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________________ 18 . अनुसंधान-२७ कल्प-व्याख्यान-मांडणी ॥ ॥ १० ॥ सर्वो जनः सुखार्थी, तत् सौख्यं धर्मतः स च ज्ञानात् । ज्ञानं च शास्त्र( स्त्रा)धिगमात्, त्रिविधं शास्त्रं बुधाः प्राहुः ॥१॥ सहूइ एकेन्द्रिय आदि देई जीववर्ग सौख्य वांछड्, अनइ दुःक्खतु बीहइ। "सव्वे वि सुक्खकंखी, सव्वेविायादुक्खभीरुणो जीवा । सव्वे वि जीवियपिया, सव्वे मरणाउ बीहंति ॥" जीवितव्यसौख्य सहूइ वांछड् । तं सौख्य जीव धर्मतु पामइ । "यद्वन्न तृषाशान्ति-र्जलं विनाऽन्नेनानाक्षुधाहानिः ।। जलदं विना न सलिलं, न शर्म धर्माद् ऋते क्वचित् ॥" विनय पाखें विद्याप्राप्ति नहीं । औषध पाखइ रोगशान्ति नही । सच्छंग पाखइ सद्बुद्धि नही । विवसाय पाखइ रद्धि नही । शुक्लध्यान पाखइ सिद्धि नही । तिम धर्म पाखइ सुख नही ॥ "जलेभ्यो जायते सस्यं, सस्येभ्यो जायते प्रजा । प्रजाभ्यो जायते धर्मो, धर्मान्मोक्षं च गच्छति ॥" प्रथम पहिलु मेघवृष्टि हुइ । पाणीयें करी तेहहुंती अन्ननी प्राप्ति हुइ। अन्नवृद्धि हुँती प्रजा सुखी हुइ । सुखहुंती धर्म चालइ । धर्मथिकी जीव मोक्ष पामइ ॥ "धर्मसिद्धौ ध्रुवा सिद्धि-घुम्नाप्रद्युम्नायोरपि । दुग्धोपलम्भे सुलभा, संप्राप्तिर्दधिसर्पिषोः ॥" जइ जीवप्राणी तणइं पोतइ पूर्वाभव(वो)पार्जित धर्म हुइ तु तेहना धर्म थिकी अर्थनी प्राप्ति नीपजइ । अर्थतु कामभोग पामइ । जिम पहिलं दुग्धनी प्राप्ति नीपजइ तु तेह दुग्ध थिकी दधि अनइ आज्य कहीइ घृत-अमृत ते सुप्राप्य नीपजइ जिम, तिम धर्मतु अर्थ, अनइ अर्थतु कामभोग लहइ । ते धर्म प्राणीआ प्रतिइं पंचविध ज्ञानतु हुइ ।।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520527
Book TitleAnusandhan 2004 03 SrNo 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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