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________________ March-2004 गीत विशे अनु०ना सम्पादक श्रीए नोंध लखी छे तेना पर ध्यान आपवा जेवुं छे. 83 'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रन्थना स्वाध्यायमांथी तारवेली केटलीक वातो श्रीशीलचन्द्रसूरि पासेथी मळे छे. ए वांचतां जे थोडुंक सूझ्युं ते 'प्रशान्तं दर्शनं यस्य-' श्लोक दिवाकरजीनो होय अने हेमचन्द्राचार्ये पोतानी कृतिमां मूक्यो होय ए झट स्वीकार थइ शके तेवी वात नथी. बीजुं, दिवाकरजीनी 'महादेव द्वात्रिंशिका' उपलब्ध नथी, के तेवो उल्लेख पण प्र. चिं. सिवाय अन्य कोई ग्रन्थकारे कर्यो होय तेवी माहिती नथी. हेमचन्द्राचार्यनी सामे ते वखते आ बत्रीसी होय तो पण तेनो श्लोक कशा उल्लेख वगर पोतानी कृतिमां तेओ सामेल न ज करे. त्रीजुं, दिवाकरजीनी शैली आ श्लोकमां दृष्टिगोचर नथी थती ए तो सम्पादकजीए ज नोंध्युं छे. महापुरुषोना सम्बन्धमा आवी रसिक कल्पनाओ ऊभी थवी अने क्रमशः रूढ थवी ए कोई नवी वात नथी. अहीं आवुं ज बन्युं जणाय छे. अने आवी कल्पनाओ वास्तविक रूपे मनाई - लखाई होय तेनां उदाहरणो माटे दूर जवुं पडे तेम नथी. सम्पादकजीए ज आ लेखमां ग्रन्थगत आवा निराधार प्रसंगनो उल्लेख अने चर्चा करी छे. 'लोकरंजन खातर आवुं तत्त्व प्रबन्धकारो द्वारा उमेरायुं होय छे' सम्पादकजीनुं आ अवलोकन बिलकुल सत्य छे. लेखमां चर्चित 'कांस्यताल'नी वात पण आ ज प्रकारनी छे. 'महादेवे ४ युग पहेलां ए मन्दिरनी स्थापना करी हती' एवं ब्राह्मणो ज कहे ए केटलुं संभवित ? प्रबन्धोमां प्राप्त विगतोनुं कठोर परीक्षण कर्या विना तेना आधारे कशा पण निर्णय पर न आववुं ए इच्छनीय छे. बीजी बाजु, आज किंवदन्तीओमां इतिहासनां तत्त्वो- तथ्यो विखरायेलां पड्यां होय छे ए पण भूलवा जेवुं नथी. तुलनात्मक अध्ययन - परिशीलन ए ज एक स्वस्थ अभिगम, आवी बाबतोमां, होई शके. Jain Education International For Private & Personal Use Only जैन देरासर नानी खाखर- ३७०४३५ कच्छ, गुजरात. www.jainelibrary.org
SR No.520527
Book TitleAnusandhan 2004 03 SrNo 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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