिम मनस सरोवरे रायहंस, तिम तुज गुणि मोरडउ रमइ हंस जिम मधुर करमालती रमइ रंगि, मन माहरु सेत्रुज सिहरि श्रृंगि १९. जिम जलधर पेखि, नाचंति मोरा, हीइ हरखीइ जीम चादाचकोरा. तिम सेत्रुज सिहरि हुं रंगि लीण उ करुं वनती केतली बुद्धिही'. २०. धन घडीअ वेला, दिन, वरिस, करइ सेत्रुज नर जे सिहरि वास घणी वनंती एह ज वात सारी ली, भवि भवि भेटि देज्यो तुम्हारी. २१ सिरि लच्छिसायर जगदिवायर सीस जिनमाणिक गुरो. तस सीसलेसइ अनंतहंसइ थुणिओ सेव्रुज गिरिवरो. २२.
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अनुसंधान-२७
सिरि रयणसेहरसूरिसेहर पट्ट गयण दिवाकरो. रिसह जिणवर अमृत विर बोधि बीज सुहंकरो. २३
इति श्री आदिनाथ वीनती पूजा पं. सुधाभूषणशिष्येणालेखि.
अघरा शब्दोनी यादी आदिनाथ
युगादीस अलजउ हेल किवारीइ
भमुहडी
उआरण सासतु भामणह. अहूठ
आतुर धक्को क्यारेक भ्रमर ओवार| शाश्वतु भामणां-ओवारणां लेवा साडा त्रण शिखर सामीप्य कळरव वर्तुळ/मंडळ ताहरा/तारा
सिहर
साम
कळिवर मांडली ताहीरइ
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'प्रमाणसार' विषे अनुसन्धान-२५ (सप्टे.२००३)मां प्रकाशित, मुनीश्वरसूरिरचित 'प्रमाणसार' नामे लघुग्रन्थ परत्वे स्पष्टता करवानी के ए ग्रन्थ १९७३मां L.D.Series (no. 41)अमदावादमां डो. नगीन जे. शाह द्वारा सम्पादित 'जैन दार्शनिक प्रकरण सङ्ग्रह' नामे ग्रन्थमा सम्पादन-प्रकाशन पामेलो छे, ए बाबत हजी हमणां ज, फेब्रुआरीमा ज ध्यान पर आवेल छे. जो के सम्पादन माटे उपयोगमा लेवायेली हस्तप्रति, अमारा द्वारा उपयुक्त प्रतिओ करतां साव भिन्न छे, अने तेने कारणे वाचनामां पण क्यांक थोडोक तफावत जोवा मळे छे. 'अनुसन्धान' माटे आ ग्रन्थ, सम्पादन हाथ धरतां अगाउ, आनी वधु प्रतिओ मेळववाना तथा वधु जाणकारी मेळववाना हेतुथी L.D.I.I. पर बेएक पत्र पाठवेला. परंतु कोई पण कारणसर तेना जवाब मने मळेल नथी.
हमणां में आ बन्ने सम्पादनो मेळव्यां छे, बन्नेनी तुलना करतां 'अनुसन्धान'नी वाचनामां जे पाठ खूटे छे के जे पाठमा क्षति रही छे के ज्यां पाठभेद जणाया छे, तेनी नोंध नगीनभाई-सम्पादित वाचनामांथी लईने अत्रे आपवामां आवे छे. बन्ने वाचनाओमां तथा सम्पादनमा कांईक ने कांईक क्षति तो नीकळवानी ज. अहीं आपेल आ नोंधथी एक वाचना वधु शुद्ध अन वधु पूर्ण थशे तेनो आनन्द छे.
अनु. २५नुं सम्पादन भावनगरनी तथा लींबडीनी मळीने कुल बे प्रतिओना आधारे थयुं छे, ज्यारे नगीन शाहना सम्पादननो आधार L.D. ना. श्रीपुण्यविजयजी-सङ्ग्रहगत प्रति रही छे.
ग्रन्थनी प्रस्तावनामां श्रीनगीनभाईए नोंध करी छे ते प्रमाणे, 'प्रमाणसार'ना रचयिता श्रीमुनीश्वरसूरि वृद्धगच्छना आचार्य हता, तथा तेमनो सत्तासमय विक्रमना १५मा शतकनो उत्तरार्ध हतो. तेमनी गुरुपरम्परामां श्रीदेवाचार्य, जिनरत्नसूरि, तिलकसूरि, भद्रेश्वरसूरि वगेरे हता.
नगीनभाईना सम्पादननी विशेषता ए छे के तेमणे ग्रन्थमा आवतां उद्धरणोनां शक्य एटलां मूळ स्थानो शोधीने नोंध्यां छे.
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१.
२२
अनु.
(२५)
पृ.क्र.
२१
२१
२१
२१
२१
२१
२२
हवे पाठभेदादि नोंधीए :
ग्रन्थारम्भे ४ मङ्गलश्लोको छे, ते पछी एक आखो गद्यखण्ड आ प्रमाणे न मां मळे छे, जे अनु. मां उमेरवो जोईए
२. अनु. मां 'श्रीमुनीश्वरसूरीन्द्रैः' ए पांचमो क्रमाङ्क धरावतो श्लोक छे, ते न. प्रमाणे, 'प्रमाणसार' नो अन्तिम श्लोक छे. अने ए ज उचित लागे छे. (पृ. २१, पं. ५ )
३. हवेना पाठशोधन वगेरेनी तालिका आ प्रमाणे :
२२
२२
"ननु सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनवत् प्रकरणकरणं स्यात् । इह ज्वरप्रसरादिशेषशिरोरत्त्रोपदेशवदशक्यानुष्ठानाभिधेयं 'दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं' इति सम्बन्धवन्ध्यं च जनन्याः पाणिपीडनोपदेशवदनभिमतप्रयोजनं स्यात् । तत्र प्रेक्षाचक्षुषः क्षोदिष्टामपि प्रवृत्तिं न प्रारभन्ते । तदिह प्रमाणसारावबोधे निखिलं सिद्धम् । तदिद० । (अनु. पृ. २१ पं. ३)
पंक्ति क्र.
७ ननु प्रमाणिकानां आदितोऽत्र
न, तद्विप्रमिणोतीति
आत्मा वा प्रमाणम् । न,
प्रमेयं वा प्रमाणम् । न,
कर्मविलक्षणत्वाद्
१०
१०
११
१६
४
२३
२५
२५
पाठ
तर्जन्या०
( ऽसत्तावादिन् ?)
कथा०
नाम | अद्वैतं
-
न. पाठ
अनुसंधान - २७
तेषां प्रामाणिकानां
आदितः । अत्र प्रमिणोतीति
आत्मा वा, प्रमाणं न, प्रमेयं वा, प्रमाणं न,
कर्मविलक्षणं तद्
कृततर्जन्या०
अयोग्यमिदं संशोधनम् ।
[च] कथा०
नाम अद्वैतं,
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२३
rwM 9
२५
१७
२६
३
असिद्धमसिद्धेन
असिद्धम् । असिद्धेन कि सिद्ध्यै
किं सिद्धयेद् चैत्यमानं
चेत्यमानं स्वव्यवस्थाया अ० स्वव्यवस्थयाऽव० निर्मीतार्थाः
निर्णीतार्थाः ०क्षणे । अप्रा०
०क्षणे अप्रा० गुणः । यथा
गुणः । क्रमभावी पर्यायः ।
गुणः कथम् ? यथागुणः । क्रमभावी पर्यायः । गुणः । पर्यायः यथा
कथम् ? यथाइह प्रत्ययो
यथा- इहप्रत्ययो नर्थक्रियाकारि
नर्थक्रियाकारी सम्बन्धाभावो
सम्बन्धभावो स्ववाचकत्व०
स्वस्ववाचकत्व० घटशब्दोच्चारणेति(ऽपि) घटशब्दोच्चारणे सति शब्दार्थानुपलभ्येते ?।त० शब्दार्थावुपलभ्येते त० मुधामद्वि(?)
सुधा(धी)मद्भि० युक्तं तस्वीकृतं
युक्त्यन्तरेण स्वीकृतं तीर्थैः अत्यन्त व्या०
अत्यन्तव्या० गोत्वगोत्व०
गोत्वं गोत्व० विशेषार्पकाः
विशेषात्मकाः सरलस्वरन्ध्र०
सरलः स्वरन्ध्र० वृषस्यन्ती प्रतिवादिषिङ्ग । वृषस्यन्ती प्रति षिङ्ग प्रतीक्षते
प्रतीक्ष्यते 'सदेव स'
'सदेव सत्' ०मसत्त्वं च वि०
०मसत्त्वं च, न वि
१७
२६
२५
ه
तीर्थ्यः
२७
ه م
م
२७ २८
७ १८
به
له
३ १०
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अनुसंधान-२७
* * * * * * *
बोधच्युता
३
ل
न तु
ل
ل
कुलालादि,
कुलालादि [घटे], ०पराकाराश्रय०
०पराकारोदय० धारश्चैतदिति
धारश्चैक इति ३०
त्रयमिति न्यायावलीढं वचः त्रयमयं तत्त्वं तथाप्रत्ययात् ३१ १२
बाधच्युता सङ्ख्याप्रति०
सङ्ख्याविप्रति० ०पतिमुसन्ति
०पत्तिमुस(मुदस्य)न्ति ३२४ भाना
भागा सर्वजातौ
सर्वगत)जातौ सिद्धमेव
ऽसिद्धमेव ३२ १८ चक्षुरादि०
चक्षुरादेः ३२ १९ ननु अक्षशब्द०
अक्षिशब्द० श्रोत्राण्येन्द्रिय
श्रोत्राण्यन्ये (श्रोत्रान्येन्द्रिय०) तर्कतज्ञः
तर्कतज्ज्ञः ०देव । मनसो
देव मनसो ०ऽर्थावग्रहः । क्रमा० ०ऽर्थावग्रहः क्रमा०
०माशूत्पादात् । ज्ञानो० ०माशूत्पादात् ज्ञानो० ३३ २७ क्षेत्रावधिरूपिद्रव्यगोचरं । क्षेत्रावधि रूपिद्रव्यगोचरं
भव० पछी १ श्लोक उमेरो : तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् ।
प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे ॥ २३ ०ररूपम् ।
०रभूतम् । ३५ ३ ०मुत्पादयतः ।
मुत्पादयतः ०मस्तीति चेत् ।
०मस्तीति च । ९ वजितादि०
०व्रजितार्यादि०
ل
ل
سه
भव०
३४
३४
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३५
२
३७ ३७
३७
३८८
३८
पदार्थस्य । तत्त० पदार्थस्य तत्त० प्रतिषेधाश्च
प्रतिषेधाच्च इत्याप्त०
इति । आप्त० गोत्र १
गोत्व १ ६ भवद्भिरहरहः
oर्भवद्भिर्वाचोयुक्तीनां धुरि
भवद्भिरहरहः ७ कुर्महे हेच्छाः
कुर्महे महेच्छाः १६ युक्त्या जातः
युक्त्याऽऽयातः १८ उभयम् ।
उभयं समस्ति । कृतकत्वात्
कृतकृत्यत्वात् १० लालग्यात् । अतो० लालग्यात् । अशरीरश्चेत् किं
पिशाचादिवददृश्य इति ? तद्वत् चेत् तॉकिञ्चित्कर
एव। अतो० निमित्ति०
निमित्त मोक्षं विभ०
मोक्षेऽभिव्य० ०वयवाः । पञ्चावयवं
०वयवाः पञ्चावयव ०पदार्थानां
तत्त्वानां सम्बन्धसम्बद्धसन्नि सम्बन्धसन्नि० नैयायिकाः सिद्धम् । नैयायिकाः ।
योगाः माने
माने (मणि) जपन्त्यङ्गं
जपन्त्यन्नं महदहंकार०
महदहंकारः पञ्चतन्मात्राणि पछी उमेरण- [एकादशेन्द्रियाणि पञ्च
भूतानि चेति] कारणभावाभावा०
१४
यौगाः
कारणाभावा०
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अनुसंधान-२७
१४ कारणस्य रूप०
कारणस्वरूप० १८ वैशेषिकैस्तु द्रव्य अथ वैशेषिकाः । द्रव्य० २२ ब्रह्म विवर्त०
ब्रह्मविवत० २२-२३ ये(यै?) रेवाद्दितया . गेहेनर्दितया ४२ ५ . जलं [तथा]तेजो जलं तेजो ४२ १० अभू(भि?)भूय प्रभूभूय
'प्रमाणसार'ना त्रण परिच्छेदोनो सरस परिचय तथा उद्धरणोनां मूल स्रोतो विषे जाणवा इच्छनारे नगीन जी. शाह द्वारा सम्पादित ग्रन्थनी भूमिका जोवा भलामण छे.
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'चाणाक्य 'नुं एक दक्षिणी कथानक
ईसुनी दशमी शताब्दीमां थई गयेला मनाता दिगम्बर जैन साधु श्री शिवकोटि-आचार्ये कनड भाषामां रचेल कथाग्रन्थ 'वड्डाराधना' (वृद्धाराधना)नी १९ कथाओ पैकी १८मी कथा 'चाणाक्य'नी छे. जैन ग्रन्थगत चाणक्यकथामां अने 'मुद्राराक्षस'-वर्णित कथामां तफावत तो छे ज. परन्तु प्रचलित जैन चाणक्यकथा करतां पण वड्डाराधनानी कथा घणी जुदी पडी आवे छे, एटले ते कथा एक नोंधरूपे अत्रे आपवामां आवे छे.
वड्डाराधना ग्रन्थना मूळ सम्पादक डि.एल. नरसिंहाचार्य छे, अने तेमणे ई. १९४९मां तेनुं सम्पादन करेल छे. चाणक्यनी कथा मूळ कन्नडमांथी संस्कृतमां, शोधदृष्टिए, विद्वान् एस. जगन्नाथे अवतारी छे, जे केरल राज्यना वेलीयानाड (veliyanad) स्थित चिन्मय इन्टरनेशनल फाउन्डेशननी शोधपत्रिका Indic Studies (Vol. 1, 2002)मां प्रगट थयेल छे. ते परथी अत्रे संक्षेप आपवामां आव्यो छे.
एस. जगन्नाथे. केटलाक मुद्दा आ प्रमाणे नोंध्या छे : १. वड्डा० गत चाणाक्यकथा अने मुद्राराक्षसगत चाणक्यकथा-बन्नेमां आभ-जमीन- अन्तर छे. २. अन्य दिगम्बराचार्य हरिषेणकृत बृहत्कथाकोषमांनी चाणक्यकथा करतां पण आ कथा घणी जुदी छे. ३. शिवकोट्याचार्ये कोई ग्राम्य कथानोलोककथानो आधार लीधो होवो जोईए. ४. अहीं चाणक्यने 'चाणाक्य' तरीके ओळखाव्यो छे. कन्नड भाषामा प्रयोजातो 'चाणाक्ष' शब्द ते आ 'चाणाक्य'नो अवशेष होय, तेमज कन्नड आदि भाषाओमां प्रयोजाता 'चालाक' शब्द- अनुसन्धान पण आ 'चाणक्य' साथे होई शके. ५. 'मुद्राराक्षस' चाणक्यना जीवनना उत्तरार्धनुं ज वर्णन आपे छे, पण कोईए तेना जीवननी पूर्व-घटनाओनुं वर्णन निरूपता रूपकनी पण रचना करी होवी जोईए, अने तेना अनुसन्धानमां विशाखदत्ते, पूर्ववृत्तान्तने उवेखीने तथा पछीना वृत्तान्तने 'वस्तु' बनावीने 'मुद्राराक्षस' रच्यु होय, तेवी सम्भावना छे. ६. चाणाक्यनी (इतर साहित्यमां) प्रचलित कथानी तुलना के तुलनात्मक अभ्यास मुद्राराक्षसपरम्परानी कथा साथे हजी सुधी प्रायः थयो नथी, तेम मानीने तेवा अभ्यासनी
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पत्तन छे. तेनो राजा अथवा विश्वसेन गाने राणी साथ म कूवाकांदे
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अनुसंधान-२७ भूमिकारूपे आ कथा संस्कृतमां आपी रह्यो छु. हवे कथा जोईए :
जम्बूद्वीपना भरतक्षेत्रमा मगध नामे पुर (देश) छे. तेमां पाटलीपुत्र नामे पत्तन छे. तेनो राजा नन्दवंशनो पद्म नामे छे. राणी सुन्दरी अने पुत्र महापद्म. तेनो मंत्री कापि अथवा विश्वसेन छे. संयोगवश राणी अने मंत्रीने स्नेह थयो, एटले मंत्रीए विचार्यु के राजाने हणीने राणी साथे आनन्द करूं. ते राजाने, धन दाटवानी गुप्त जग्या देखाडवाना बहाने उपवनमां कूवाकांठे लई गयो, अने विश्वस्त राजाने हणीने कूवामां फेंकी दीधो. ते वखते वनमां फूल चूंटी रहेला माली वसन्तक आ जोईने डरी गयो अने भागी गयो. मंत्री विह्वल तो थयो, छतां नचिन्त थई स्थाने गयो. बीजी सवारे राजाने मळवा गयो, ते न मळतां तेने शोधवानो देखाव रच्यो ने शोक पण कर्यो. छेवटे महापद्मने राजा स्थापी पोते गुप्त रीते सुन्दरी साथे निरांते भोग भोगववा लाग्यो. पण महापद्ये थोडा ज वखतमां बधुं पकडी पाड्युं अने मंत्रीने तेना परिवार साथे सुरंग-केदमां पूरी दीधो. एक नाना वाटका जेटलुं बारुं रखावेलुं ते वाटे रोज एक वाटकी ओदन अने एक लोटो पाणी तेमने अपातुं. तेटलामां ज बधाए निर्वाह करवानो. एटले मंत्रीए सूचव्युं के आपणामांनो जे पुरुष शत्रु- अने नन्दवंशनु निकन्दन काढी शके ते ज आ वापरी जाय ने स्वस्थपणे जीवे; बाकीनां बधां भूख-तरस वेठीने जीवन समाप्त करे. मंत्रीना सुबन्धु नामे पुत्रे आ माटे तत्परता दर्शावतां तेना सिवायनां तमामे अन्न जल तजीने मृत्यु स्वीकारी लीधुं. .
त्रणेक वर्ष बाद, शत्रुओए आक्रमण करतां राजाने मंत्री सांभर्यो. तेणे सुबन्धुने बहार कढाव्यो अने मानपानपूर्वक मंत्री बनाव्यो. तेणे शत्रुओने चतुराईपूर्वक पाछा वाळ्या. राजा विशेष खुश थयो. राजानो बीजो मंत्री हतो शकटाल. तेनी पुत्री नन्दवतीनो विवाह सुबन्धु साथे थयो.
मगधमां ज शाल्मलि नामे अग्रहार (ग्रामविशेष) हतो, त्यां सोमशर्मा अने कपिला नामे द्विज-दम्पती रहेतां हता. तेमने चार दांतवाळो चाणाक्य नामे पुत्र थयो. तेने जोईने नैमित्तिक वसन्तके भाख्यु के आ नन्दवंशनो क्षय करीने कां राजा थशे, कां राजमंत्री. तेना पिताए पथ्थर लईने ते चारे दांत तोडीने फेंकी दीधा अने घसीने तेनुं मों सम करी नाख्यु. मोटा थई
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विद्यापारगामी थयेल सम्यग्दृष्टि श्रावक एवा चाणाक्यनां लग्न शकटाल मंत्रीनी नानी पुत्री यशोमती साथे थयां.
एकवार शोण नदीना किनारे तेना पगमां दर्भनी अणी भोंकातां लोही नीकळ्युं, तो तेणे गुस्साथी ते विभागनुं दर्भ उखेडीने सळगावी मूक्युं. आ दृश्य मंत्री सुबन्धुए जोयुं ने आम करवानुं कारण पूछ्यं, तो कह्यं के मारा शत्रुनुं हुं निकन्दन काढुं छु. मंत्रीए तेनी साथे मित्रता बांधी. तेनी अन्य परीक्षा करीने तेनी बुद्धिनो क्यास काढ्यो अने पछी राजा पासे तेने ६० गामोनी ब्राह्मणवृत्ति बंधावी आपी.
आ पछी सुबन्धुए ए ६० गामोना हकदार ब्राह्मणोने उश्केर्या, अने। तेमनी परम्परागत आजीविका पाछी मेळववानी विनंति तेमनी पासे राजा समक्ष करावी. पोते ते वातमां टेको पण आप्यो. राजाए सूचव्यु के चाणाक्यने तुं खसेड तो आ बधार्नु काम थाय. सुबन्धु गयो चाणाक्य पासे अने कह्यु के "राजाए मने आज्ञा करी छे के चाणाक्य वेश्यागामी अने हलकी सोबतवाळो छे, तेथी तेने काढी मूक." अने. ते साथे ज द्वारपाल द्वारा तेना वाळ वडे तेने घसडावीने बहार कढावी मूक्यो. क्रुद्ध चाणाक्ये नगरत्याग करतीवेळा प्रतिज्ञा लीधी के १२ वर्षमां महापद्मनो विनाश करीश; त्यां सुधी 'अर्धारुक' (लंगोट के अर्ध-अधोवस्त्र) नहि छोडुं'. पछी संन्यासीनो भगवो वेष पहेरी ते महोदकपुरे जई वस्यो..
हवे ते पुरनो स्वामी कुमुद हतो- मयूरवंशनो; तेनी मन्दा नामे राणी गर्भवती थई अने तेने चन्द्रनुं पान करवानो दोहलो थयो. केम पूरवो ? ते सूकावा लागी. चाणाक्यने जाण थतां तेणे का, दोहद पूरो करी आपुं, पण आवनारुं बालक मने सोंपवातुं. राजाए. हा कहेतां तेणे युक्तिथी चन्द्रपान राणीने कराव्यु. कालक्रमे पुत्र थयो तो तेनुं नाम 'चन्द्रभुक्त' पाड्युं. चाणाक्यने ते सोंप्यो. चाणाक्ये त्यारथी ज माखणमां अल्प विषमात्रा भेळवीने तेने उछेरवा मांड्यो. १६ वर्षनो ते थयो त्यारे चाणाक्ये तेना स्वजनादिने भेगां करी कर्वा के 'चन्द्रभुक्तमा सम्राट थवानां बधां लक्षणो छे. हुं तेने राजा बनावीश अने तमारी वृत्ति १६ गणी वधारी दईश.' आ पछी तेणे ते राजानी सेना तैयार करी श्रीपर्वतना शिखर पर ते सर्वने राख्या अने पोते सुवर्णसिद्धिनी
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अनुसंधान-२७
प
शोधमां नीकळी पड्यो जंगलमां क्यांक तेने सिद्ध रसनो कूवो जडतां कोईनी मददथी ते रस तेणे प्राप्त कर्यो अने पाछो आव्यो. पछी तेणे कपट वडे लोको पासे माटीना ढग अणावीने श्रीपर्वत पर कोट रचाव्यो, नवुं नगर वसाव्युं, अने पछी मोटी सेना लईने महापद्म उपर चडी गयो. हार्यो. ए पछी वर्षे वर्षे ते चडाई करतो, अने हारीने पाछो आवतो. एकवार ए रीते हार्या पछी चन्द्रभुक्त वगेरेने तो तेणे रवाना कर्या, पण स्वयं भागी न शकतां बचवा माटे तळावमां पेसी गयो शत्रुसैन्य गया पछी ते गुप्त रीते पाटलीपुत्रमां पेठो. त्यां एक वणकरना घरे जई त्यां रहेती वृद्धा पासे भोजन माग्युं वृद्धाए गरम 'यवागू' पीरसी, अने उतावळा चाणाक्ये तेमां एकदम हाथ नाख्यो. ते दाइयो. ते जोईने वृद्धा बोली : 'आ दुनियामां में त्रण मूर्ख जोया' चाणाक्ये पूछ्धुं : 'मा, ते त्रण कया मूर्ख ? मने कहो.' त्यारे वृद्धा कहे: 'पहेलो मूर्ख तुं; वासणनी किनारी परथी जरा जरा यवागू हाथमां लईए तो दझाय नहि, आटलीय गतागम तने नथी एटले. बीजो नन्दराजा; पोते समर्थ हतो, अने पोताने मारवानी प्रतिज्ञा करनार शत्रु हाथवेंतमां हतो छतां तेने जीवतो जवा दीधो एटले. अने त्रीजो मूर्ख चाणाक्य; तेनी पासे क्रोध सिवाय शुं छे ? पोते सेनापति नथी, क्षत्रिय पण नथी, अने छतां राजा सामे युद्धे चडे छे. जो एनामां बुद्धि होय राजाना राज्यने वणसाडे, तेना दुश्मनोने पोताना पडखे ले, तेना अधिकारीओने फोडी नाखे, भेदनीति आचरे, तो राजा एकलो पडे ने तेने जीती शके. पण आवडत जोईए ने !'
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चाणाक्य तरत त्यांथी नीकळ्यो, श्रीपर्वते जई सेनाने लई पाटलीपुत्र पर घेरो घाल्यो, अने साथे ज वृद्धाए कहेलां तमाम प्रयोजनो पार पाड्यां. परिणामे राजा जीव लईने नासी गयो अने सुबन्धु केद पकडायो. पछी तेणे चन्द्रभुक्तने राजा बनावी, महापद्मनी राणी चन्द्रमतीने तेनी पटराणी तरीके स्थापी. राजनी तिजोरी खाली जाणतां प्रजाजनोने नोतरी भोजनपूर्वक मद्यपान करावी नशामां ज तेमनां धन संताडवानां स्थाननी जाणकारी मेळवी लीधी, अने ते धन पडावी लईने तिजोरी भरी दीधी. आम १२ वर्ष जूनीं, नन्दवंशनिकन्दननी पोतानी प्रतिज्ञा पूरी कर्यानी खुशालीमां प्रजा साथे ते खूब नाच्यो, अने संन्यासीनो वेष कायम राखीने यशोमतीने बोलावी लीधी. सामन्तादि
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जनोने पण खुश कर्या, अने मगधदेशनुं पालन ते करवा लाग्यो.
एकवार, चन्द्रमती रथ पर आरूढ थई, ते साथेज रथना दशेदश आरा धरती पर पडी गया. आ जोईने चाणक्ये भाख्युं के मयूर(मौर्य) वंशनी दश पेढी राज्य भोगवशे.
बीजा एक प्रसंग राजा तेना क्रम मुजब विषमिश्रित भोजन जमतो हतो, त्यारे राणीने होंश थई आवतां तेणे पण ते भाणामांथी कोळियो लई लीधो. ते गर्भवती हती. अने ते समये चाणाक्य त्यां हाजर हतो. तेणे तत्काल तलवारथी राणी- मस्तक कापी नाख्यु, अने अंदरना गर्भने पेट चीरीने बहार काढी लीधो. तो पण बिन्दु जेटलो विषनो अंश तेना शरीर पर झरेलो जोई तेनुं नाम बिन्दुसागर पाड्यु. परंतु राणीना आवा मृत्युने राजा सहन न करी शक्यो, अने तेणे तत्काल प्राणत्याग कर्यो. पछी चाणाक्ये बिन्दुसागरनो राज्याभिषेक कर्यो.
ते युवान थयो एटले चाणाक्ये वैराग्यप्रेरित साधुजीवन स्वीकारवार्नु विचार्यु. सुबन्धुने केदमांथी बहार काढी, मानसहित मंत्रीपदे स्थाप्यो अने खमाव्यो. पछी पोते मतिवर नामे जैनाचार्य पासे दीक्षा लीधी. आगमो भणी अने तपस्या आचरीने तेओ आचार्य बन्या, अने सपरिवार सर्वत्र विचरता. एकवार पाटलीपुत्रनी नजीक वहेती शोण नदीना कांठे गोष्ठमां रोकाया. सुबन्धु तेमने मळवा तो आव्यो, पण पूर्वनो वेरभाव ताजो थवाथी तेणे पोताना माणसो द्वारा ठंडीथी रक्षणना नामे, मुनिगण हता, ते गोष्ठनी फरतां छाणांना ढगला गोठवाव्या, अने पछी तेमां आग चंपावी. ते आगे गोष्ठ अने तेमांना चाणाक्य आदि मुनिओने भरखी लीधा. मुनिओ पण शुभध्यानआराधनापूर्वक समाधि-मृत्यु पामी शुभ गतिए गया. चाणाक्य मुनि सनत्कुमार देवलोके गया.
कथानक बहु रसप्रद छे. घणी वातो कांईक जुदी होय तेवू लागे. तेमां पण १. चन्द्रगुप्तनुं नाम चन्द्रभुक्त; २. चाणाक्य १२ वर्षनी प्रतिज्ञा ले छे, पण ते पूरी करवामां लागतां घणां वधु वर्ष, अने छतां १२ वर्षे ज पूर्ण
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थवानुं विधान; ३. दिगम्बर मान्यता प्रमाणे तो चन्द्रगुप्ते पाछली वये दीक्षा लीधी हती अने ते पछी तेणे दक्षिणना कर्णाटकदेशना गोम्मटेश्वरना पहाड पर साधना करी हती, परंतु ते वात- मान्यतानो गंध सरखो पण, एक दक्षिणना जैनाचार्यनी कन्नड रचनामां पण नथी मळतो; आमां तो चन्द्रभुक्तने अकाल मृत्यु पामी जतो दर्शावेल छे !; आ बधी बाबतो क्यांक विसंगत तो क्यांक नवीन होवानुं मानी शकाय अभ्यासुओने आमां रस जरूर पडशे एम मानुं छं.
शी.
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विहंगावलोकन (अनुसंधान-२४y)
मुनि भुवनचन्द्र ।। अनुसंधान-२४नी सामग्रीनो प्रारंभ 'ते धन्ना०' स्तोत्रथी थाय छे. प्रभु आदिनाथना जीवनप्रसंगोने मनश्चक्षु समक्ष चित्रित करी हृदयने प्रभुप्रेमथी परिप्लावित करी जती आ रचनानी अंतिम बे गाथाओमां गरबड छे. अन्य प्रतोमां कदाच पूर्ण गाथाओ मळी आवे. दरम्यान, कवि-मनीषी मुनि श्री धुरन्धरविजयजीए आ बे गाथाओनी पुनः रचना करी छे (अनु. २५)ते पण सरस-सुसंगत छे.
___ 'अठोतरसो नामे पार्श्वनाथ स्तोत्र'मां १०८ तीर्थनामो पूरां छे. एक नाम खूटतुं होवा- सम्पादकने लाग्युं ते सरतचूक हती. आ तीर्थोना विषयमां शोधकार्य करवा जेवू छे. 'कुकडेसर' विशे म. विनयसागरजीए दर्शाव्युं छे तेम ते मध्यप्रदेशमां होई शके. एमणे स्तोत्रना कर्ता विशेनी पूरक माहिती पण आपी छे (अनु. २५) कच्छ-भद्रेश्वरमां मूळ तीर्थनायक पार्श्वनाथ भगवान होवा छतां १०८ पार्श्वनाथ तीर्थोमां तेनो समावेश थयेलो जोवा मळतो नथी. मूळनायक तरीके महावीरस्वामीनी प्रतिष्ठा थया बाद तीर्थमालाओ रचाई होवाथी कदाच एम बन्युं होय. स्तोत्रनी पहेली कडीमां 'सु-'मां खूटतो अक्षर 'ख' होइ शके- 'आपइ सुख'.
आ अंकनी शिरोमणि रचना छे- विजयवल्ली रास. ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वपूर्ण, भावसभर अने भाषाकीय दृष्टिए रसप्रद एवो आ रास अद्यावधि अप्रगट रह्यो ए जरा खटके एबुं छे. कविए तत्कालीन वातावरण खडुं करवा माटे ते समये राजकीय क्षेत्रे आकार लइ रहेली उर्दू भाषानो आमां छूटथी उपयोग को छे. आ भाषामां हिन्दुस्थानी-अरेबिक-फारसी जेवी भाषाओगें मिश्रण छे. श्री जयंत कोठारीए संपादित करेल 'स्थूलिभद्र चंद्रायणि' ('फार्बस' त्रैल, पु. ६५, अंक-१०२)मां आ भाषा छे. फारसी वगेरे भाषाओना शब्दकोशोनो आश्रय लीधा वगर आ रास स्पष्ट थई शके नहि. संपादक शीलचन्द्रसूरिए रासनो सारांश तो आप्यो ज छे अने महत्त्वनी वातो तरफ ध्यान खेंच्युं छे. व्यकट, ध्यन जेवा उच्चारो खंभात प्रान्तनी बोलीनां लक्षण छे.
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अनुसंधान-२७
पृ.
१३ मुगामाण
२१
रासनी वाचना विशे कंइकगा. मुद्रित
सूचित पाठ १६ मशचइ(?) 'मचावई' होइ शके. मुगामणि
'मुगटमणि' (झेरोक्स नकलमां ट
चोखो न ऊठ्यो होय एम बने) १६ पावि
'पाचि' (रत्ननुं नाम छे) २० हीरि उमरयना(?) । 'हीरि तु मरय ना'
(क्यारेक 'तु' उ जेवो वंचातो होय
छे.) 'हम ही थइ' 'हम हीथइ' (शाह अकबर कहे छे के अमे तो अहींज, तमारा तो चार खंडमां स्थान.) ढाल अयारांदपुबे अय यारा.... जेवं कंइक.
(गीतनी देशीना माळखामां वपरातो शब्दगुच्छ छे. दरेक कडीना प्रारंभे
समजवानो छे.) ४ . बनि
'बरनि' १४ सुन्यान
सुन्या न शिर पणि(एणि?) 'पाणि'
(गुरुजी, मारा सिर पर हाथ मूको) ४ संचऊर
संच ऊर (संचयंत्र) ढाल मुवी (पुहवी ?) भूवी
भारइं (?) 'भारइंहिं डोलए' एम होय.
(मोटो संघ चालवाथी शेषनाग भारना कारणे डोले छे.) ३५ शंकरी
'शंकरा' वांचवें जोइए २ क्रपाली
'क्रपाला' (रा अने री तथा ला अने ली वांचवामां भूल थई शके.)
२४ २५
३२ -
३३
३६
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'विविध कवि विरचित सज्झाय श्लोकादि संग्रह' ए शीर्षक नीचे पंदरेक लघुकृतिओ मुनि श्रीकल्याणकीर्तिविजयजी द्वारा मळे छे. 'खिमा पंचावनी' मां क्रोध अने क्षमाना आगमिक तथा इतर दृष्टान्तोनो समुच्चय प्राप्त थाय छे, 'नारी स्वरूप मां मधुर उपदेश अने शब्दलालित्य एकत्र मळ्यां छे. आमां थोडी वाचनभूलो, जोके, छे. (कडी ३ ) ' आणइ जमारइ नही अमारइं तुम्ह विना रे' आवी पंक्ति होवी जोइए. 'जमार' = जीवन. (कडी ५- ) 'सूकइ' ने स्थाने 'चूकइ' जोइए. (कडी १० - ) 'हाकी'ने स्थाने 'हांकी' जोइए. (कडी ३२- ) 'न विचितवइ' ने स्थाने 'नवि चितवई' एम वांचवुं जोइए. कडी ६मां 'आ (अं?) गि' कर्तुं छे त्यां 'आगि' पाठ साचो छे. आगि - आगळ, पण लाक्षणिक अर्थ 'मूळे, मूळमां, पहेलांथी' जेवो अर्हीीं छे. खोडो = लंगडो. ' (जे माणस) मूळे खोडो होय ने तेमां वळी पगमां बेडी पडी होय ते सामे गाम केम पहोंचे ?'
=
बलभद्रसज्झायमां
कडी ९
कडी १३
कडी २४
कडी ५२ पार्श्वनाथस्तवन
कडी १९
कडी २९
'बंधवह जीअ' छे त्यां 'बंधव हजीअ'.
इमास (?) छे त्यां '६ मास' वांचवं जोइए.
'समतासज्झाय' मां कडी ४- 'निभ' नहीं, 'तिम' मित्रउपनयसज्झाय
81
नींबडिओ - 'लीमडो थई गयो'. 'जे आंबो हतो ते भलो लीमडो थई गयो. '
द्राओ = धरायो.
जासक = खूब ('याचक' नहीं)
कारेली = एक घरेणुं करेलडां.
-
‘उपदेशकुशलकुलक’ना पाठमां वाचनजन्य भूलो रही छे. पुक्खरावरत सुमेहा' (कडी १). कडी ६ मां 'जल' छे त्यां 'जव' साचो पाठ बने. "जव कदी चोखा न बने' कडी ७मां 'सूरि जस सिहर' छे त्यां खरेखर सूरिंज - ससिहर - एम वांचवं जोइतुं हतुं. कडी ८मां 'गमइ' पछी 'नहीं' शब्द जरूरी
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छे, प्रतमां लहियाना हाथे छूटी गयो होय तो सम्पादिकाए चोरस कौंसमां ए दर्शाववो जोइतो हतो, अथवा बीजी प्रतमां जोइने पाठ पूरो करी लेवो जो तो हतो. कडी १० मां 'खाइ नर....' नहीं, पण 'खाइ न....' होइ शके. 'र' लिपिकारना हाथे प्रवेशी गयो छे, अर्थ पण 'नकार' थी ज बेसे- 'सनेपातियो साकर खाय नहीं.' कडी ११ - 'नदी सूकीनिइ' छे त्यां 'मूकीनिइ' वधु संगत छे. एज कडीमां 'घरडसू' शब्द पण शंकास्पद छे. 'स्व' 'सू' तरीके वंचायो होय एवी भीति छे. 'घरड स्वअंग'. अहीं 'घरड' ए 'खरड' होय ए शक्यता पण खरी. ( कडी १४ - ) 'निलु' छे त्यां 'नितु' होवानो संभव छे. ए ज कडीमां 'तउ हइ' छूटां नहि पण 'तउहइ' एम भेगां लखाय ते वधु योग्य लागे छे. (कडी २२- ) 'विसणइ' नहि, 'विणसई' होवुं घटे. लहियाना हाथे थयेली क्षतिओ सुधारीने मूळ पाठ सुधी पहोंचवाना प्रयास संपादके करवा ज जोइए.
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आ रचनाना अन्ते सं. १६८२मां गुजरातमां थयेल भूकंपनो दस्तावेजी उल्लेख मळे छे, ते कोइके भूस्तरशास्त्रीओने पहोंचाडवा जेवो छे.
'षट्प्राभृत' मां दन्त्य नकारनो प्रयोग ज्यां जळवाइ रह्यो छे एवां स्थानोनुं एक सर्वेक्षण डॉ. शोभना शाह द्वारा मळे छे. आ माहिती प्राकृतभाषाना अभ्यासीओने रसप्रद बनशे. जैन आगमो शौरसेनी भाषामां हता एवं मानवा - मनाववानो प्रयत्न दिगम्बर संप्रदायना अमुक वर्ग तरफथी थाय छे. परंतु, जे ग्रन्थो शौरसेनी भाषाना ज गणाय छे तेमां पण प्राचीन अर्धमागधीनी छाया जोवा मळती होय तो तेमणे फेरविचार करवो घटे प्रो. के. आर. चन्द्राए अर्धमागधीना स्वरूपनिर्धारण माटे पायानुं काम कर्तुं छे, प्रस्तुत लेखमां ए कार्यनुं अनुसन्धान थइ रहेलुं जोइ आनंद थाय छे. आ ज लेखमां षट्प्राभृतमां विभक्ति - प्रत्ययनो लोप थयो होय एवा शब्दप्रयोगोनी सूचि पण सामेल छे. आथी तो आ प्राभृतो अपभ्रंश भाषानो विकास थई रह्यो हतो ते गाळामां रचाया होवानुं तारण मळे छे. आ प्रकारना तुलनात्मक संशोधनात्मक अभ्यासो कृतिरचनानो समय निश्चित करवामां केन्द्रीय भाग भजवे छे.
श्रीमती रसिला कडिया पासेथी त्रण गुजराती लघुकृतिओ सम्पादित थइने मळे छे, जेमांथी बे कृतिओ ऐतिहासिक विषयनी छे; कृष्ण-बलभद्र
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गीत विशे अनु०ना सम्पादक श्रीए नोंध लखी छे तेना पर ध्यान आपवा जेवुं छे.
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'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रन्थना स्वाध्यायमांथी तारवेली केटलीक वातो श्रीशीलचन्द्रसूरि पासेथी मळे छे. ए वांचतां जे थोडुंक सूझ्युं ते
'प्रशान्तं दर्शनं यस्य-' श्लोक दिवाकरजीनो होय अने हेमचन्द्राचार्ये पोतानी कृतिमां मूक्यो होय ए झट स्वीकार थइ शके तेवी वात नथी. बीजुं, दिवाकरजीनी 'महादेव द्वात्रिंशिका' उपलब्ध नथी, के तेवो उल्लेख पण प्र. चिं. सिवाय अन्य कोई ग्रन्थकारे कर्यो होय तेवी माहिती नथी. हेमचन्द्राचार्यनी सामे ते वखते आ बत्रीसी होय तो पण तेनो श्लोक कशा उल्लेख वगर पोतानी कृतिमां तेओ सामेल न ज करे. त्रीजुं, दिवाकरजीनी शैली आ श्लोकमां दृष्टिगोचर नथी थती ए तो सम्पादकजीए ज नोंध्युं छे. महापुरुषोना सम्बन्धमा आवी रसिक कल्पनाओ ऊभी थवी अने क्रमशः रूढ थवी ए कोई नवी वात नथी. अहीं आवुं ज बन्युं जणाय छे.
अने आवी कल्पनाओ वास्तविक रूपे मनाई - लखाई होय तेनां उदाहरणो माटे दूर जवुं पडे तेम नथी. सम्पादकजीए ज आ लेखमां ग्रन्थगत आवा निराधार प्रसंगनो उल्लेख अने चर्चा करी छे. 'लोकरंजन खातर आवुं तत्त्व प्रबन्धकारो द्वारा उमेरायुं होय छे' सम्पादकजीनुं आ अवलोकन बिलकुल सत्य छे. लेखमां चर्चित 'कांस्यताल'नी वात पण आ ज प्रकारनी छे. 'महादेवे ४ युग पहेलां ए मन्दिरनी स्थापना करी हती' एवं ब्राह्मणो ज कहे ए केटलुं संभवित ? प्रबन्धोमां प्राप्त विगतोनुं कठोर परीक्षण कर्या विना तेना आधारे कशा पण निर्णय पर न आववुं ए इच्छनीय छे. बीजी बाजु, आज किंवदन्तीओमां इतिहासनां तत्त्वो- तथ्यो विखरायेलां पड्यां होय छे ए पण भूलवा जेवुं नथी. तुलनात्मक अध्ययन - परिशीलन ए ज एक स्वस्थ अभिगम, आवी बाबतोमां, होई शके.
जैन देरासर
नानी खाखर- ३७०४३५ कच्छ, गुजरात.
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अनुसंधान-२७ विहंगावलोकन (अनुसं. २५नु)
मुनि भुवनचन्द्र
'अनुसन्धान' अनियतकालिक. रूपे पचीसमा अंकना 'माइलस्टोन' सुधी पहोंचे छे ए वात शोधसंशोधनप्रिय विद्वद्वर्ग माटे मोटा हरखनो विषय छे. आ प्रकार- विद्वद्भोग्य सामयिक शरु करवू, तेने पुष्ट करवू-राखq ए एक आह्वानरूप कार्य गणाय. जैनोमां-खास करीने श्रमण-श्रमणी वर्गमां-आ प्रकारना कार्यने 'बिनउत्पादक' (unproductive) जेतुं स्थान आजे मळ्युं छे, तेवे समये आवें संशोधनपत्र प्रति अंके वधु ने वधु सुन्दर आकारप्रकार धारण करतुं भरयुवानीमां पहोंचे छे. सद्गत भायाणी साहेबनी हूंफ, श्री शीलचन्द्रसूरिनी हाम अने 'कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि ना 'दाम'ना सुभग संयोजनथी आ शक्य बन्युं छे. जैन विद्याना रसिको माटे 'दूधे वूठ्या मेह' जेवू ज आ प्रकाशन छे. भायाणी साहेबनी गेरहाजरी, सतत विहार, अन्यान्य धार्मिक प्रसंगोमां व्यस्तता, नबळी तबियत छतां 'अनुसन्धान'नुं अनुसन्धान आचार्यश्रीए सुपेरे जाळवी राख्युं छे. अन्य प्राचीन ग्रन्थोनां सम्पादन-प्रकाशननुं कार्य पण समांतरे चालतुं ज होय छे. 'नन्दनवनकल्पतरु' जेवू संस्कृत पत्र पण आचार्यश्रीना निर्देशन नीचे प्रकाशित थाय छे. आ कार्यमा आचार्यश्रीने तेमनी विद्वान शिष्यमंडळीनो समर्पित सहयोग सांपडे छे ए तथ्य अहीं नोंधq जोइए. आपणे इच्छीए के आ. शीलचन्द्रसूरिना निर्देशन हेठळ प्राचीन जैन साहित्य जैन ज्ञानभंडारोमाथी उलेचाइने आ रीते विपुल प्रमाणमां प्रकाशमां आवतुं रहे.
२५मा अंकनी प्रथम कृति “सिद्धमातृकास्तव' वैदुष्यना तेजःस्फुलिंगो वेरती प्रगल्भ अने काव्यकलारसिक जनो माटे मिष्टान्नभोजन जेवी तृप्ति आपनारी कृति छे. श्रीधुरन्धरविजयजी तथा श्रीशीलचन्द्रसूरि-एम बे सम्पादको द्वारा कृति तथा तेना विषय अने कर्ताने स्पर्शती तथ्यात्मक चर्चानो लाभ आ कृतिने मळ्यो छे. कृतिना कर्ता विशे थयेली ऊहापोह आ कृति उपरांत अन्य बे कृतिओना कर्ता अंगे निर्णयात्मक स्थिति पर पहोंचाडे ऐवी आशा जन्मावे छे. मातृका अर्थात् वर्णमालाने अनुलक्षीने रचायेली कोई पण रचना तेरमा
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शतकथी पूर्वेनी नथी, ए मुद्दो सूचक छे. देश्य भाषाओनो प्रभाव वधवा मांड्यो हतो अने प्रजाजनोमां संस्कृत व्याकरण आधारित शिक्षणनी परिपाटी क्षीण थवा लागी हती ते समयनी ए रचनाओ होई शके. सामान्य विद्यार्थीओने पण ते समयनी शाळाओमां नमः सिद्धं', 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' जेवां सूत्रो मंगलाचरण रूपे गोखाववामां आवतां. (एना अवशेषरूपे हजी दोढ सो-बसो वर्ष पहेलांनी 'धूळी' निशाळोमां 'सीधा वरणा समामनाया' जेवां भ्रष्ट सूत्रो विद्यार्थीओने गोखवां पडतां हतां.) 'बाराखडी' अने 'कक्को' ए देशी-गामठी शिक्षणना विकासना गाळामां योजायेली संज्ञाओ छे. संस्कृतना प्रभुत्ववाळा समयमां क्ष-ज्ञ जेवा संयुक्ताक्षरोने वर्णमालामां स्थान न होय ए देखीतुं छे. प्रस्तुत 'सिद्ध-मातृका'मां 'ळ' अने 'क्ष'नो समावेश छे अने 'ज्ञ'नो नथी ते ध्यानमा लेवावं जोइए.
ए ज रीते आमां ५६ मातृकानी गणना छे, तेने अन्य कोई स्थानेथी समर्थन मळे छे के केम ते पण तपासवू जोइए. 'भली', 'भले मींडु' जेवा प्रतीकोना अर्थ विशे प्रायः पू. आगमप्रभाकरजीना लेखनकलाविषयक ग्रन्थमां विवरण छे. एक स्थळे पाठ त्रुटित छे तेने बाद करतां कृति शुद्ध छे. श्लो. ८८मां 'अत्यक्ष' शब्दने स्थाने संपादकोने 'अप्रत्यक्ष' शब्द शा माटे आवश्यक लाग्यो छे ते समजायुं नथी. 'प्रत्यक्षात्यक्षपदा-र्थबोधनिपुणे प्रमाणे द्वे' एवो प्रतिमां मलतो पाठ ठीक लागे छे. अत्यक्ष = अतीन्द्रिय. 'अप्रत्यक्ष' शब्द लेतां ऊलटानो छन्दोभंग थशे. जो के कर्ता समर्थ कवि होवा छतां बे-त्रण स्थाने कर्ताए छन्दोभंग थवा दीधो छे. श्लो. ३६ अने ४८मां आम थयुं छे. श्लो. १००मां 'श्रीमरुदेवया' शब्द ध्यानाह छे. 'मरुदेवा' शब्द मारुगूर्जर भाषानो प्रभाव सूचवी जाय छे. आ एक ज प्रयोगथी श्री सिद्धसेन दिवाकरनी रचना न होवानुं स्थापित थई जाय छे. एटलुं ज नहि, कृतिनो समय १३मा शतकथी पण घणो परवर्ती होवानी संभावना खडी थाय छे. आना कर्ता 'प्रवचन सारोद्धार' टीकाना रचयिता सिद्धसेन सूरि पण न होय अने कदाच
आ पण सिद्धसेन दिवाकरना नामे पंदरमी-सोळमी सदीना कोई समर्थ यतिए रचेली कृति होय एम बने. श्लो. ५३मां :-त्रिगुणतीत०' छे. '०णातीत०' लइए तो अहीं पण छन्दोभंग थाय.
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अनुसंधान-२७
श्रीमुनीश्वरसूरि कृत 'प्रमाणसारः' प्राचीन वादकळाना अभ्यासीओ माटे रसथाळ समी रचना छे. वादि-प्रतिवादी सामसामा बेठा होय एकबीजाना पक्षने छिन्नभिन्न करवा माटे वाग्बाण छोडता होय एवं दृश्य आ वांचतां ऊपसे. सम्पादके नोंध्युं छे : 'ग्रन्थकार खण्डनना लडायक मिजाजमां ज होवानुं जणाइ आवे छे.' एम ज छे. सम्पादके एम पण नोंध्युं छे के '... पूर्वापरनो सम्बन्ध जळवाय छे के केम तेनी चिन्ता राख्या विना ज तेओ निरूपता जाय छे...' परंतु एवं नथी, ग्रन्थकारे पूर्वापरनो सम्बन्ध अने विषयसंकलन बराबर जाळव्यां छे, एम निरांते तपासतां जणाय छे. कर्ता प्रतिवादी बनीने बोली रह्या छे, एमनी सामे पूर्वपक्ष तरीके छ ये छ दर्शनो छे, तेथी विचारबिन्दुओ बहु शीघ्र बदलाय छे. वादविवादनी तडाफडीनी साथे धाराबद्ध वाक्प्रवाहमां प्रासो फूलझडीनी जेम वरसे छे. संस्कृत पर केवू प्रभुत्व ए काळे विद्वानो केळवता हता तेनां नमूना आमां पुष्कळ छे. आक्षेप, कटाक्ष, व्यंग, मर्म, विनोद द्वारा वाद केवो रसिक बनी रहेतो ते पण आमां तादृश थाय छे.
पृ. २४ परना श्लोकना चोथा चरणमां 'मानसिद्धिश्च' एटला शब्दो लेखक दोषथी प्रवेशी गयानुं मानवामां हरकत नथी. पृ. २७ पर 'निर्विशेष०' ए श्लोक, त्रीजुं चरण 'सामान्यरहितत्वेन' होवू जोइए. पृ. ३८ पर 'ईश्वर' ए श्लोकना त्रीजा चरणमां 'अन्यो' छे त्यां साचो पाठ 'अज्ञो' छे, जे अन्य ग्रंथोमां जोवा मळे छे.
'राणभूमीशवंशप्रकाशः' राजस्थानना राणावंशनी नामावली रजू करे छे. सम्पादके कर्ता महो. मेघविजयजीना जीवनकालनो निर्देश नथी कर्यो. ऐतिहासिक व्यक्तिनामोनी साथे ज-भले कौंसमां - तेमना सत्तासमयनो निर्देश संशोधनात्मक लेखोमां आपवानी परिपाटी छे. प्रौढ कवित्वथी अलंकृत एवी आ रचना जैन मुनिओनी गीर्वाणवाणी सेवानी साथे इतिहास आदि विषयोनी सेवानां दर्शन करावी जाय छे.
'चतुर्विंशतिजिनस्तवनम्' काव्यरस-भक्तिरस- पूर्ण एक अभ्यासयोग्य कृति छे. छन्दःशास्त्रोमां वसन्ततिलका छन्दनुं बीजं नाम 'सिंहोद्धता' छे ए आ कृतिमां ज पहेलीवार जाणवा मळ्युं. आ नामने शोभे एवी बलवान
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गायन शैली-आजनी प्रचलित ढबथी जूदी-वसन्ततिलकानी होवी जोइए. कोई जाणकार आ विषयमा प्रकाश पाडशे तो आनंद थशे.
आ अंकनी गुजराती कृतिओमां महत्त्वनी अने सर्व प्रथमवार प्रकाश पामती कृति 'लाभोदयरास' छे. दुर्भाग्ये तेनो त्रण पत्र अर्थात् ६ पृष्ठ. जेटलो भाग त्रुटित छे. आमां विजयसेनसूरि तथा शाह अकबरना मिलननो अधिकृत वृत्तान्त मळे छे.
___कडी ३३मां इ उही (?) छे त्यां 'इउंही' वांचq जोइए. ऊर्दूना 'यूं', 'यंही' जेवा शब्दोमां आगळ इ उमेरायेलो आ रासमां जोवा मळे छे : इउं (कडी २६), इयाही (क. २७) इया ( क. ३६) वगेरे. कडी ३२मां ‘गयर' छे ते 'गैर-' पूर्वग छे. गयर-दिउ=गैर दिया अर्थात् अदत्त. क. २९मां 'अ पूठे' छे त्यां 'अपूठे' साचो पाठ छे. 'चालत चाल अपूठी' एवो प्रयोग उपा. यशोविजयजीना 'जैन कहो...' ए पदमां जोवा मळे छे. क. १००- 'आलस' छे त्यां 'आलम', क. १०२मां 'पीर वार' छे त्यां 'परिवार' पाठ होवानुं समजी शकाय छे, संपादके कौंसमां निर्देश करवा जेवो हतो. क. १००मां 'दूकरोस' छपायुं छे अने शब्दकोशमां तेनो अर्थ 'दुःख रोष' एवो आप्यो छे. अहीं वाचनभूल थयानी भीति छे. 'टुक रोस' शब्द हशे, पण 'टु' ते 'दु' तरीके वंचायो हशे. 'टुक'-जरा, अल्प. क. ३३मां आ शब्द आ ज अर्थमां जोवा मळे ज छे. क. ११६ मांनो 'हाकावीका' आजनी हिन्दीमां 'हक्काबक्का' रूपे सचवाई रह्यो छे. 'श्रीफल उ तंबोल' (क. १२२)मां उ छे ते ठेकाणे 'ओ' होवानी पूरती शक्यतां छे. ऊर्दू-अरबीमा 'अने'ना अर्थमां 'ओ' अव्यय छे- जान-ओ-जिगर वगेरेमा छे तेम. रासमांना ऊर्दू शब्दो वधु अभ्यास मागे छे.
डॉ. अभय दोशी द्वारा एक अप्रगट स्तवनचोवीशी संपादित थई छे. प्रभुप्रेमना एकना एक विषयने भक्त कविओए केटकेटलो रमाड्यो छे ते आवी चोवीशीओ दर्शावी आपे छे. हस्तप्रतनी अशुद्धिने लीधे अथवा तो सम्पादकना अनवधान-अपरिचितताने कारणे कृतिनो पाठ घणी जग्याए अस्पष्ट अशुद्ध रह्यो छे. स्त. १, कडी ५, स्त. २ कडी ५ अने कडी २, स्त. २२ नी आंकणी वगेरे स्थाने पाठमां अस्पष्टता रही छे. थोडा सूचित पाठो
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कडी
शुद्ध
@wr x x x 9
x
u or or orww,
मनि
अशुद्ध वात तो
वातनो गोत्रसूता गिरिसुता (?) अनुभववन्त .
०वन्न मति बोलत
बोल न दीषे :
दीधे । ७ पुण वीसी पुणवीसी (?) (ज्यां विश्वा वीस होय त्यां पोणा वीस न होय ?) २ जे. हरे
जेह रे आंकणी जारुं छोरी सावी जाओ छो रीसावी
कृतिमां केटलाक शब्दो ध्यान खेंचे छे :स्त. कडी शब्द अर्थ
अजर मोडुं करवू, विलंब तेज अहीं 'तेल' शब्द वधु बंध बेसे तरेल
गधेडो ? . १६७
पुणवीसी ? १९ ४
बेदबी बेअदबी, अविनय २३ . ४
मणिक मणिकार, झवेरी 'पंचवस्तुक'ना स्वाध्यायमा आ. शीलचन्द्रसूरिए केटलीक संदर्भयोग्य वातो तारवीने मूकी छे. एमां 'पतंगवीथी'मांनो 'पतंग' शब्द, मारी समझ मुजब, ऊडाडवाना पतंगनो वाचक नथी. गोचरी, माधुकरीनी जेम आ शब्द पण 'पतंग' अर्तात् पतंगिया साथे सम्बन्ध धरावे छे. पतंगियुं फूलो पर क्रमसर जइने रस चूसतुं नथी, आडं-अवळु ऊडे छे. आ रीते आडा-अवळा क्रमे गृहस्थोना घरोमां भिक्षा माटे जवानी रीतने 'पतंगवीथी' कही छे. आकाशमां ऊडता पतंग साथे भिक्षानी आवी तुलना थई न शके.
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माहिती
मानव-सर्जित दुर्घटनानो भोग बनेल एक विद्यातीर्थ
- विजयशीलचन्द्रसूरि 'भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट' ए डॉ. रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकरनी विद्याना मानमां, ई. १९१७मां स्थपायेखें, पूनानुं एक विश्वविख्यात प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान छे. आ प्रतिष्ठाननी स्थापनामां जे विविध विद्वानोए रस लीधो, तेमां एक प्रमुख अने सक्रिय जैन विद्वान् पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी पण हता. ई. १९८१मां अमे आ प्रतिष्ठाननी मुलाकाते गयेला, त्यारे त्यांना विद्वान् संचालके मुनि जिनविजयजीने 'संस्थाना स्थापको पैकी एक' तरीके आदरपूर्वक याद करेला, ते हजी याद रह्यु छे. आ प्रतिष्ठानमां हजारो हस्तप्रतिओनो जे दुर्लभ सङ्ग्रह छे; तेमांना मोटा भागना के घणा बधा ग्रन्थो जैन ग्रन्थो छे; अने ताडपत्रोनो मोटो - लगभग पूरो विभाग जैन ग्रन्थोनो ज गणी शकाय तेवो छे. जैन हस्तप्रतिओ, वर्णनात्मक सूचिपत्र, विख्यात जैन विद्वान् डॉ. हीरालाल र. कापडियाए तैयार करेलुं, जे आशरे चौद ग्रन्थोमां प्रतिष्ठान द्वारा ज मुद्रित थयेलुं. तो डॉ. एच.डी.वेलणकरनो प्रख्यात 'जिनरत्नकोश-१' पण अहींथी ज तैयार थई बहार पडेलो. जर्मनीनां जैन विदुषी श्राविका सुभद्रादेवी (शार्लोट् क्राऊझे) नो दुर्लभ ग्रन्थसङ्ग्रह पण आ प्रतिष्ठानमां ज सचवायो छे. अने जैनागमोनी भाषा 'प्राकृत'नो बृहत् कोष निर्माण करवा- एक अद्भुत विद्याकार्य पण, हाल, आ ज प्रतिष्ठानमां चाली रह्यं छे. आ छे जैनोनो भां.ओ.रि.इ. साथेनो अनुबन्ध.
ताजेतरमां (जान्युआरी ५, २००४)ज पूनानी ‘सम्भाजी ब्रिगेड' नामनी मण्डलीनां एक मोटां टोळांए भाण्डारकर प्रतिष्ठान पर हिंसक हुमलो कर्यो, अने न कल्पी शकीए तेवू-तेटलुं नुकसान पहोंचाड्युं. हुमलो करवानुं कारण ए हतुं के USA ना जेम्स लेने नामना एक विद्वाने 'शिवाजी : ए हिन्दू किंग इन इस्लामिक इन्डिया' नामे संशोधनात्मक ग्रन्थ लखेलो, अने
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तेमां पोताने सहाय करवा बदल प्रतिष्ठाननो तथा तेनो विद्वाननो ऋणस्वीकार करेलो.
आ ग्रन्थमा लेखके शिवाजी विषे अमुक खराब विधानो करेला, जे विषे विद्वानोए असहमती जाहेर करेली; सरकारे ते ग्रन्थ पर प्रतिबन्ध पण मूकी दीधो हतो, तो प्रकाशकोए ते पुस्तक पार्छ पण खेंची लीधुं हतुं. आम, घसातुं लखवा बदल जे पण प्रतिकार थवो घटे ते थई गयो हतो, अने प्रकरण पर पूर्णविराम क्यारनुय मूकाई गयुं हतुं.
आम छतां, आ टोळांने अचानक क्रोध आवी गयो, अने पेला लेखकने आ प्रतिष्ठाने सन्दर्भो पूरा पाड्या होवाना प्रतिष्ठानना अपराधने याद करीने ते टोळांए संस्था पर हुमलो कर्यो. हुमलामा सामेल आशरे १५० जणाए प्रतिष्ठानने शुं अने केटलुं नुकसान पहोंचाड्युं, तेनो अंदाज, विभिन्न वृत्तपत्रोमां छपायेली नीचे संगृहीत विगतो जोतां आवी जशे :
'गुजरात समाचार' (अमदावाद आवृत्ति, ता. ६-१-२००४) जणावे छे के "अंदाजे दोढसो जेटला लोको अलग अलग वाहनोमां बेसीने आव्या हता. तेमणे सूत्रोच्चारो करवा साथे संशोधन संस्थाना सम्पूर्ण परिसरमां तोडफोड करी हती. केटलीक दुर्लभ हस्तप्रतो सहित हजारो पुस्तकोने आगमां झींकीने नुकसान पहोंचाडवामां आव्युं हतुं- एम कहीने पोलीसे उमेर्यु के आ टोळांए अत्यन्त जूना हस्तलिखित तालपत्र, कंप्यूटरो, जेरोक्स मशीनो वगेरे जे हाथमां आव्युं तेनो भूको बोलाव्यो हतो. तेमणे फर्निचरने पण घणुं नुकसान पहोंचाड्युं हतुं."
बेंगलोर-जयपुरथी प्रकाशित थता हिन्दी दैनिक 'राजस्थान पत्रिका' ना ता. २५-१-२००४ना अंकना रविवारीय परिशिष्टमां, वाणी भटनागरना लेख 'विरासत पर कहर'मां जणाव्युं छे के, "संभाजी ब्रिगेड के कार्यकर्ताओंने विरासत-संरक्षण में संलग्न इस संस्था पर अपनी क्रोधाग्निका कहर ढाया। हजारो दुर्लभ पाण्डुलिपियों, प्राचीन पुस्तकों एवं ताडपत्र अभिलेखों के संग्रह से सजा अध्ययन और अनुसन्धान का यह मन्दिर अब उजाड नजर आता है ।.... तोडफोड की घटना के दौरान इन्स्टूट्यट में संरक्षित १८००० पुस्तकें और तीस हजार दुर्लभ पाण्डुलिपियां विरासत के कथित पहरेदारों
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की क्रोधाग्नि की भेंट चढ गई । मुंडकट्ट गणेश प्रतिमा और १९३५ का हैदराबाद के निजामका एल्बम तथा अन्य महत्त्वपूर्ण संग्रह चुरा लिए गए। ऐतिहासिक महत्त्व की शोध अध्ययन में सहायक पुस्तकोंका नष्ट हो जाना उन अनुसन्धानकर्ताओं और विद्वानों के लिए कितना हृदयविदारक होगा, जिन्होंने इस संस्थान को ऊंचाइयों तक पहुंचाने के लिए अपने जीवन का पल पल समर्पित किया है। विशेषकर उन सभी ३०००० पाण्डुलिपियों का नष्ट हो जाना, जो संस्थान के परिसर में ५० आलमारियों में सहेज कर रखी हुई थी ।"
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प्रतिष्ठाननी गवर्निंग काउन्सिलनां अध्यक्ष लीला अर्जुनवाडकरने टांक रा.प. नोंधे छे के, “भां. ओ. रि. इ. के नुकसान से भारतीय विरासतको गहरा धक्का लगा है । उसके लिए फिरसे पैरों पर खड़ा होना मुश्किल है ।" तो बेंगलोरथी प्रगट थता संस्कृत मासिक 'सम्भाषण सन्देश' ना फेब्रुअरी २००४ना अंकमां 'अभिभूतं हि भाण्डारम्' शीर्षकथी आपवामां आवेलो सचित्र हेवाल जणावे छे के,
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“छत्रपते: शिवाजे: जयघोषं कुर्वन्तः ते कार्यकर्तारः संस्थाया ग्रन्थालये विद्यमानं 'शिवचरित्र' ग्रन्थसङ्ग्रहं एव प्रथमं अभिभवन्ति, तस्यैव सङ्ग्रहस्य नितरां हानिं कुर्वन्ति इति तु दैवदुर्विलास एषः । ग्रन्थालये सुरक्षितानां ग्रन्थराशीनां अधः पातनं छेदनं, उपस्करस्य हानिः सङ्गणकानां विनाशः, पाण्डुलिपिसङ्ग्रहस्य विनाश: इति तेषां क्रोधाभिव्यक्तेः प्रथमं फलम् । ग्रन्थालये दर्शनीये स्थले स्थापिता भगवत्याः सरस्वत्या मूर्त्तिः एतैः खण्डशः कृता । छत्रपतेः शिवाजिमहाराजस्य च चित्रं नाशितम् । भारतविद्यायाः संस्कृतस्य च अध्येतृणां विदुषां छायाचित्राणि तैलचित्राणि च समूहेन स्फालितानि खण्डितानि च । संस्थाया मुख्यसभागृहे स्थापितं रामकृष्ण - गोपाल - भाण्डारकर महोदयस्य महत् तैलचित्रं तस्य च मूर्तिः आहतवस्तुषु अन्यतमे । तत्रैव भाण्डारकरमहोदयेन संस्थायाः स्थापनासमये समर्पितस्य ग्रन्थसङ्ग्रहस्य महती हानिः अभवत् । एतेषु विनाशकेषु ७२ जनाः आरक्षिभिः धृताः । तेषां विषये विधिकार्यमिदानीं प्रचलति । ते दण्डिताः चेदपि अप्राप्यानां ग्रन्थानां वस्तूनां च या हानिः अस्मिन् प्रसङ्गे सञ्जाता, सा कथं परिपूर्येत इति महान्
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अनुसंधान- २७
प्रश्नः । गम्भीरस्य अध्ययनस्य कृते आवश्यकी शान्तिः या विखण्डिता सा कथं पुनरायाति इति समस्या । किं नाम एतेन विनाशेन साधितं इति प्रश्न: वारंवारं सर्वेषां संस्कृतिप्रेमिणां मनस्तु उत्पद्यते ।"
92
ခင်
उपर उद्धृत अखबारी उद्धरणो एटलां स्पष्ट छे के तेना परथी ज थयेला नुकसाननो अंदाज मळी आवे छे. कोष-प्रकल्पने पण भारे हानि पहोंची होवाना हेवाल छे.
कोई पण ग्रन्थप्रेमी, विद्याभ्यासी अने संस्कृतिप्रेमीना हृदयमां घेरी चोट वागे अने कदी न ठरे एवी वेदना अनुभवाय एवी आ दुर्घटना छे. हा, दुर्घटना ज- पण मानवसर्जित !
आ विद्याध्वंस. जोईने, अमेरिकाए इराक पर करेला आक्रमण पछी त्यांना पुरातत्त्वीय सङ्ग्रहालयोमां, सफेद त्वचा धरावता विदेशीओए चलावेली सांस्कृतिक लूंटनुं सहज स्मरण थाय. विश्वनी एक प्राचीनतम, मेसोपोटेमियानी सभ्यताना ऐतिहासिक दस्तावेजी पुरावाओ, ए कहेवाता शिक्षित गोरा लोकोए जे रीते लूंट्या अने वगे कर्या, ते जोतां तेमना शिक्षणनुं अने पूनामां विद्याध्वंस करनारा टोळाना शिक्षणनुं गोत्र एक ज होवुं जोईए तेवुं लागे. जो ताडपत्रो अने हस्तप्रतिओने, उपरोक्त हेवालोमां थयेला वर्णन प्रमाणे, खरेखर नुकसान थयुं होय अने कोई पण रीते विनाश थयो होय, तो ते खूबज शोकजनक छे. विशेषतः जैनो माटे अने जैनोलोजीना अभ्यासीओ माटे खास. केमके अगाउ जणाव्युं तेम आ सङ्ग्रहमां अनेक दुर्लभ जैन आगम, शास्त्र तथा विविध विषयना ग्रन्थोनी पोथीओ हती; जेमांनी केटलीकनी तो बीजी प्रति पण अन्यत्र नहि होय. ए रीते विचारीए तो, आपणा सौने थयेली आ मोटी अने कदी पूरी न शकीए तेवी खोट-हानि छे, तेमां शंका नथी. अनेक संस्थाओ, सरकार, लोको आ प्रतिष्ठानने थयेलां आर्थिक नुकसान भरपाई करवा माटे आगळ आव्या होवानुं जाणवा मळे छे. पूनाना जैन संघने पण उचित सहाय करवा माटे प्रेरणा आपी छे. करशे. परंतु, रही रहीने ऊठतो अने घोळातो सवाल एक ज छे के आर्थिक तथा भौतिक खोट तो पूराशे, पण जे प्राचीन पोथीओ नष्ट थई हशे, तेनी खोट शी रीते पूराशे ?
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(पूरवणी) आश्वस्त करे तेवो वास्तविक वृत्तान्त
भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूनामां थयेल सांस्कृतिक नुकसाननी विगतो मेळववा माटे करवामां आवेला पत्रव्यवहारमां जाणवा मळे छे के त्यांना हस्तप्रतिसङ्ग्रहने विशेष नुकसान नथी पहोंच्यु, अने ते सलामत रीते बची गयो छे.
कोश-कार्यालयनां डॉ. नलिनीबेन जोशी पोताना ता. २३-२२००४ना पत्रमा लखे छे के- "हानि तो सचमुच बहुत हुयी लेकिन वह सब काँच, कपाट, फैन, खिडकियां, टेबलकुर्सियां, कोम्प्युटर आदि भौतिक वस्तुओंकी ही ज्यादातर हुई । गणेश प्रतिमा, आल्बम गायब हुए और विद्वानों के तैलचित्र भी प्रायः नष्ट ही हो गये । सभी १ लाख किताबें और लगभग १०,००० पाण्डुलिपियाँ अलमारियों से नीचे गिरकर दबी अवस्थामें पडी हुई थी ।
शुक्र है कि सभी पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित है । किसी की भी चोरी नहीं हुई । एक भी किताब और पाण्डुलिपि जलायी नहीं है । मतलब है कि हमारी धरोहर प्रायः सुरक्षित है । बाकी कम्प्यूटर व. सभी मौल्यवान् वस्तुओंकी पूरी तोड-फोड हुयी है ।
पूना की लगभग ५० जैन महिलाओंने लगातार चार दिन काम करके १०-१५ हजार किताब ठीक-ठीक किये । प्राकृत-डिक्शनरी विभाग तो दो दिनमें व्यवस्थित किया । पूना के लगभग २०० विद्यार्थीयोंने मेन लायब्रेरी के लिए सहयोग किया । आर्थिक सहायता भी आम आदमी से लेकर उद्योगपति तक सभी कर रहे हैं।
आप अंत:करण में बहुत व्यथित न होवे क्योंकि जो हानि हुई है वह पूरी करने लायक है और करेंगे ।"
आ वृत्तान्त खूब आश्वस्त करनारो छे. अलबत्त, पोथीओ नीचे नाखवी अने ते पर कपाटो नाखवा; कपाटो तळे पोथीओ दबाई जाय, तो
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अनुसंधान-२७
अमुक अंशे. प्रतोने नुकसान थयुं तो होय ज. उपरांत, भागवतनी मूल्यवान (प्रायः सचित्र) पोथीने फाडी नाखवामां आव्यानी तसवीर तो 'सम्भाषण सन्देश'मां छपाई पण छे. एटले एटलुं नुकसान पण ओछु तो नथी ज. छतां प्रथमदर्शी समाचारोने कारणे हजारो प्रतिओ नष्ट थयानी जे दहेशत जागी हती, ते आ पत्रमांनी विगतोथी दूर थाय छे, अने राहत थाय छे.
जैन महिलाओनी सक्रियता पण खूब अभिनन्दनीय गणाय तेवी छे. ज्ञान अने ज्ञान-संस्था ए सहु कोईनी सहियारी मिलकत छे, अने तेना पर आपत्ति आवे त्यारे तेना निवारण माटे दोडी जq ए ज विवेकी जनोनुं श्रेष्ठ कर्तव्य छे, ते आदर्श ते महिलाओ तथा ते विद्यार्थीओए चरितार्थ करी बताव्यो छे.
दरम्यान, पूनाना जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघे पण उदारतापूर्ण सहाय करवानुं नक्की कयुं छे.
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कर्ता.
।
सम्पादक
अनु.नं. |
पृष्ठ
मुनि भुवनचन्द्र
कृति.
अ अठोतरसो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र अनुसन्धान-२१, विहंगावलोकन
आ. आत्मसंवादः
२४ । ४-८ २३ । ७२-७८
| विजयशीलचन्द्रसूरि
। २० । ३०-९४
महो. श्रीयशोविजय
|
आदि स्तव (ते धन्ना. स्तोत्र आज्ञा स्तोत्र आर्यवेदः जैनवेद
आ.प्रद्युम्नसूरि । २४ मुनिकल्याणकिर्तिविजय| २१ विजयशीलचन्द्रसूरि | २१
१-३ ३९-४० ४५-५५
सांकळियुं : 'अनुसन्धान' १९ थी २६ अंकोर्नु
संकलन : साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्रीशिष्या
साध्वी चारुशीलाश्री
ब्रह्म
सा.दीप्तिप्रज्ञाश्रीजी.
उपदेशकुशल कुलक उपयोगी माहिती
| २४
१९
। ।
७९-८७ १३७
ऋषभतर्पणः जैन क्रियाकांड विषयक एक सरस कृति
विजयशीलचन्द्रसूरि | २१ । १०-१९
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कृति.
क. कम्म बत्तीसी
कर्म प्रकृति-संक्षेप विवरणम् (अपूर्ण) महो. श्री यशोविजय क्रियावादी आदी ३६३ पाखण्डी स्वरूप स्तोत्र
क्रियावादि-आदि ३६३ पाखण्डी स्वरूप स्तोत्र अवचूरि सहित कुमारसम्भवादि महाकाव्यचतुष्करीत्या स्तोत्रचतुष्टयी कृष्ण-बलभद्र गीत
केटलाक प्रकीर्ण
लघु रचनाओ
अमृतधुन तीर्थंकर स्तवन मेवाड को कवित सुप्रभातं स्तवन
कर्ता.
अज्ञात
रविसागरगणि
अज्ञात
अज्ञात
कविजिनेन्द्र
अज्ञात
सम्पादक
अनु.नं. पृष्ठ
२१
'मुनिकल्याणकीर्तिविजय विजयशीलचन्द्रसूरि २२
मुनिकल्याणकीर्तिविजय २१
मुनिकल्याणकीर्तिविजय २२
विजयशीलचन्द्रसूरि रसीला कडीआ
विजयशीलचन्द्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि विजयशीलचन्द्रसूरि
२३
२४
२०
२०
२०
२०
३५-३८
४-६
३३-३४
२७-३१
३०-४६
९८ - १०२
९८-९९
९६-९७
९९ - १०२
९७-९८
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कर्ता.
सम्पादक
अनु.नं.
|
पृष्ठ
March-2004
पं. मुनिचन्द्र
| डो. रसीला कडीआ
।
२३
।
६०-६२
| कृति. कोठारी पोलना चिन्तामणि पार्श्वनाथ- स्तवन
ग. ग्रन्थावलोकन : इतिहासना अज्ञात प्रदेशमा स्वैरविहार “निर्ग्रन्थ
ऐतिहासिक लेख समुच्चय" गौतम स्वामी- स्तवन गौतम-सुधर्म गणधर भास
च. चतुर्विंशति जिनस्तवनम् चतुर्हारावली चित्रस्तव (सवृत्तिक)
मुनि भुवनचन्द्र
. १९
मुनि जिनसेनविजय मुनि जिनसेनविजय
५६-६१
१३२ १३३-१३४
।
२५
५३-५८
भुवनहिताचार्य विनयसागर
आगमिक श्रीजयतिलकसूरि । विजयशीलचन्द्रसूरि
।
२०
१-२९
चार जिनस्तुतिओ: श्री आदिनाथ
स्तुति (कुटुम्बनाम गर्भिता.)
पं. भक्तिसागरगणि | | मुनि धुरन्धरविजय
१८-२०
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कर्ता.
संपादक
पत्र.
अनु.नं.
रविसागर
मुनिधुरन्धरविजय
२३ ।
२०
कृति. श्रीमगसीपुर पार्श्वनाथ स्तवन
(कुटुम्बनामगर्भित) श्रीयुगादिदेव विज्ञप्तिकारूप
(सुखभक्षिका गर्भित स्तोत्र.) श्री वीरजिन स्तोत्र.
(सुखासिका गर्भितम्) च्यार ध्यान विचार लेश चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन
रविसागर
मुनिधुरन्धरविजय
२३ ।
२१-२२
।
२३
उपाध्याय नेमिसागर मुनि धुरन्धरविजय
डॉ. मालती के. शाह - डॉ. रसीला कडीआ
२२-२३ २३ ।
४७-५६ २४ । १०२-१०५
-
विजयशीलचन्द्रसूरि
३२-४०
| जिन पूजा विधि : मध्यकालीन विधान जिन स्तवन
भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
२२
।
१-३
ट. ट्रॅकनोंध : उपा.विनयविजयजीनी शिष्य परंपरा विषे
अनुसंधान-२७
विजयशीलचन्द्रसूरि
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________________
कर्ता.
अनु.नं.
सम्पादक विजयशीलचन्द्रसूरि विजयशीलचन्द्रसूरि
पृष्ठ १०६
२५
March-2004
हेमाचार्य
६२
कृति. जैन धर्म विशे भ्रान्त धारणाओ ज्ञानसार ते धन्ना. स्तोत्र विषे 'पतियाला'ना राजमहेलमां जैन भीत चित्र भगवान महावीरना आहार संबन्धी भ्रमणा युग भिन्नः कर्ता भिन्नः कल्पना तुल्यः
बे रसप्रद उदाहरणो एक पाठनी समस्या
विजयशीलचन्द्रसूरि विजयशीलचन्द्रसूरि
१०६-१० १३५-१३६
विजयशीलचन्द्रसूरि विजयशीलचन्द्रसूरि
१०६-१०८ १०९-११०
त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव
| ऋषि विद्यावर्धन | मुनि कल्याणकीर्तिविजय
४१-४४
न
नवां प्रकाशनो (माहिती) नवां प्रकाशनो (माहिती) नवां प्रकाशनो (माहिती) नवां प्रकाशनो (माहिती) नवां प्रकाशनो (माहिती)
६६-६८
८८-९१ १२०-१२२
१०९ १३१-१३३
66
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कृति.
कर्ता.
सम्पादक
सम्पादक
अनु.नं. |
पृष्ठ
8
नवी माहिती : विदेशमा रहेली मूल्यवान जैन हस्तप्रतोनां केटलोग माटे बे करोड रू.नी जाहेरात करता
श्रीवाजपेयी नाना-छन्दोमय श्री नेमिनाथ स्तवन नेम-राजुल लेख
मुनि विमलकीर्तिविजय डॉ. रसीला कडीआ
६९-७० २४-२९ ११९-१२१
प.
म. विनयसागर म. विनयसागर
१२९-१३० १००-१०२
पत्रचर्चा. - महोपाध्याय सहजकीर्ति -- विबुधपदविज्ञप्ति परिपत्र विषे
थोडंक प्रकाशन माहिती प्रकाशन माहिती प्रमाणसार प्रो. डॉ.के.आर.चन्द्रनी चिरविदाय
आ. प्रद्युम्नसूरि
६४-६५ १११-११४ ६४-६८ १८-४३
मुनीश्वरसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
अनुसंधान-२७
७१
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कर्ता.
संपादक
पत्र.
अनु.नं. ।
कृति.
ब. बलदेवमुनिनी सज्झाय
March-2004
डॉ. रसीला कडीआ
।
२३
।
५७-५९
महावीर जिनस्तवन मातृका-श्लोकमाला मुनिचन्द्रसूरि गुरुगुण गहुंली
कवि ऋषभदास श्रीवल्लभोपाध्याय
विजयशीलचन्द्रसूरि
विनयसागर आ. प्रद्युम्नसूरि
१२२-१२८ १०१-११५ ७५-७७
रतनगुरु रास राणभूमीशवंशप्रकाश (रघुवंश)टीकानी परिचयात्मक भूमिका 'रघुवंश' द्वितीय सर्ग टीका
डॉ. रसीला कडीआ उ. मेघविजयजी मुनि कल्याणकीर्ति
विजयशीलचन्द्रसूरि आ. विजयनेमिसूरि | मुनि धर्मकीर्तिविजय
६३-६८ ४४-५२ १-७
ल.
लाभोदयरास
विजयशीलचन्द्रसूरि
२५ ।
६२-७४
व्रतविचाररास
ऋषभदास
विजयशीलचन्द्रसूरि
।
१-११२
101
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कतो.
कृति.
सम्पादक
अनु.नं. |
पृष्ठ
3
१०३-१०५
९-४० २६-२८
वसुधारा धारणी अने 'वसो'र्नु
वसुधारा मंदिर विज(य)वल्लीरास विज्ञप्तिका संग्रह - कुलमण्डनसूरि विज्ञप्ति - गुणरत्नसूरि विज्ञप्ति चतुर्मुख श्री महावीर स्तवन ज्ञानसागरसूरि विज्ञप्ति महत्तराश्रीचारित्रचूलाविज्ञप्ति सीमंधर स्वामि विज्ञप्ति विहंगावलोकन विहंगावलोकन विहंगावलोकन
श. शत्रुजयचैत्यपरिपाटिका-स्तोत्र | श्रुतास्वादः
विजयशीलचन्द्रसूरि शंकरकवि | विजयशीलचन्द्रसूरि
मुनिकल्याणकीर्तिविजय मुनिकल्याणकीर्तिविजय
मुनिकल्याणकीर्तिविजय पं. धर्मशेखर गणि | मुनिकल्याणकीर्तिविजय
मुनिकल्याणकीर्तिविजय
मुनिकल्याणकीर्तिविजय पं. धर्मशेखरगणि | मुनिकल्याणकीर्तिविजय
___ मुनि भुवनचन्द्र ___ मुनि भुवनचन्द्र
मुनि भुवनचन्द्र
२८ ३०-३१ २३-२६ २९-३० ३१-३२ १३८-१४३ ५६-६२ ९७-९९
अज्ञात
| आ. विजयअरविन्दसूरि | २६ ___ वि. शीलचन्द्रसूरि
११६-११८ १-१७
अनुसंधान-२७
सकलचन्द्रगणि
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कर्ता.
सम्पादक
अनु.नं.
पृष्ठ
कृति. .
March-2004
षट्प्राभृतमांदन्त्य नकारना प्रयोग षट्प्राभृतमां विभक्ति रहित शब्दरूप
डॉ. शोभना आर. शाह डॉ. शोभना आर. शाह
८८-९१ ९२-९५
मुनिकल्याणकीर्ति ।
लब्धिविजयकविन्
लावण्यसमय
सज्झाय-श्लोकादि संग्रह खिमा पंचावन्नी जीभ सज्झाय ३ मित्र उपनय सज्झाय | दशार्णभद्र राजर्षि श्लोक नारी स्वरूप प्ररूपण स्वाध्याय निह्वव विचार सज्झाय बलभद्रऋषि सज्झाय विशस्थानक नाम स्वाध्याय शान्तिनाथ श्लोक श्रावकना पांत्रीश गुणनी सज्झाय
वाचकनयसुन्दर
गुणविजय मुनि ऋद्धिविजय
* * - - * * * * * * *
४१-७८. ४२-४७ ५५-५६ ५६-५८ ६५-६७ ४७-४९ ५६-५८ ४९-५१ ७१-७२ ६७-६८ ७२-७३
सालिग गुणविजय गुणविजय गुणविजय
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कर्ता.
सम्पादक
अनु.नं.
|
104
पृष्ठ
पद्मकुमारमुनि हेमविजय
६८-७१ ५१-५२ ५४-५५
७४
कृति. श्लोक बन्धेन श्री शङ्केश्वर पार्श्वनाथ
स्तवन. संसार स्वरूप सज्झाय समता सज्झाय सिद्ध-स्वरूप स्वाध्याय हित शिक्षा बोल सज्झाय सप्तनय विवरण समुद्रबन्ध चित्रकाव्य : एक परिचय समुद्रबन्ध आशीर्वचन समेतशिखरगिरिरास सरस्वती-बार मासो सरस्वती स्तोत्र सांकळियुं : अनुसंधान १३ थी १८ |
हंस साधु अज्ञात विजयशीलचन्द्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि गुलाबविजय विजयशीलचन्द्रसूरि मुनि भुधर विजयशीलचन्द्रसूरि श्री दयासूरि ? | साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
५३-५४ १-९ ७-११ १२-२६ ४२-५२ ५९-६१ २०-२२
अंकोनुं
१४४-१६४
१-१७
सिद्धमातृका प्रकरण
दीप्तिप्रज्ञाश्री-चारुशीलाश्री सिद्धसेनसूरि | विजयशीलचन्द्रसूरि
तथा मुनि धुरन्धरविजय
२५
अनुसंधान-२७
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कृति.
कर्ता.
पत्र.
अनु.नं.
स्तवन
संपादक पं. केसर रसीला कडीआ
हीर सागर | मुनि जिनसेनविजय वाचक मुक्ति सौभाग्य डॉ. अभय दोशी
९६-९८ ११३-१३१ ७८-९६
March-2004
स्तवन चोविशी स्तवन चोवीसी
गणि
विजयशीलचन्द्रसूरि
६९-७१ ११५
विजयशीलचन्द्रसूरि
११९
स्त्रीतीर्थंकर मल्लिनाथनी प्रतिमाओ स्मृतिशेष श्री भंवरलाल नाहटा स्वाध्याय मेरुतुङ्गसूरिना 'प्रबन्धचिन्तामणि'मां
केटलीक ध्यानपात्र बाबतो राजशेखरसूरि कृत प्रबन्धकोश गत केटलीक नोंधपात्र बाबतो ललितविस्तरा हरिभद्राचार्यरचित स्वोपज्ञ वृत्तियुत पञ्चवस्तुक प्रकरणमाथी पसार थतां
जडेलु
विजयशीलचन्द्रसूरि विजयशीलचन्द्रसूरि
५३-५५ ५३-५५
विजयशीलचन्द्रसूरि
२५
१०३-१०५
105
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