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________________ 42 अनुसंधान-२७ · एणी परिइं बहुत मंडाण, सांहमो संघ सुजाण । अबीर लाल गुलाल, तोरण वन्नरमाल ॥९३।।। पूजा नवे अंग कीजइ, दान याचकजन दीजइ । देखई चतुर मिली थोक, कौतिग मोह्या ए लोक ॥९४|| श्रीगुरुवदन निहालइ, दूरित दूरि पखालइ । एणी परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ ॥९५॥ श्रीगुरु रंगि सिधारइ, लाहोरमांहि पधारइ । नगरी सारी सिणगारइ, भलई आयो हीर पट्टोधारी अकब्बर साही बोलायो, गछपति रंगिं ए आयो ॥१६॥ दूहा ॥ ईर्यासुमतिं चालतु, बोलइ युगहप्रधान । पहइलुं तिहां अम्हो जाइसुं, जिहां अकब्बर सुलतान ||९७|| ढाल ॥ राग गोडी ॥ श्रीगुरु दरबारई आवइ मननइ रंगिइं समतारस-रागी उलट अतिघण अंगि । वेग खवरि कराई अकब्बर साहीकुं एह आएहिं गुरुजी खुसी बोलाए तेह ।।९८॥ साहि अधिक विवेकी आचारिज पधरावइ कास्मेरी मुहुलंइ सांहमो दिल्लीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिइ आंणी मन उच्छाह। तपगच्छपति सेती बोलइ इयुं पतिस्याह ॥९९।। "चंगे हु गुरुजी चंगे हई गुरु हीर . आलम सारीमई कोउ नाहीं तुम्हसो पीर । तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पाय नाही टुकरोस तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस ॥१०॥ बडे फकीर निरंजन साधत हो नित योग च्यत लाउ खुदायसुं नाही दुनीआंका भोग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520527
Book TitleAnusandhan 2004 03 SrNo 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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