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________________ 60 अनुसंधान-२७ हविडां तुं बालक अछइ रे, जोवन भरीअ कुमार आठ रमणि परणावीउ रे, भोगवि सुख अपारि रे ॥४|| जाया० जनम मरण नरयां तणां हे, दुख न सहणउ जाइ वीर जिणंद विखाणीआ हे, ते मंइ सुणीआ आज ॥५॥ हे माऊडी० वच्छ काचलीय जीमणउ रे, अरिस विरस आहार भुंइ पाला नई हीडिणउं रे, जाणिसि तब हिं कुमार रे ॥६॥ जाया० भमतां जीव संसार माहि हे, धर्म दुहेलुउ माइ जर व्यापइं इंद्रि खिस्यइं हे, तब किम करणउ जाइ ॥७॥ हे माऊ. जोवनभरी दीख्या लेई रे, आर्द्रकुमार सुजांणी नंदषेण आगइ नडिउ रे, विषय दुजय सुत जाणि रे ॥८॥ जाया०संय० शिवकुमारि किम परहरी हे, भोग पंचसइ नारी सालिभद्र जंबू तजी हे, खूता नवि संसार ॥९॥ हे माउ० सीआलइ सी वाजूस्यइ हे, उन्हालइ लूअ साल बरसालइ मइलां कापडां हे, जांणिसिं तबहिं कुमार रे ॥१०॥ जाया०संय० सुबाहु प्रमुख दस जे हुआ है, पंचपंचसइ नारि राज रिद्धि रमणी तजी हे, जांण्यउ सुख न संसारि ॥११॥ हे माडी० मृगनयणी आठइ रुडइं हे, नयणे नीर प्रवाह भरि जोवन छोरू नहीं रे, मूकि म पूत अणाह रे ॥१२॥ जाय० संय० स्वरथ जगि सवि वल्लहुउ हे, सगु न किसही कोई विषम विषउ एह सही हे, किम भोगविइ सोइ ॥१३॥ हे माऊडी० हंसचूलिका सेजडी रे, रूपि रमणी रस भोग एणि सूंआला देहडी रे, किम लेइसि गिरि जोग रे ॥१४॥ नीया० संय० खमि खमि माइ पसाउ करीनइ, मइ दीधउ तुम्ह दोस दिउ अनुमति जिम हुं सुखा हो, वीर चलणि लीउं दीख ॥१५॥ हे माउ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520527
Book TitleAnusandhan 2004 03 SrNo 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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