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________________ 46 अनुसंधान-२७ ढाल ॥ बोलइ इयुं साहि सुजाण, मान्युं गुरुवचन प्रमाण । हीर अकब्बर जेसंग साही, द्वंजिउं (भुंजिउं?) अविचल पातिसाही॥१३०॥ जिहां मेरु मही सूरचंद, तां प्रतपो एह मुर्णिद ।। साधु साधवी श्रावक श्रावी, उदयवंत सु सुगुरु पद पावी ॥१३२।। करतव्य जे अकब्बर कीधां, सहु जांणइ लोकप्रसिद्धां । जगतगुरु दीधुं नाम, छ मासि अमारि फुरमांन ॥१३२॥ सेजादिक तीर्थ जेह, बकसइ सहइगुरुकुं तेह ।। जीजीउ दंड दोर जगाति, अकबरसाही कहइ नही वात ॥१३३॥ जोर जलम न कीजइ जाकइ, हुए ए अधिक इसा कइ ॥१३४।। भोगीजन करइ बहुभोग, आतम साधक साधु योग । देस मुलक पुर गाम, सुखी जिहां जिहां अकबर नाम ॥१३५॥ ते तो सहइगुरुको उपदेस, समुअइ सो सदा वंछेस । चउथउ आरो परतखि दीसइ, पूजीजइ जिन चउवीसइ ॥१३६।। उच्छव होवइ निति झाझा, जिनशासन बहुत दिवाजा ॥१३७॥ श्रीविजयसेनसूरिंद, चिर नंदो महामुर्णिद । जस गुणकुं न लहु पार, सोहम जंबु अवतार ॥१३८॥ सकलपंडित सिरताज, कल्याणकुशल गुरुराज । ज्ञानी गुणवंत मुनीस, श्रीमेहमुंणिंदकु शीस ॥१३९॥ . दूहा || साह लटकण सुत गुणनिलो, लीलादे जस माय । कल्याणकुशल गुरु भेटतां, दारिद्र दूरि जाय ॥१४०।। ढाल ॥ अहनिशि जपतां गुरु नाम, सीझइ वंछित काम । कहइ दयाकुशल तस सीस, सुप्रसन्न सहइगुरु निशदीस ॥१४२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520527
Book TitleAnusandhan 2004 03 SrNo 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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