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अनुसंधान-२७
और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के विद्यागुरु भी थे। सं० १८२१ में जिनलाभसूरि ने ८५ यतियों सहित संघ के साथ आब की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे । विक्रम सम्वत् १८३४ में ९० वर्ष की परिपक्व आयु में पाली में इनका स्वर्गवास हुआ था । पाली में आपकी चरण-पादुकाएँ भी प्रतिष्ठित की गई थीं । इनके द्वारा निर्मित कतिपय प्रमुख रचनायें निम्न है : संस्कृत :
गौतमीय महाकाव्य - (सं० १८०७) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है।
गुणमाला प्रकरण - (१८१४), चतुर्विंशति जिनस्तुति पञ्चाशिका (१८१४), सिद्धान्तचन्द्रिका "सुबोधिनी" वृत्ति पूर्वार्ध, साध्वाचार षट्त्रिंशिका, षटभाषामय पत्र आदि । बालावबोध व स्तबक :
भर्तृहरि-शतकत्रय बाला० (१७८८) अमरुशतक बालावबोध (१७९१), समयसार बालावबोध, (१७९८), कल्पसूत्र बालावबोध (१८११), हेमव्याकरण भाषा टीका (१८२२) और भक्तामर, कल्याणमन्दिर, नवतत्व, सन्निपातकलिका आदि पर स्तबक । स्फुट रचनायें :
आबू यात्रा स्तवन (सं० १८२१), फलौदी पार्श्व स्तवन, अल्पबहुत्व स्तवन, सहस्रकूट स्तवनादि अनेक छोटी-मोटी रचनायें प्राप्त हैं । महोपाध्याय जी की शिष्य परम्परा भी विद्वानों की परम्परा रही है। प्रधान आनन्दराम :
__ आनन्दराम के सम्बन्ध में इस पत्र में केवल यही उल्लेख मिलता है कि ये विक्रमनगर अर्थात् बीकानेर नरेश अनूपसिंहजी के राज्याधिकारी और महाराजा सुजानसिंहजी के राज्यकाल में राज्यधुरा को धारण करने में वृषभ के समान हैं अर्थात् बीकानेर के प्रधान थे । बीकानेर के युवराज
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