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________________ March-2004 25 अरिहंतरहइं नमस्कारु । भावारिहंत, नामारिहंत, अतीत अनागत वर्तमान, पनर कर्मभूमि-मध्यस्थित जे अरिहंत, तेहरई नमस्कार ॥ "नमो सिद्धाणं ॥" सिद्ध छई जि पनरभेदि, ते सिद्ध सामान्यकेवली मुक्तिपदप्राप्त, तेहरइ नमस्कार ॥ "नमो आयरियाणं ॥" आचार्य जे चौद पूर्वधर गणधर श्रुतज्ञानी अग्यार अंगतणा जाण अनंत सिद्धांततणा आचार कहणाहार गच्छभारधुरंधर जिनशासनमंडपस्तंभ अदंभविवर्जितारंभ वैराग्यरसकुंभ इस्या छई जि आचार्य, तेहरहइं नमस्कार ॥ "नमो अवज्झायाणं ॥" उपाध्याय ते कहीइं जे आचार्यपदयोग्य पाउ द्वादशांगी भणावई । आपणपे भणइ । ते उपाध्यायरहइं नमस्कार || "नमो लोए सव्वसाहूणं ॥" लोक कहतां हूंतां चौद रज्ज्वात्मक लोक, तेहमा अष्टदश सहस्र शीलांगधरधारक, सर्वसावद्ययोगनिवारक, तपक्रियानिर्मलीकृतगात्र, चारित्रपात्र, दांत, कांत, बावीस परीषह सहनशील, गणि करी धीर, निर्मल चारित्रमार्गतणा पालणहार शुद्ध, बइत्तालीसदोष करी विशुद्ध, अविरुद्ध आहार लेणहार, इस्या छंई जे महात्मा, पंचासाम(मि)ति सम(मि)ता, त्रिहु गुप्ति गुप्ता, ऋषिराज एवंविध साधुमहात्मा, तेहरहई नमस्कार ॥ "एसो पंचनमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो । ___ मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ॥१॥" इसिउ पंचपरमेष्ठि-नमस्कारु सघलाई पापनु प्रणाशन करणहार, मांगलिक्य सवि हु माहि एह श्रीकल्पसूत्रतणइ प्रारंभि पहिलु मांगलिक्य नीपजउ॥ एतावता पंच परमेष्ठि नमस्कारतणुं संक्षेपि करी व्याख्यान कीधुं । हिव ते श्रीकल्पसिद्धांततणउ प्रथम आलापक ग्रंथकार कुणइ प्रकारि भणइं॥ सिद्धांत आरंभणुं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520527
Book TitleAnusandhan 2004 03 SrNo 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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